विशेष: भगत सिंह चाहते थे कि स्वतंत्र भारत प्रगतिशील विचारों पर आधारित ऐसा देश बने, जिसमें सबके लिए समता व सामाजिक न्याय सुलभ हो. ऐसा तभी संभव है, जब उसके निवासी ऐसी वर्गचेतना से संपन्न हो जाएं, जो उन्हें आपस में ही लड़ने से रोके. तभी वे समझ सकेंगे कि उनके असली दुश्मन वे पूंजीपति हैं, जो उनके ख़िलाफ़ तमाम हथकंडे अपनाते रहते हैं.
आज की तारीख में यह एक खुला हुआ तथ्य है कि शहीद-ए-आजम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु द्वारा अविभाजित भारत की लाहौर सेंट्रल जेल में आज के ही दिन दी गई शहादतें ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकने भर के लिए नहीं बल्कि मुकम्मल आजादी के लिए थीं.
उन्हें विश्वास था कि गुलामी का जुआ तो देशवासी एक दिन अपनी गर्दन से झटक ही देंगे, लेकिन उनको उससे कोई सुकून हासिल नहीं होगा, अगर सत्ता में इतना ही परिवर्तन हो कि वह गोरे शासकों के हाथों से फिसलकर देसी भूरे शासकों के हाथ में आ जाए और गरीबों, मजदूरों व किसानों का शोषण पूर्ववत जारी रहे.
ये वर्ग आजादी के बाद भी शोषण की मायावी चक्की में पिसते ही न रह जाएं, इसके लिए वे चाहते थे कि स्वतंत्र भारत प्रगतिशील व आधुनिक विचारों पर आधारित ऐसा देश बने, जिसमें सबके लिए समता व सामाजिक न्याय सुलभ हो और मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण कतई संभव न रह जाए.
शहीद-ए-आजम का साफ कहना था कि ऐसा भारत तभी संभव है, जब उसके निवासी ऐसी वर्गचेतना से संपन्न हो जाएं, जो उन्हें आपस में ही लड़ने और छीना-झपटी करने से रोके. तभी वे समझ सकेंगे कि उनके असली दुश्मन वे पूंजीपति हैं, जो उनके खिलाफ नाना हथकंडे अपनाते रहते हैं और भलाई उनके हथकंडों से बचकर रहने में ही है.
उन्हीं के शब्दों में कहें, तो
‘जिस दिन देशवासी समझ गए कि संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं और उनकी भलाई इसी में है कि वे धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाएं और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का यत्न करें, उस दिन कहीं कोई समस्या रह ही नहीं जाएगी.’
उनके निकट यह भी साफ था कि असमानता व भेदभाव पर आधारित शोषणों का निठल्ले चिंतन या थोथे उपदेशों से खात्मा नहीं होने वाला. इसकी शुरुआत खुद से करनी होगी. ऐसी ही एक शुरुआत के तहत उन्होंने लाहौर सेंट्रल जेल के बोधा नामक सफाईकर्मी (जिसे वे ‘बेबे’ कहकर पुकारते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि जैसे बचपन में उनकी मां उनके शरीर की गंदगी साफ करती थीं, वैसे बोधा जेल की गंदगी साफ करते हैं.) के हाथ से रोटी खाई थी और अपनी फांसी के लिए तय 24 मार्च, 1931 की सुबह के समय से चौबीस घंटे पहले यह इच्छा जताई थी कि अंतिम दिन बोधा उनके लिए अपने घर से खाना लाएं.
लेकिन हम जानते हैं कि क्रूर अंग्रेजों ने सारे नियम-कायदों को धता बताकर उनको 23 मार्च को ही शहीद कर डाला और उनकी यह इच्छा पूरी नहीं होने दी थी. फिर भी इस तथ्य को छिपा नहीं ही पाए कि जाति व्यवस्था के जाए ऊंच-नीच और अस्पृश्यता के समूल नाश को लेकर शहीद-ए-आजम का नजरिया कितना दो टूक था. गौरतलब यह कि यह दोटूकपन उनके होश संभालने के वक्त से ही यह उनके ‘विद्रोही’ व्यक्तित्व का हिस्सा था.
जब अछूतों की समस्याओं पर विचार करते हुए कई स्वनामधन्य शुभचिंतकों की जुबानें भी लड़खड़ाकर रह जा रही थीं और बला टालने की तर्ज पर वे उन्हें मिशनरी संस्थाओं के हवाले कर देने में ही समाधान देख रहे थे, भगत सिंह जून, 1928 की ‘किरती’ में ‘विद्रोही’ नाम से लिखे लेख में अस्पृश्यता को सामाजिक शर्म के रूप में संबोधित रहे थे:
‘हमारे देश जैसे बुरे हालात किसी दूसरे देश के नहीं हुए….. 30 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में जो 6 करोड़ लोग अछूत कहलाते हैं, उनके स्पर्शमात्र से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा! उनके मंदिरों में प्रवेश से देवगण नाराज हो उठेंगे! कुएं से उनके द्वारा पानी निकालने से कुआं अपवित्र हो जाएगा!’
उन्होंने लिखा था:
‘हमारा देश बहुत अध्यात्मवादी है, लेकिन हम मनुष्य को मनुष्य का दर्जा देते हुए भी झिझकते हैं, जबकि पूर्णतया भौतिकवादी कहलाने वाला यूरोप कई सदियों से इंकलाब की आवाज उठा रहा है….रूस ने भी हर प्रकार का भेदभाव मिटाकर क्रांति के लिए कमर कसी हुई है. (लेकिन) हम इस बहस में उलझे हुए हैं कि क्या अछूत को जनेऊ दे दिया जाएगा? वे वेद-शास्त्र पढ़ने के अधिकारी हैं अथवा नहीं?
हम उलाहना देते हैं कि….अंग्रेजी शासन हमें अंग्रेजों के समान नहीं समझता. लेकिन क्या हमें यह शिकायत करने का अधिकार है?’
बंबई काउंसिल के सदस्य नूर मुहम्मद के हवाले से उन्होंने पूछा था कि जब तुम एक इंसान को पीने के लिए पानी देने से भी इनकार करते हो, जब तुम उन्हें स्कूल में भी पढ़ने नहीं देते तो तुम्हें क्या अधिकार है कि अपने लिए अधिक अधिकारों की मांग करो? जब तुम एक इंसान को समान अधिकार देने से भी इनकार करते हो तो तुम अधिक राजनीतिक अधिकार मांगने के अधिकारी कैसे बन गए?
आज कई सांप्रदायिक तत्व जिस धर्मांतरण को बहुत बड़ी समस्या के तौर पर प्रचारित कर रहे हैं, उसकी बाबत भगत सिंह का दृष्टिकोण था:
‘जब तुम उन्हें इस तरह पशुओं से भी गया-बीता समझोगे, तो वह जरूर ही दूसरे धर्मों में शामिल हो जाएंगे, जिनमें उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे, जहां उनसे इंसानों-जैसा व्यवहार किया जाएगा. फिर यह कहना कि देखो जी, ईसाई और मुसलमान हिंदू कौम को नुकसान पहुंचा रहे हैं, व्यर्थ होगा.’
पटना में लाला लाजपतराय की अध्यक्षता में हुए हिंदू महासभा के सम्मेलन का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा था:
‘जोरदार बहस छिड़ी. अच्छी नोंक-झोंक हुई. समस्या यह थी कि अछूतों को यज्ञोपवीत धारण करने का हक है अथवा नहीं? तथा क्या उन्हें वेद-शास्त्रों का अध्ययन करने का अधिकार है? बड़े-बड़े समाज-सुधारक तमतमा गए, लेकिन लालाजी ने सबको सहमत कर दिया… वरना जरा सोचो, कितनी शर्म की बात होती. कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है… लेकिन एक इंसान का हमसे स्पर्श हो जाए, तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है.’
अछूतों के प्रति ‘चौके में और, चौकी में और’ वाले बर्ताव पर उन्होंने इन शब्दों में हमला बोला था:
‘मालवीय जी (महामना कहे जाने वाले मदनमोहन मालवीय) जैसे बड़े समाज-सुधारक, अछूतों के बड़े प्रेमी और न जाने क्या-क्या पहले एक मेहतर के हाथों गले में हार डलवा लेते हैं, लेकिन कपड़ों सहित स्नान किए बिना स्वयं को अशुद्ध समझते हैं! …सबको प्यार करने वाले भगवान की पूजा करने के लिए मंदिर बना है लेकिन वहां अछूत जा घुसे तो वह मंदिर अपवित्र हो जाता है! भगवान रुष्ट हो जाता है!’
आगे उन्होंने सवाल किया था कि जब घर की जब यह स्थिति हो तो क्या बाहर हम बराबरी के नाम पर झगड़ते अच्छे लगते हैं और निष्कर्ष निकाला था कि हमारे इस रवैये में कृतघ्नता की भी हद पाई जाती है. जो निम्नतम काम करके हमारे लिए सुविधाओं को उपलब्ध कराते हैं, उन्हें ही हम दुरदुराते हैं. पशुओं की हम पूजा कर सकते हैं, लेकिन इंसान को पास नहीं बिठा सकते!
इसके बाद उन्होंने इस परिवर्तन को लक्ष्य किया था:
देश में मुक्तिकामना जिस तरह बढ़ रही है, उसमें…अधिक अधिकारों की मांग के लिए (अछूतों को अपनाकर) अपनी-अपनी कौमों की संख्या बढ़ाने की चिंता सबको हुई… इधर जब अछूतों ने देखा कि उनकी वजह से इनमें फसाद हो रहे हैं तथा उन्हें हर कोई अपनी-अपनी खुराक समझ रहा है तो वे अलग ही क्यों न संगठित हो जाएं?
फिर समस्या का निदान सुझाया था कि सबसे पहले यह निर्णय कर लेना चाहिए कि सब इंसान समान हैं तथा न तो जन्म से कोई भिन्न पैदा हुआ और न कार्य-विभाजन से. अर्थात क्योंकि एक आदमी गरीब मेहतर के घर पैदा हो गया है, इसलिए जीवन भर मैला ही साफ करेगा और दुनिया में किसी तरह के विकास का काम पाने का उसे कोई हक नहीं है, ये बातें फिजूल हैं. जिन्हें आज तक अछूत कहा जाता रहा, हमें उनसे… क्षमायाचना करनी चाहिए… उन्हें अपने जैसा इंसान समझना, बिना अमृत छकाए, बिना कलमा पढ़ाए या शुद्धि किए उन्हें अपने में शामिल करके उनके हाथ से पानी पीना, यही उचित ढंग है.
वे चाहते थे कि अछूतों के अपने जनप्रतिनिधि हों, जो अधिक अधिकार मांगें. ‘अछूत कहलाने वाले असली जनसेवकों तथा भाइयों’ को संबोधित करते हुए उन्होंने लिखा था:
‘उठो! अपना इतिहास देखो, तुम्हारी कुर्बानियां स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई हैं. …इंसान की धीरे-धीरे कुछ ऐसी आदतें हो गई हैं कि वह अपने लिए तो अधिक अधिकार चाहता है, लेकिन जो उसके मातहत हैं, उन्हें वह अपनी जूती के नीचे ही दबाए रखना चाहता है… अतः संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो… दूसरों की खुराक मत बनो.
दूसरों के मुंह की ओर न ताको… नौकरशाही के झांसे में मत फंसो, तुम असली सर्वहारा हो… संगठनबद्ध हो जाओ…. बस गुलामी की जंजीरें कट जाएंगी. सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीतिक व आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो…सोए हुए शेरो! उठो और बगावत खड़ी कर दो.’
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)