अवध की बेगमों के बीच मानवीय चरित्र का हर रूप व रंग नज़र आता है. जिस अनूठी तहजीब के कंधों पर अवध के नवाबों की पालकियां ढोई जाती थीं, उसमें उनकी बेगमें कहीं ज़्यादा आन-बान व शान से मौजूद हैं.
अयोध्या में इन दिनों अजब ‘समां’ है! भगवान राम का मंदिर बनाया जा रहा है और नागरिकों के घर, दुकान व प्रतिष्ठान ढहाए जा रहे हैं-कुछ इस अंदाज में जैसे राममंदिर की भव्यता की कीमत चुकाने के लिए यह ध्वंस बहुत जरूरी हो! हां, 30 पुराने मंदिरों और 14 मस्जिदों की पहचान भी खतरे में पड़ी हुई है और वे भी ध्वस्तीकरण की अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं.
जब मैं यह पंक्तियां लिख रहा हूं, मुझे नहीं मालूम कि आप अगली बार अयोध्या आएंगे तो इस ध्वंस को किस निगाह से देखेंगे? उस निगाह से, जिससे देखने पर किसी विशाल अट्टालिका के सामने बनी झोपड़ियां अश्लील लगने लगती हैं या उस निगाह से, जिससे देखने पर लगता है कि अश्लील तो वास्तव में झोपड़ियों के सामने गर्वोन्मत्त खड़ी अट्टालिका ही होती है!
यह भी हो सकता है कि आप इनमें से किसी भी निगाह को तकलीफ देना मंजूर न करें, ‘मूंदुहु आंखि कतइुं कछु नाहीं’ की राह पकड़ लें और यह तक देखना गवारा न करें कि कैसे राममंदिर की ओर जाने वाली सड़कें चैड़ी करने के लिए लोगों को राजी-खुशी अपने-अपने घर व दुकानें वगैरह खुद अपने हाथों ढहा देने को ‘मना’ लिया गया है-माकूल मुआवजे व पुनर्वास के बगैर!
यकीनन, हिंदी के महत्वपूर्ण कवि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने ऐसे ही किसी मौके पर पूछा होगा- यदि तुम्हारे घर के/एक कमरे में आग लगी हो/तो क्या तुम/दूसरे कमरे में सो सकते हो?/यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में/लाशें सड़ रही हों/तो क्या तुम/दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो? अपनी इसी कविता में आगे उन्होंने यह तक कह डाला था कि अगर आपका जवाब ‘हां’ है तो उन्हें आपसे कुछ नहीं कहना.
लेकिन मैं आपसे ऐसा कुछ भी पूछने या कहने नहीं जा रहा, क्योंकि जिन सवालों का जवाब पहले से पता हो या उसके मिलने की कतई उम्मीद न हो, वे पूछे नहीं जाते.
फिर आज की तारीख में किसे नहीं मालूम कि हमारे सत्ताधीशों को जो ‘नई अयोध्या’ अभीष्ट है, उसका अस्तित्व में आना इस अयोध्या के, जिसका ज्यादातर वैभव अवध के नवाबों के वक्त का है, ध्वंस के बगैर संभव ही नहीं है और वहीं मंदिर निर्माण की सारी बाधाएं दूर कर लेने के बाद वे अपने इस अभीष्ट की राह में आने वाली कोई भी बाधा बर्दाश्त नहीं करने वाले.
अन्यथा उनसे बेहतर कौन जानता है कि इस अयोध्या का इतिहास, जिसे वे उसके वर्तमान के साथ ही समेट देना चाहते हैं, अवध के नवाबों के बगैर पूरा नहीं होता. यहां तक कि उनकी बेगमों के बगैर भी नहीं. हां, बेगमों ये याद आया. जिस अनूठी तहजीब के कंधों पर इन नवाबों की पालकियां ढोई जाती थीं, उसमें उनकी बेगमें कहीं ज्यादा आन-बान व शान से मौजूद हैं. इस कदर कि उनसे जुड़े अनेक रोचक व रोमांचक और अच्छे व बुरे प्रसंग आज भी लोगोें की जुबान पर रहते हैं.
इन बेगमों की बेरहम तुनकमिजाजी के लिए अयोध्या में आज भी कोई उनको वानरों व चोरों कें साथ अवध के तीन दुष्टों में गिनता है तो कोई तत्कालीन पुरुषप्रधान सामंती समाज की बहुपत्नी/उपपत्नी प्रथा के हाथों पीड़ित ठहराकर उन पर तरस खाता है. बकौल अकबर इलाहाबादी- अकबर दबे नहीं किसी सुल्तां की फौज से, लेकिन शहीद हो गए बेगम की नौज से!
इस सिलसिले में काबिलेगौर यह कि ये बेगमें किसी खास उम्र, ओहदे, हैसियत, कुल, खानदान, धर्म या वर्ग वगैरह से नहीं आती थीं. उनके बेगम बनने की सबसे बड़ी योग्यता बस इतनी थी कि वे किसी तरह नवाब की निगाहों में चढ़ जाएं. कई नवाबों ने तो दिल आने पर अपनी बेगमों की कनीजों, मुलाजिमों की ब्याहताओं और कई बच्चों की मांओं को भी अपनी बेगम बनाने से गुरेज नहीं किया. इसीलिए बेगमों के बीच मानवीय चरित्र का प्रायः हर रूप व रंग नजर आता है.
अवध की गंगाजमुनी तहजीब पर उनकी शोखी का ही असर है कि उनके रहने की जगहें हुस्नबाग बन गईं तो कब्रिस्तान ऐशबाग यानी आमोद-प्रमोद की जगहों की संज्ञा पाने लगे और श्मशान घाटों को गुलेलाला कहा जाने लगा यानी वह स्थान जहां शोलों के फूल खिलते हैं.
इनकी चर्चा चले तो सबसे पहले बेगम हजरत महल का नाम याद आता है, जो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में देश की आन पर अंग्रेजों के लिए ‘आफत की परकाला’ बन गईं और ‘अवध के ओज तेज की लाली’ कहलाईं. कई लोग दावा करते हैं कि उन्होंने फैजाबाद के ही एक गरीब परिवार में जन्म पाया था और उनका माता-पिता का दिया नाम मोहम्मदी था. लेकिन ऐसा कहने वाले भी हैं कि उनके पिता मियां अंबर फर्रुखाबाद के थे जो नवाब अमजद अली शाह के वक्त लखनऊ आए. उनके साथ उनकी बीवी मेहर अफ्जा और बेटी मोहम्मदी भी थी. बाद में परिस्थितियों के उलट-पलट के बीच यही मोहम्मदी तत्कालीन युवराज वाजिद अली शाह की आंखों में चढ़कर उनके परीखाने में शामिल हुई. अनंतर, वह उनके हरम में गई तो अपने ससुर नवाब अमजद अली से बेगम इफ्तिखारउन्निसां का नाम और हजरत महल का खिताब पाया.
बेगम हजरत महल से पहले एक वक्त उन नवाब बेगम की बहादुरी व बुद्धिमत्ता के भी खूब चर्चे थे, जिन्होंने 1764 में अपने इकलौते बेटे नवाब शुजाउद्दौला को बक्सर के ऐतिहासिक युद्ध के लिए विदा करते हुए उनके बाजू पर इमामजामिन बांधा तो माथा चूमकर कहा था, ‘लड़ाई में फिरंगियों को चुन-चुनकर मारना लेकिन खुदा के वास्ते मेरी पालकी उठाने के लिए उनमें से 12 को जरूर बचा लेना.’ यह और बात है कि उनकी उम्मीदों के विपरीत उस लड़ाई में शुजाउद्दौला को बेहद शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा.
नवाब बेगम का बचपन का नाम सदरुन्निसां था और वे अवध के पहले नवाब सआदत खां बुरहान-उल-मुल्क की बेटी थीं. बेगम बनने से पहले उनकी मां खादिजा खानम की हैसियत सिर्फ एक बांदी की थी, लेकिन पिता ने उनका निकाह, बांदी की बेटी होना छिपाकर, सफदरजंग से किया और बाद में दामाद को ही अपनी गद्दी सौंप दी. नवाब के तौर पर सफदरजंग ने 1739 से 1754 तक अवध की सत्ता संभाली और इस दौरान सदरुन्निसां, सदर-ए-जहां नाम से उनकी इकलौती बेगम बनी रहीं. बाद में उनके बेटे का राज आया तो उन्हें जनाब-ए-आलिया यानी राजमाता का खिताब मिला.
नवाब बेगम ने कई अवसरों पर अपना बेहद अक्लमंद व होशियार होना प्रमाणित किया था. 1754 में शाह-ए-दिल्ली अहमदशाह के बुलावे पर वे नवाब सफदरजंग के साथ वहां गईं और लौट रही थीं तो सुल्तानपुर के पास घायल नवाब का अचानक निधन हो गया. लेकिन उन्होंने इस बात का तब तक किसी को पता नहीं चलने दिया, जब तक फैजाबाद पहुंचकर सफदरजंग के निधन से पैदा हुई बगावत की आशंका पर काबू नहीं पा लिया.
इतिहासकारों के अनुसार, वे दरियादिल और गरीबपरवर भी थीं और अपनी रियाया के हर दुख-दर्द में भागीदार हुआ करती थीं. कई बार अपनी सेविकाओं की बेईमानियों को भी यह कहकर माफ कर देती थीं कि लाचारी किसी के पास भी उसका ईमान नहीं रहने देती. इसका एक किस्सा यों है कि उनकी एक सेविका सीलन से बचाने के बहाने चांदी के सिक्के सुखाने का काम करती तो उनमें से कुछ चुरा लेती और पूछने पर कह देती कि सूख जाने के बाद सिक्के कम हो गए हैं. वे उसकी चोरी समझ जातीं, फिर भी उसे कुछ नहीं कहतीं.
उन्होंने फर्रुखाबाद की ऐतिहासिक जंग के लिए नवाब सफदरजंग को आड़े वक्त अपने पास से 11 लाख चार हजार अशर्फियां दी थीं. लेकिन एक समय दोनों में अनबन हुई तो नवाब दिल्ली में और बेगम बेटे शुजाउद्दौला के साथ फैजाबाद में रहने लगी थीं. फैजाबाद में ही 4 जून, 1766 को नमाज पढ़ते वक्त उनका देहांत हो गया और उन्हें गुलाबबाड़ी में दफ्न कर दिया गया.
अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला की बेगम उम्मत-उल-जोहरा ने, जो बाद में बहू बेगम के नाम से प्रसिद्ध हुईं, नवाबों की बेगमों की कतार में सबसे ऊंचा दर्जा पाया. उनका जन्म 1733 में हुआ और 1745 में शुजाउद्दौला को ब्याही गईं तो महज 12 वर्ष की थीं. शहंशाह-ए-दिल्ली ने अपनी इस मुंहबोली बेटी के निकाह के लिए दिल्ली के दारा शिकोह महल में जो आयोजन किया, उस पर उन दिनों 46 लाख रुपये खर्च हुए थे.
रसिकमिजाज शुजाउद्दौला के बारे में कहा जाता है कि वे अपनी इस बेगम से बहुत डरते थे और तय शर्त के अनुसार जो रात उसके महल के बाहर गुजारते, उसके लिए उसे पांच हजार रुपये का हर्जाना देते थे. लेकिन यह हर्जाना भी उनकी विलासिता को रोकने में कारगर नहीं हो पाया था और एक समय बेगम की हर्जाने की आमदनी उनकी जागीरों की आमदनी से ज्यादा हो गई थी. इस आमदनी से ही उन्होंने अपने महल के सहन में चांदी का चबूतरा बनवाया था. 1748 में उन्होंने इसी महल में अपने बेटे आसफुद्दौला को जन्म भी दिया था.
बक्सर की लड़ाई में नवाब शुजाउद्दौला हारे और उनको एक लंगड़ी हथिनी पर बैठकर छुपकर भागना पड़ा तो अंग्रेजों ने उन पर 50 लाख रुपये का तावान-ए-जंग लगा दिया. इस तावान की अदायगी में नवाब का खजाना खाली हो गया तो 20 लाख रुपये उनकी बेगम उममत-उल-जोहरा ने अपने जेवर वगैरह बेचकर दिए. इसके लिए उन्हें अपने सुहाग की नथ तक बेच देनी पड़ी. फिर भी रुपये पूरे नहीं हुए और इलाहाबाद व चुनारगढ़ के इलाके अंग्रेजों के पास गिरवी रखने पड़े. बेईमान अंग्रेजों ने बाद में बकाया रकम अदा किए जाने पर भी ये इलाके खाली नहीं किए.
उनके पुत्र आसफुद्दौला नवाब बने तो राजधानी फैजाबाद से लखनऊ उठा ले गए. इसका एक कारण बहू बेगम यानी अपनी मां से उनकी पटरी न बैठना भी था. तिस पर वजीरों की रोज-रोज की चख-चख से भी वे आजिज आ गए थे. राजधानी चली गई तो भी बहू बेगम फैजाबाद में अपनी सास नवाब बेगम के साथ रहकर अलहदा हुकूमत करती रहीं. कभी-कभार लखनऊ जातीं तो अपने खासमहल सुनहरा बुर्ज में रहतीं जो रूमी दरवाजे के निकट (किलाकोठी, राजघाट, गोमती के किनारे) स्थित था.
वारेन हेस्टिंग्स भारत आया तो नवाब बेगम की शुजाउद्दौला से कही बात कि बारह फिरंगियों को मेरी पालकी उठाने के लिए बचा लेना, उसके कलेजे में सालती रहती थी. बहू बेगम ने बनारस के राजा चेत सिंह, जो अंग्रेजों के विरुद्ध झंडा उठाए हुए थे, को अपना भाई बना लिया तो हेस्टिंग्स और जल-भुन उठा. उसने बहू बेगम व आसफुद्दौला की अनबन का लाभ उठाकर उन्हें लुटवा लिया. इतिहास ने इस लूट को बेगमों की लूट के रूप में दर्ज किया, जिसके लिए ब्रिटिश संसद ने हेस्टिंग्स पर महाभियोग भी चलाया.
इस लूट में आसफउद्दौला की भूमिका भी हेस्टिंग्स से कुछ कम नहीं थी. इसलिए अवध में इसे बेटे द्वारा अपनी मां की लूट के रूप में भी याद किया जाता है. इसे लेकर आसफउद्दौला पर लगाई जाने वाली कालिख इस तथ्य से और गहरी हो जाती है कि उसकी तंगहाली के दिनों में इस मां ने उसकी फौज की दो बरस की तनख्वाह अपने पास से दी थी. यह रकम भी उसने अपने बचपन में अपनी गुड़िया की शादी के दहेज से इकट्ठा की थी. इस अभागी मां को 21 सितंबर, 1797 को अपने इस बेटे की मौत भी देखनी पड़ी. इस दिन आसफुद्दौला का देहांत हुआ तो बहू बेगम लखनऊ के सुनहरे बुर्ज में ही थीं.
बहू बेगम का देहांत गाजीउद्दीन हैदर की नवाबी के दौरान 1816 में हुआ और उन्हें फैजाबाद में जवाहरबाग स्थित उनके मकबरे में दफन किया गया. यह खस्ताहाल मकबरा अभी भी विद्यमान है.
नवाब शुजाउद्दौला की एक और बेगम थीं छत्तर कुंअरि. वे बहराइच के पास स्थित बौड़ी रियासत के एक रैकवार ठाकुर की बेटी थीं. बहू बेगम से सौतियाडाह के चलते विधवा होने के बाद वे बनारस चली गईं और वहीं दुर्गाकुंड में रहने लगीं. लेकिन बाद में उनके पुत्र सआदतअली खां अवध के नवाब बने तो वे फिर लखनऊ आईं और जनाब-ए-आलिया का पद ग्रहण किया. नवाब ने लखनऊ में उनके नाम से छत्तरमंजिल बनवाई तो खुद छत्तर कुंअरि ने अलीगंज का प्रसिद्ध हनुमान मंदिर और गोलागंज की मस्जिद.
बहू बेगम के बाद जिन बेगम का नाम इतिहासकार प्रमुखता से लेते हैं, उनका नाम शम्सुन्निसा बेगम उर्फ दुल्हन बेगम है. शम्सुन्निसा 1769 में फैजाबाद में आसफुद्दौला से शादी रचाकर दुल्हन बेगम बनीं. उनकी शादी में दिल्ली से शाह-ए-आलम व बेगम शोलापुरी भी आई थीं और खूब जश्न मना था. आसफुद्दौला की नवाबी (1775-1797) के दौरान दुल्हन बेगम की तूती बोलती थी. लेकिन वे देशकाल से कितनी परे थीं, इसे इस वाकये से समझा जा सकता है कि 1774 में अकाल पड़ा और रियाया मदद की गुहार लगाती हुई उनकी ड्यौढ़ी पर आई तो उन का भोला सा प्रश्न था- क्या तुम लोगों को पेट भरने के लिए हलवा पूड़ी भी नसीब नहीं होता?
एक बार होली के दिन आसफुद्दौला शीशमहल में दौलतसराय सुल्तानी पर रंग खेल रहे थे, तो रियाया ने बेगम पर भी रंग डालने की ख्वाहिश जाहिर की. इस पर बेगम ने ख्वाहिश का मान रखते हुए एक कनीज के हाथों अपने उजले कपड़े बाहर भेज दिए और रंग वालों से उन कपड़ों पर जी भर रंग छिड़का, रंग सने कपडे़ महल में ले जाए गए तो बेगम उन्हें पहनकर खूब उल्लसित हुई और दिनभर उन्हें ही पहने घूमती रहीं. वे दुल्हन फैजाबादी नाम से शायरी भी करती थीं.
बेगमों की इसके बाद की पीढ़ियों के किस्से लखनऊ के हिस्से आते हैं क्योंकि फैजाबाद से उनका कोई खास वास्ता नहीं रह गया. सिवाय इसके कि उनके इतिहास में समा जाने के बावजूद लोग उन्हें वानरों और चोरों के साथ अवध के तीन ‘दुष्टों’ में ही गिनते रहे.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)