‘अमृतकाल’ में यह याद रखना कहीं ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है कि ग़ुलाम भारत ने कैसे-कैसे त्रास झेले और कितना खून या पसीना बहाकर उनसे निजात पाई. इनमें किसानों व मज़दूरों का सबसे बड़ा त्रास बनकर उभरी ‘हरी-बेगारी’ का नाम सबसे ऊपर आता है, जिससे मुक्ति का रास्ता असहयोग आंदोलन से निकला था.
किसी ने क्या खूब कहा है कि गुलामी के शिकंजे से बचे रहने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि जब उसकी कोई आशंका न दिख रही हो, तब भी उसके अंदेशों से परेशान (पढ़िए: सावधान) रहा जाए. इस लिहाज से देखें, तो आजादी के बहुप्रचारित ‘अमृतकाल’ में यह याद रखना कहीं ज्यादा जरूरी हो जाता है कि गुलामी के दौर में हमने कैसे-कैसे त्रास झेले और कितना खून या पसीना बहाकर उनसे निजात पाई.
इन त्रासों में ब्रिटिशकाल में किसानों व मजदूरों का सबसे बड़ा त्रास बनकर उभरी ‘हरी-बेगारी’ का नाम सबसे ऊपर आता है. इनमें ‘हरी’ के तहत किसानों को, जब भी जमीनदार की ओर से जरूरत जताई जाए, हल व बैलों सहित उसके खेतों में मुफ्त में खटना पड़ता था.
जब भी इसका फरमान आ जाता, किसानों के पास दो ही विकल्प बचते थे: अपना जरूरी से जरूरी काम छोड़कर सुनाया गया हुक्म बजाएं या अपनी जोत वाली कृषि भूमि से जबरिया बेदखली झेलें. कारण यह कि उन दिनों किसान अपनी जोत वाली भूमि के स्वामी नहीं हुआ करते थे और जमीनदार जब चाहता, उन्हें उससे बेदखल कर सकता था.
हरी के विपरीत बेगारी या बेगार के तहत मजदूरों को उन महाप्रभुओं के लिए बिना मजदूरी अपनी हड्डियां चटखानी पड़ती थीं, जो अन्यथा अपनी सामंती, साम्राज्यवादी और अफसरशाही शक्तियों के बूते उनका जीना दूभर कर देते थे. ‘हरी’ का सर्वाधिक कहर किसानों पर तो ‘बेगारी’ का मजदूरों, घास काटने वालों यानी घसियारों और बैलगाड़ी वालों वगैरह पर टूटता था.
‘हरी’ तो सिर्फ वह जमीनदार ही लेता था, किसान जिसके असामी होते थे, लेकिन बेगार लेने के लिए कोई भी गोरा-काला अफसर, राजा, सामंत, जागीरदार, कारिंदा या कर्मचारी ‘आजाद’ था. यूं यह कहना ज्यादा सही होगा कि इस मामले में बडे़ अंग्रेज अफसरों ने राजाओं व सामंतों सबको पीछे छोड़ दिया था. स्वाभाविक ही इससे बेगार पीड़ितों में उन्हीं के विरुद्ध सबसे ज्यादा असंतोष था.
1920-21 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने ऐतिहासिक असहयोग आंदोलन शुरू किया, तो तत्कालीन संयुक्त प्रांत (आज के उत्तर प्रंदेश व उत्तराखंड) में बेगार की बीमारी महामारी की तरह फैली हुई थी. हिंदी के अपने वक्त के जाने-माने लेखक कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ (29 मई, 1906 – 09मई, 1995) ने अपनी पुस्तक ‘स्वतंत्रता संग्राम की एक झांकी’ में इसका वर्णन करते हुए बताया है कि कैसे इस आंदोलन ने ‘हरी-बेगारी’ का कहर झेल रहे किसानों व मजदूरों को असहयोग और आंदोलन की प्रेरणा दी.
इसी प्रेरणा ने आगे चलकर किसानों-मजदूरों से अपने हकों के लिए कई फैसलाकुन आंदोलन शुरू कराए. उत्तर प्रदेश पर केंद्रित उक्त पुस्तक बताती है कि असहयोग आंदोलन से पहले अंग्रेज अफसर दौरों के नाम पर अपने मुख्यालयों से तहसीलों, कस्बों व गांवों में जाते, तो तहसीलों के चपरासियों की मार्फत मजदूरों व घसियारों वगैरह को जबरदस्ती पकड़वा लेते और उनसे अपराधियों से भी बुरा सलूक करते.
पकड़े गए मजदूरों में कोई अपने बीमार बेटे के लिए दवा लेने डाॅक्टर के पास जा रहा होता अथवा बेटी की सगाई या पत्नी-बच्चों के पेट भरने के लिए राशन का इंतजाम करने, तब भी अफसरों व चपरासियों को रहम नहीं आता.
इसके उलट दस की जरूरत होती तो पच्चीस मजदूर व घसियारे पकड़ लिए जाते. बाद में चढ़ावा लेकर पंद्रह छोड़ दिए जाते और बाकी मजदूरों को अफसरों के बंगलों, बागों व मैदानों में तरह-तरह के कामों में जबकि घसियारों को घोड़ों के लिए घास काटने में लगा दिया जाता. इन कामों के लिए उन्हें कोई मजदूरी नहीं दी जाती और जरा-जरा-सी हुक्म-उदूलियों पर गालियां देकर मारा-पीटा जाता.
इतना ही नहीं, दौरे पर निकले अफसर जहां डेरा जमाते, वहां मजदूर ही नहीं, बैलगाड़ियों वाले भी बैलगाड़ियों समेत बेगार के लिए धर लिए जाते. तहसील के चपरासी जब भी चाहते, सड़क पर जा धमकते और आती-जाती बैलगाड़ियों को हांकने वालों पर टूट पड़ते. हनक दिखाकर बैलगाड़ियों में लदा सामान वहीं उतरवा देते और उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भी नहीं निभाते.
अति की हद यह कि कोई युवक किसी बैलगाड़ी में अपनी दुल्हन ला रहा होता तो भी साहब का हुक्म बताकर उसे सपत्नीक पैदल कर देते. वह बहुत चिरौरी-मिनती अथवा उनकी जेबें गरम करता तो भले ही थोड़े पसीज जाते, नहीं तो दुल्हन सहित उसे वहीं उसके हाल पर छोड़कर बैलगाड़ी ले जाते. दो-तीन दिन तक अफसर का सामान ढोने में लगाने के बाद लौटाते तो भूखे-प्यासे बैल अधमरे हो गए होते और बैलगाड़ी चूं-चर्र बोल रही होती. लेकिन बैल और बैलगाड़ी को क्या कहा जाए, जब युवक, उसकी दुल्हन और उनके परिजनों को हुए त्रास को लेकर भी कहीं कोई अपील या दलील नहीं चलती.
‘साहब’ के नाम पर गांवों से घी-दूघ, अंडों व मांस आदि की लूट की जाती, सो अलग. अफसरों के डेरे के पास एक दुकान जबरदस्ती खुलवाई जाती, जिससे मनपसंद रेट पर या मुफ्त सामान लिया जाता. पहाड़ी क्षेत्रों में, जहां बैलगाड़ियां नहीं चलतीं, अफसरों के सामानों की ढुलाई के लिए भी मजदूर ही पकड़े जाते. वहां के हर गांव का मुखिया एक रजिस्टर में सारे ग्रामवासियों के नाम दर्ज रखता और जब भी बेगार के लिए मजदूरों की मांग आती, रजिस्टर खोलता, जिसे चाहता बेगार के लिए भेज देता और जिसे चाहता बख्श देता.
जो बेगार से इनकार करता, उसके सिर पर साहब के कमोड या जूतों की बोरी तक रख दी जाती. एक बार बेगार के लिए पकड़े जाने पर आठ-दस दिन से पहले मुक्ति न मिलती. कई बार पंद्रह-बीस दिन भी लग जाते.
वायसराय के दौरे पर तो अति ही हो जाती. जमीनदार ऐसे मौकों को अपने लिए वरदान समझते और वायसराय की निगाहों में चढ़कर अपनी रायबहादुरी पक्की करने के लिए समूची रियाया को बेगार में झोंक देने में भी न लजाते. ऐसे मौकों पर पटवारी और नायब तहसीलदार ही सबसे बड़े अफसर हो जाते और जो भी बेगार का हुक्म न मानता, उसे पकड़ मंगाते और पेड़ों से बंधवाकर जी भर पिटवाते.
बेचारे मजदूर कब तक यह सब सहते रहते? फरवरी, 1921 में तत्कालीन वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड को सहारनपुर व देहरादून के बीच स्थित मोहंड नामक वन क्षेत्र में शिकार के लिए आना हुआ तो असहयोग आंदोलन मजदूरों की ताकत बन चुका था. सो उन्होंने बेगार करने से साफ मना कर दिया-न अफसरों की सुनी, न जमीनदार और उसके कारिंदों की. बावजूद इसके कि न उन पर धौंस कम जमाई गई, न गालियां कम दी गईं और न मारा-पीटा ही कम गया.
नायब तहसीलदार कारिंदों के साथ गांवों में जाते तो मजदूर इकट्ठे होकर उन्हें घेर लेते और बेगार से साफ-साफ मना कर देते. अंततः प्रशासन ने हार मानकर बिजनौर से मजदूर बुलाए, लेकिन वे भी हालात देखकर खिसक लिए. तब लारियों में भरकर रेलवे के कुली लाए गए और जैसे-तैसे वायसराय का कार्यक्रम संपन्न कराया गया. फिर भी ग्रामीणों ने अरसे तक मोर्चा खोले रखा और उनके कार्यक्रम में सहयोग करने वाले जमीनदार का सामाजिक बहिष्कार करते रहे.
यहां बेगार पीड़ितों के लिए संघर्ष करने वाली कुमाऊं परिषद द्वारा 1921 में बागेश्वर के मेले में की गई उस ‘रक्तहीन क्रांति’ का जिक्र भी जरूरी है, जिसने तत्कालीन उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड) के पहाड़ों वाले क्षेत्र में 1815 से चली आ रही बेगार की कुप्रथा का खात्मा सुनिश्चित किया.
दरअसल, उस साल बागेश्वर का मेला आया, तो इस परिषद ने आह्वान कर दिया कि जो भी ग्रामीण मेले में आए, जैसे भी संभव हो, अपने गांव के मुखिया का नामों वाला रजिस्टर साथ लाए और सरयू में प्रवाहित कर दे. ताकि विवरण के अभाव में अफसर उनसे बेगार ले ही न पाएं.
गोरी सरकार ने इस आह्वान को विफल करने के लिए साम-दाम, दंड-भेद सब अपनाया.
अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर डायबिल ने मेले में जाकर पहले भीड़ को तितर-बितर हो जाने को चेताया, फिर सशस्त्र पुलिस की बंदूकों के निशाने पर ले लिया. लेकिन ‘कूर्मांचल-केशरी’ बद्रीदत्त पांडेय ने उसे चेताया कि पीड़ितों के दृढ़ संकल्प के आगे उसकी पुलिस की गोलियां कम पड़ जाएंगी, तो जानें क्या सोचकर उसने पुलिस को पीछे हटा दिया और खुद अपने तंबू में चला गया. फिर तो बेगार पीड़ितों ने संकेत के तौर पर पहले शंख और नरसिंघे बजाए, फिर अपने-अपने गांवों के रजिस्टर सरयू में प्रवाहित कर दिए.
परिणाम यह हुआ कि डिप्टी कमिश्नर डायबिल अगले दिन मेले से अपनी वापसी के वक्त अपना सामान उठाने के लिए बेगार करने वाले मजदूर नहीं जुटा सका. इस मेले से पहले कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन से लौटे कुमाऊं परिषद के कोई पचास कार्यकर्ता 10 जनवरी, 1921 को बागेश्वर पहुंचे थे. उन्होंने 12 जनवरी को जुलूस निकालकर वहां बड़ी सभा की और किसी भी हालत में बेगार न करने की शपथ दिलाई थी.
इतिहासकार प्रो. अजय रावत ने उत्तराखंड के राजनीतिक इतिहास पर अपनी पुस्तक में लिखा है कि वहां इससे पहले भी बेगार के छोटे-बड़े नागरिक प्रतिरोध होते रहे थे. अंग्रेज कमिश्नर ट्रेल ने अपने वक्त में बेगार के खात्मे के लिए खच्चर सेना बनाने का प्रयास किया था, लेकिन विफल रहा था. लेकिन प्रतिरोधों की एक सफलता यह थी कि 1857 में कमिश्नर रैमजे को बेगार करने वालों की कमी जेल के कैदियों से पूरी करनी पड़ी थी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)