स्मृति शेष: कलाकार के लिए ज़रूरी है वो अपनी रूह पर किरदार का लिबास ओढ़ ले. किरदार दर किरदार रूह लिबास बदलती रहे, देह वही किरदार नज़र आए. सतीश कौशिक को ये बख़ूबी आता था.
(मंज़र एक)
तारीख़ 9 मार्च 2023
द फिल्मी कैलेंडर शो, सीज़न- 2 एपिसोड- 38
टाइटल सॉन्ग चलता है- (आवाज़ जानी पहचानी है )
आरजे की आवाज़ आती है (गाते हुए )- चढ़ती जवानी मेरी चाल मस्तानी, तूने क़दर ना जानी रामा
(शो का टाइटल )
जी हां दुनिया को अपने ठेंगे पर रखता ये है आपका अपना सतीश कौशिक!! शो शुरू हो गया है, द फिल्मी कैलेंडर शो सीज़न- 2
हां तो, डिजिटल कैलेंडर भाई आज की तारीख़ तो निकालो. किसी चक्र के घूमने की आवाज़ आती है और तारीख़ निकलती है 1982 के जनवरी की बाईस. इस तारीख़ को फिल्म सत्ते पे सत्ता रिलीज़ हुई थी.
शो के होस्ट सतीश कौशिक बात कर रहे हैं फिल्म के ट्रिविया, गाने और रोचक क़िस्सों की, वही अपने चिर-परिचित अंदाज़ में हंसते खिलखिलाते और गाते हुए. थिएटर और फिल्म अभिनेता, निर्माता, निर्देशक, संवाद लेखक के साथ-साथ सतीश कौशिक के जिस अंदाज़ से आप वाक़िफ़ हुए वो था शो होस्ट का. यही नहीं शो का टाइटल सॉन्ग भी उन्होने ख़ुद ही गाया था.
हिंदुस्तान टाइम्स के पॉडकास्ट, एचटी स्मार्टकास्ट पर सतीश कौशिक इस शो को साल 2019 से होस्ट कर रहे थे. दोनों सीज़न्स को मिला दें तो ये उनका 145 वां पॉडकास्ट था. और तो और जिस दिन वो इस दुनिया को अलविदा कह गए, उस दिन भी वो प्रसारित हुआ. जैसे जीवन का फलसफ़ा दे गए हों- शो मस्ट गो ऑन!
(मंज़र दो)
साल 1979
स्थान- मुंबई
मॉनसून के दिन
तेईस-चौबीस साल का एक साधारण-सा लड़का, जिसकी जेब में मात्र आठ सौ रुपये हैं तथा आत्मविश्वास आठ सौ गुना है, दिल्ली से आई पश्चिम एक्सप्रेस से मुंबई स्टेशन उतरता है. बड़ा शहर, भीड़ और समंदर की तूफ़ानी लहरों को देखकर थोड़ा घबरा रहा है. क्या करे, कहां जाए?
पृथ्वी थिएटर की ओर बढ़ चलता है. जहां नसीरुद्दीन शाह और ओमपुरी जैसे बड़े थिएटर कलाकार नाटक की रिहर्सल कर रहे हैं. मन में इच्छा ज़ोर पकड़ती है कि छोटा-मोटा रोल उसे भी मिल जाए बस… किरदारों को पहनना तो उसे आता है. अपनी बात वहां कहता है, अपना थिएटर का अनुभव दिखाता है तो एक छोटा-सा रोल उसे दे दिया जाता है क्योंकि जिस कलाकार को वह रोल करना था उसे अचानक लखनऊ जाना पड़ा. वह रोल उस लड़के को दे दिया गया क्योंकि शो मस्ट गो ऑन.
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(मंज़र तीन)
साल 1972
द प्लेयर्स थिएटर ग्रुप
किरोड़ीमल कॉलेज, नई दिल्ली
इंटर क्लास प्ले कॉम्पटीशन
हॉल छात्रों से खचाखच भरा है, हर प्ले पर ज़बरदस्त हूटिंग हो रही है. कलाकार निराश हो जाते हैं और पर्दा बार-बार गिरा दिया जाता है. अब एक और प्ले की बारी है- शतरंज.
सभी कलाकार मंच पर हैं.
सभी ने तय किया है चाहे कुछ भी हो जाए, पर्दा बीच में नीचे नहीं गिरेगा. आख़िरी दृश्य तक मंचित होगा नाटक. छात्र टमाटर फेंक रहे हैं, कागज़ के हवाई जहाज़ उड़ा रहे हैं. बीच में ही कुछ कलाकार हताश होने लगते हैं, उनमें से एक कहता है शो को रोकना नहीं है. ये कलाकार कोई और नहीं बल्कि सतीश कौशिक थे.
प्ले ख़त्म होता है, सभी कलाकार एक दूसरे के गले लगते हैं और यही एक सीख लेते हैं चाहे कुछ भी हो शो मस्ट गो ऑन.
(मंज़र चार)
स्थान- नाई वाली गली, करोल बाग़ दिल्ली
वर्ष- 1965-66
एक नौ दस बरस का लड़का चुपके से अपनी मां के कमरे में घुसता है, पांच रुपये निकालता है और भागते हुए सिनेमा हॉल पहुंचता है. गाइड फिल्म का टिकट ख़रीदता है. फिल्म देखकर वापस घर को लौटता है तो बड़े भाई दरवाज़े पर ही बेंत हाथ में लिए खड़े दिखाई पड़ते हैं. बड़े भाई के दूसरे हाथ में अख़बार है, जिसमें उन सभी फिल्मों के नाम पर क्रॉस के निशान हैं जो सिनेमा हॉल्स में लगी हुई हैं और देखी जा चुकी हैं. छिपकर मां के बटुए से पैसे निकालकर फिल्म देखने की बात पर बेंत से दे-दमादम सुताई होती है बच्चे की.
उधर बच्चे के चेहरे पर पिटते हुए भी एक मुस्कान है, मन ही मन गाइड का एक और शो चल रहा है.
चाहे जो भी हो जाए – शो मस्ट गो ऑन
यही बच्चा अपने स्कूल के एक नाटक में मज़ाहिया पंडित जी का रोल करता है जो कथा कह रहे हैं. किरदार को इतना मज़बूती से पकड़ता है कि लोग हंस-हंसकर लोटपोट हो जाते हैं. इसके बाद परिवार की एक शादी में अपने रिश्ते के भाई के मोनो एक्ट को बड़े ध्यान से देखता है और स्कूल के फेयरवेल में उसे ख़ुद प्ले करता है.
इस बच्चे को एक्टिंग के वायरस ने संक्रमित किया है और इस क़दर कि बच्चा तय कर चुका है कि वो एक्टर बनेगा. यह बच्चा मशहूर एक्टर सतीश कौशिक बना.
सतीश कौशिक एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे मगर ख़्वाब सभी ऊंचे… कि मैं कुछ न कुछ बड़ा करूंगा और किसी रोज़ इस घर के कष्ट दूर करूंगा. पांच भाई-बहन और माता-पिता के साथ नई दिल्ली के करोल बाग़ के छोटे से घर में रहा करते. घर में किताबें, साहित्य या पढ़ने-लिखने का माहौल नहीं था. रविवार को बस एक अंग्रेज़ी पेपर आया करता. सतीश उसे पढ़ लेते तो पिता उन्हें प्यार से शास्त्री जी पुकारते. और वे पिता की मजबूरी, आर्थिक बोझ और तालों के उस थैले के वज़न से झुके कंधों के दर्द को महसूस कर पा रहे थे.
उस दर्द और किरदार को साथ लिए ताउम्र चले. पिता तालों के सेल्समैन थे.
बचपन का नाटक कॉलेज में थिएटर तक पहुंचा. विज्ञान से कब नाट्यशास्त्र की ओर क़दम बढ़ गए मालूम ही न चला. किरोड़ीमल कॉलेज की द प्लेयर्स थिएटर सोसाइटी जॉइन कर ली. जब भी वो किसी प्ले में भाग लेते एक शख़्स उन्हें बड़े ग़ौर से देखते. ये थे प्रोफेसर फ्रैंक ठाकुरदास, मिरांडा हाउस कॉलेज की पहली प्रिंसिपल वेदा ठाकुरदास के छोटे भाई.
प्रोफेसर फ्रैंक ठाकुरदास ने किरोड़ीमल कॉलेज की स्थापना के एक-दो वर्ष के भीतर ही साल 1957 में कॉलेज की थिएटर सोसाइटी बना दी थी- द प्लेयर्स थिएटर. वो वहां ड्रामाटिक्स और अंग्रेजी के साथ ही राजनीति विज्ञान भी पढ़ाते थे. इतने लोकप्रिय थे कि उन्हें ज़्यादातर विद्यार्थी अंकल कहा करते थे.
इन्हीं अंकल ने एक दिन सतीश कौशिक को बुलाकर कहा कि तुम कुछ मत करना बस एक्टिंग करना. सतीश कौशिक के यब कहने पर कि मुझ जैसा साधारण सूरत वाला लड़का भला एक्टिंग कैसे करेगा?
प्रोफेसर साहब बोले- जब तुम एक्टिंग करते हो, तुम बहुत अच्छे लगते हो, नज़र हटाना मुश्किल होता है.
उनकी कही इस बात से प्रेरणा लेकर सतीश कौशिक नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा आ गए. यहां उन्होने ख़ुद को मांझना शुरू किया. घंटों लाइब्ररी में बिताये, यूरोपिययन और अमेरिकन प्लेज़,सार्त्र, इब्सन, चेखोव, शेक्सपियर और नाट्य शास्त्र पढ़ डाला. एनएसडी में सतीश कौशिक ने बहुत सारे नाटक मंचित किए और अपनी छाप छोड़ी. जिनमें कुछ हैं- मेन विदाउट शैडो, नौटंकी लैला मजनू, डेंटोन्स डेथ, भगवदज्जुकियम और मुख्यमंत्री.
एक भरोसा साथ लिए पहले फिल्म इंस्टिट्यूट, पुणे और फिर मायानगरी का रुख़ किया. मुंबई पहुंचकर पृथ्वी थिएटर से जुड़ गए और वहां नाटक करने लगे. कमाने के लिए एक टैक्सटाइल मिल में काम करते और बाक़ी सारा वक़्त बीतता पृथ्वी थिएटर में. वहीं से फिल्मों की राह मिली, जहां उन्होने डेढ़ सौ से ज़्यादा फिल्मों में अभिनय, प्रोडक्शन तथा डायरेक्शन किया.
कहना आसान होता है कि कोई राह मिल गई और उस पर चल पड़े. लेकिन कलाकार के लिए ज़रूरी है वो अपनी रूह पर किरदार का लिबास ओढ़ ले. किरदार दर किरदार रूह लिबास बदलती रहे. देह वही किरदार नज़र आए. सतीश कौशिक को ये बख़ूबी आता था.
अपने पिता के किरदार को एक नाटक के ज़रिये जीवंत किया. इस नाटक में उनकी भूमिका बहुत सराही गई. मशहूर थिएटर और फिल्म डायरेक्टर फ़िरोज़ अब्बास ख़ान द्वारा निर्देशित इस नाटक में सतीश कौशिक ने एक सेल्समैन रामलाल की भूमिका निभाई थी. नाटक का नाम था ‘एक सेल्समैन की मौत’.
एक और नाटक जिसमें उनकी भूमिका बेहद चर्चा में रही वह था सैफ़ हैदर हसन द्वारा निर्देशित नाटक मिस्टर एंड मिसेज़ मुरारीलाल. दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चंडीगढ़ में इसके मंचन हुए. इसके अलावा एनएसडी में ही उन्होने एक नाटक निर्देशित भी किया, फिल्म निर्देशक का किरदार यहां से पकड़ा उन्होने. डेढ़ सौ से ज़्यादा फिल्मों में काम किया. ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर सीरीज़ में भी दिखाई दिए मगर दुख है कि अब कैलेंडर ने मिस्टर इंडिया की घड़ी पहन ली है और वो अब किसी लाल चश्मे से नहीं दिखेगा.
ये उन तमाम बच्चों के मन का दुख है जो पापा के साथ साइकिल के आगे डंडे पर बैठकर मिस्टर इंडिया देखने गए थे. जहां से पैरोडी की एक लाइन याद करके लौटे- मेरा नाम है कैलेंडर, मैं तो चला किचन के अंदर, बॉल मांगो भैया हाथ ज़रा ज़ोड़ के.
ये बात अलग है कि अब कितना भी ज़ोर से गाकर वो बॉल नहीं मांगी जा सकती. यहां तक कि पप्पू पेजर से मुंबइया स्टाइल में धमकी दिलवाकर भी.
शुरुआत में जिस फिल्मी कैलेंडर शो की बात हमने की, मैं उसके ज़रिये दो तारीख़ें आपको दिखाना चाहती हूं वो हैं-
पहली- जिस साल द प्लेयर्स थिएटर सोसाइटी बनी यानी साल 1957 में, उससे एक बरस पहले सतीश कौशिक का जन्म हो चुका था.
दूसरी- साल 1978 में पृथ्वी थिएटर, मुंबई के जुहू में खुला (उससे पहले तो वो एक ट्रैवलिंग थिएटर कंपनी थी) उसके अगले ही साल 1979 में सतीश कौशिक मुंबई आए. द प्लेयर्स और पृथ्वी थिएटर रहेंगे, सतीश कौशिक भी रहेंगे.
ये भी है कि कैसी निकाली तारीख़ कैलेंडर भाई… कि हमारा अपना कैलेंडर ही नहीं रहा.
(माधुरी आकाशवाणी जयपुर में न्यूज़ रीडर हैं.)