स्मृति शेष: कलाकार के लिए ज़रूरी है वो अपनी रूह पर किरदार का लिबास ओढ़ ले. किरदार दर किरदार रूह लिबास बदलती रहे, देह वही किरदार नज़र आए. सतीश कौशिक को ये बख़ूबी आता था.
जसदेव सिंह को हमने जाना एक स्वर के रूप में जिसने लगभग आधी सदी तक आज़ादी और गणतंत्र दिवस का आंखों देखा हाल सुनाया, कभी लाल किले तो कभी इंडिया गेट के नज़ारे दिखाए. हमने उस आवाज़ के साथ क्रिकेट बाॅल के पीछे दौड़ लगाई, लपक लिया, पिच के उछाल को महसूस किया, ओलंपिक की मशाल की लौ की आंच से गर्मा गए.
सत्यजीत रे ने देश की वास्तविक तस्वीर और कड़वे सच को बिना किसी लाग-लपेट के ज्यों का त्यों अपनी फिल्मों में दर्शाया. 1943 में बंगाल में पड़े अकाल को उन्होंने ‘पाथेर पांचाली’ दिखाया तो वहीं ‘अशनि संकेत’ में अकाल की राजनीति और ‘घरे बाइरे’ में हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद पर चोट की.
श्रीदेवी एहसासों में हैं, खिलखिलाहट में हैं, चुलबुलेपन में हैं. वो ख़ुद ही एक नृत्य हैं, एक पेंटिंग हैं. वो हम में ही कहीं भरी हुई हैं.
हृषिकेश सिनेमा के रास्ते पर आम परिवारों की कहानी की उंगली थामे निकले थे. ये समझाने कि हंसी या आंसुओं को अमीर-गरीब के खांचे में नहीं बांटा जा सकता.
जन्मदिन विशेष: गुरुदत्त फिल्म इंडस्ट्री का एक ऐसा सूरज थे, जो बहुत कम वक़्त के लिए अपनी रौशनी लुटाकर बुझ गया पर सिल्वर स्क्रीन को कुछ यूं छू कर गया कि सब सुनहरा हो गया.
विनोद खन्ना के हिस्से में ज़्यादातर इल्ज़ाम ही आए पर जो ज़िंदगी उन्होंने गुज़ारी, फिल्मी दुनिया की चकाचौंध के बीच उसे चुन पाना बेहद मुश्किल होता है.