अगर आप आज़ाद सोच रखते हैं, तो उसके नतीजे भी भुगतने ही होंगे: महेश भट्ट

इराक़ी पत्रकार मुंतज़र अल ज़ैदी की आत्मकथा ‘द लास्ट सैल्यूट टू प्रेसिडेंट बुश’ पर आधारित, फिल्मकार महेश भट्ट का नाटक ‘द लास्ट सैल्यूट’ अब किताब की शक्ल में सामने आया है. इस पर बात करते हुए भट्ट ने कहा कि कुछ ही लोग होंगे जो हिम्मत करके सच लिखेंगे और कुछ ही लोग होंगे जो थिएटर के ज़रिये इसे पेश करेंगे.

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महेश भट्ट. (स्क्रीनग्रैब साभार: यूट्यूब/@IFTDA)

इराक़ी पत्रकार मुंतज़र अल ज़ैदी की आत्मकथा ‘द लास्ट सैल्यूट टू प्रेसिडेंट बुश’ पर आधारित, फिल्मकार महेश भट्ट का नाटक ‘द लास्ट सैल्यूट’ अब किताब की शक्ल में सामने आया है. इस पर बात करते हुए भट्ट ने कहा कि कुछ ही लोग होंगे जो हिम्मत करके सच लिखेंगे और कुछ ही लोग होंगे जो थिएटर के ज़रिये इसे पेश करेंगे.

महेश भट्ट. (स्क्रीनग्रैब साभार: यूट्यूब/@IFTDA)

नई दिल्लीः दिग्गज फिल्म निर्देशक महेश भट्ट का कहना है कि ख़बरों का जो पूरा इकोसिस्‍टम है उसमें ज़हर भर दिया गया है, समझ में नहीं आता कि किसके पास जाएं, और किससे जानें कि सच क्या है?

द वायर  को दिए एक साक्षात्कार में महेश भट्ट ने मौजूदा मीडिया-रिपोर्टिंग के हवाले से ये भी कहा, ‘पहले लगता था कि यहां नहीं तो वहां पर देख लेते हैं, लेकिन अब लगता है कि पूरी फ़िज़ा में ही किसी ने ज़हर घोल दिया है.’

उन्होंने ने कहा, ‘अविश्वास  का माहौल है, लेकिन हम एंटरटेनमेंट-वर्ल्ड के लोग हैं तो, हमें दावा नहीं है कि हम ही सच्चाई के कस्टोडियन हैं.’

उन्होंने आगे कहा, ‘अगर हमने कभी कुछ बोला है तो उसकी क़ीमत भी चुकाई है, लेकिन हमें इसकी शिकायत नहीं है, धूप में खड़े होंगें तो सन-स्ट्रोक तो होगा ही, हर बात की एक क़ीमत अदा करनी पड़ती है. और अगर आप आज़ाद सोच रखते हैं तो उसके नतीजे भी भुगतने ही होंगे. और आपको इसे ख़ुशदिली से क़ुबूल करना चाहिए.’

उन्होंने ये भी कहा कि नफ़रत कभी प्रतिशोध (Retaliation) का तरीक़ा नहीं हो सकता. अपनी बात को जारी रखते हुए उन्होंने जोड़ा, ‘जो जैसा है उसको वैसे ही गले लगाना चाहिए, ये होती है विविधता, और ये होता है आज़ाद मुल्क जहां पर हर कोई अपनी आज़ाद सोच रख सके.’

उन्होंने आगे कहा, ‘हमारे मुल्क में इतनी आबादी है सबको एक कहानी से नहीं बांध सकते और मुल्क का इतिहास लोगों की कहानियों से बनता, तो हमें अपनी विविधता को जिंदा रखने के लिए थोड़ी जुर्रत करनी पड़ेगी. और हां सच कहना आसान नहीं होता, उसकी क़ीमत चुकानी पड़ती है और जिसमें हिम्मत है वो चुकाए या चुप रह जाए.

बता दें कि अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश पर 14 दिसंबर 2008 को जूता फेंकने वाले इराक़ी पत्रकार मुंतज़र अल ज़ैदी की आत्मकथा ‘द लास्ट सैल्यूट टू प्रेसिडेंट बुश’ पर आधारित अपने नाटक ‘द लास्ट सैल्यूट’ के बारे में बात करते हुए महेश भट्ट ने ये विचार व्यक्त किए.

उल्लेखनीय है कि फ़िल्म एक्टर इमरान ज़ाहिद पहली बार इस नाटक का विचार लेकर भट्ट के पास गए थे, उसके बाद नुक्कड़ नाटक और रंगमंच पर अपने मुखर स्वभाव के लिए मशहूर लेखक राजेश कुमार ने इसे नाटक का रूप दिया और ‘द लास्ट सैल्यूट’ के नाम से दिग्गज निर्देशक अरविंद गौड़ के निर्देशन में पहली बार इसका मंचन 14 मई 2011 को हुआ, तब से अब तक इसके 70 से ज़्यादा शो हो चुके हैं, अभी कोरोना काल से ज़रा पहले 2020 में इसे आखिरी बार चंडीगढ़ में स्टेज किया गया था.

(फोटो साभार: फेसबुक/@/MaheshBhatt)

गौरतलब है कि इसी साल 2023 में वाणी प्रकाशन ने इस नाटक को किताबी सूरत में प्रकाशित किया है. इस किताब के प्रकाशन और नाटक के बारे में बात करते हुए फ़िल्म निर्देशक ने बताया, ‘वो अमेरिकी इतिहास में एक पागलपन की अवस्था थी, उस समय मुझे सीएनएन के एक पत्रकार ने कहा था कि हम सब इस ज़ुल्म के लिए ज़िम्मेदार हैं, क्योंकि हम सब चुप हैं. हम पर पाबंदी है, हम ख़बरें नहीं पंहुचा पा रहे, एक तरह की सेंसरशिप है.’

उन्होंने बताया, ‘मुंतज़र ने अपनी किताब के ज़रिये जो हमें बताया है और 2003 में जो मुझे महसूस हो रहा था उसमें एक नाता है. शायद हम एक ही मिट्टी के बने हैं. आप देख लीजिए जो बातें मैंने 20 साल पहले लिखी हैं आज वही बात दुनिया कह रही है, जो बाइडेन को किसी ने कन्फ्रंट किया, बुश को किसी ने कन्फ्रंट किया. उनके अपने ही लोग कह रहे हैं कि आपने हमें मासूम नागरिकों को मारने (इराक़) भेज दिया. वहां हमारे अपने लोग मरे.’

भट्ट ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि इतनी बड़ी तबाही हुई और आज तक किसी ने माफ़ी नहीं मांगी. ‘वहां जो हुआ, और अब भी जो ज़मीनी हालात हैं, उजाड़ दिया उन्होंने इराक़ को और सारी दुनिया चुप रही.’

उन्होंने जोड़ा, ‘हम कर क्या सकते थे? हम अपनी जगह से राय बनाने की कोशिश कर सकते थे, हालांकि नाटक का एक बहुत ही सीमित प्लेटफार्म होता है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन मैं मानता रहा हूं कि कहीं पर कुछ लोग हैं जो इसको महसूस करते हैं कि हां एक बात ढंग से कही जा रही है. और फिर उसकी महक फैलती है. इसलिए इसके इतने ज़्यादा शो हुए जिसकी मुझे उम्मीद भी नहीं थी.’

एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, ‘देखिए मुंतज़र को यहां लाना आसान नहीं था, हमारी सरकार इसकी हौसला-अफज़ाई नहीं कर रही थी. हालांकि इमरान ज़ाहिद और हम सब उस वक़्त भी यही मान रहे थे कि ये हमारा अधिकार है कि हम जो प्ले कर रहे हैं उसके लेखक को शामिल करें, उसने उस पीड़ा को जिया है. हमने होम मिनिस्ट्री से इल्तिजा की, लेकिन उनकी तरफ़ से कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला. फिर हमने प्रेस-कॉन्फ्रेंस के बारे में सोचा, उसी दौरान पड़ोसी मुल्क में ओसामा बिन लादेन को मारा गया तो, माहौल कुछ गर्माया हुआ था, शायद इसलिए भी उनमें एक हिचकिचाहट थी, बहरहाल हम पीछे नहीं हटे और हमें इजाज़त मिली.’

उन्होंने आगे बताया, ‘जब मुंतज़र आया तो लगा कि कोई हमारा अपना आया है, बहुत ही प्यारा इमोशनल इंसान, जज्बातों से भरा हुआ शख़्स. उसने आते ही कहा कि मुझे राजघाट जाना है. गांधी, गांधी, गांधी…उसकी ज़बान पर था. हम राजघाट गए तो वहां उसने अपनी अंगूठी पता नहीं क्यों निकाल कर रख दी…वो कहने लगा मेरा कुछ यहां रह जाना चाहिए. ये हमारी धारा का एक बड़ा शख़्स है. उसको सलाम करने का उसको माथा टेकने का तरीक़ा यही है कि मैं अपना कुछ यहां पर छोड़ जाऊं.’

राजघाट पर मुंतज़र के साथ महेश भट्ट. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

एक अन्य सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, ‘ये जिस तरह का प्ले है वो हमारे ही मुल्क में हो सकता है, हमारे पुरखों और बुजुर्गों ने आज़ादी के बाद हमें जो माहौल दिया उसमें हम बिना किसी से डरे इस तरह का प्ले को कर सकते हैं, ये पड़ोस के मुल्क में नहीं हो सकता, ये मिडिल-ईस्ट के किसी मुल्क में नहीं हो सकता, बल्कि मुझे तो लगता है कि अमेरिका में भी नहीं हो सकता. यही आज़ादी हमारी पूंजी है, जो हमें हमारे बुज़ुर्गों से मिली है.’

उन्होंने कहा, ‘मैं मानता हूं कि उसका जूता फेंकना एक ह्यूमन एक्शन था, वो कोई पॉलिटिकल स्टेटमेंट नहीं था. वो एक पत्रकार था जिसने अपने आसपास लोगों को तड़पते देखा, बच्चों को बिलखते देखा, औरतों को मरते देखा, दम तोड़ते देखा, उन्हें अपनी पीठ पर उठाकर भागते हुए वो हॉस्पिटल ले जाता था. उस हॉस्पिटल पर भी हमले हो रहे थे, तो मरता क्या न करता… पूरी दुनिया ख़ामोश थी. और एक ऐसे इंसान को जिसने वहां पर हैवानियत का नंगा नाच किया, और कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं, ऐसे में एक आम इंसान होने के नाते उसने अपने जज़्बात का इज़हार किया और वो जूता फेंका.’

उन्होंने जोड़ा, ‘लोग पूछते हैं कि क्या आप उनके जूता फेंकने को जस्टिफाई करते हैं तो मैं कहता हूं क्या आप बुश के अटैक को जस्टिफाई करते हैं जिसमें लोगों की जानें गईं, आज उनके अपने लोग उनसे सवाल पूछ रहे हैं.’

इस दौरान उन्होंने भारत के सियासी माहौल के बारे में भी बात की और कहा, ‘हमारे मुल्क में जो माहौल है, मेरा मानना है कि हां एक माहौल है, कहीं पर एक पॉलिटिक्स ऑफ साइलेंस हैं, इसको हम नकार नहीं सकते, इसके बावजूद लोग जी रहे हैं, बोल रहे हैं, गिनती के लोग ही सही मगर बोल रहे हैं, और मुझे नहीं लगता है कि हमारे मुल्क में बात कभी इतनी बिगड़ जाएगी कि हम अपनी जड़ों से उखड़ जाएंगे, और बिल्कुल कटकर कुछ और ही बन जाएंगे.’

उन्होंने ये भी कहा, ‘कभी-कभी लगता है कि एक माहौल बनता है, और महसूस होता है कि अंधेरा बहुत गहरा हो गया है, मगर जब रात बहुत गहरी हो तो सूरज की किरण कहीं आसपास ही होती है.’

अपनी बात को जारी रखते हुए भट्ट ने कहा, ‘हमारे यहां कहते हैं कि सुबह होने से पहले अंधेरा बहुत घना हो जाता है… मौजूदा माहौल में भी लोग हिम्मत करके अपने दिल की बात कह रहे हैं. और हमारे मुल्क में आज भी हमें वो आज़ादी है कि अगर हम अपने कन्विक्शन पे बात कहना चाहें और बिना किस नीचता के बिना किसी बेहूदगी के तो मुझे नहीं लगता कि कोई आपको रोकेगा. मैं देख रहा हूं कि लोग अपने दिल की बात कर रहे हैं और निडर होकर जीते हैं, ये हमारी जड़ें हैं, यही हिंदुस्तान की रूह है. कोई कितना भी बड़ा हो जाए वो हमसे हमारी जड़ें नहीं छीन सकता.’

इस दौरान उन्होंने फ़िल्म इंडस्ट्री की भी बात की और बताया, ‘अगर आज भी फ़िल्ममेकर में कन्विक्शन है, वो सिनेमा को सिर्फ़ दुकानदारी नहीं समझता, प्रॉफिट-मेकिंग की मशीन नहीं समझता तो ये सिनेमा में भी मुमकिन है. जो अलग सोचता है वो भी आपका अपना ही है. हमें हर बात में एक दूसरे के अंदर समानता (commonality) नहीं तलाश करनी चाहिए, अगर हमें वाक़ई में अमन चाहिए तो हमें एक दूसरे के अंतरों को भी गले लगाना होगा.’

उन्होंने कहा, ‘हां, हमारे भेद हैं, इसका ये मतलब नहीं कि हम एक दूसरे को जानवरों की तरह मारना-काटना शुरू कर दें, मेरे ख़याल में इस सोच को और ऊर्जा देने की ज़रुरत है कि अंतर तो रहेंगे, घर में भी होते हैं, तो क्या हम घर तोड़ देते हैं?’

भट्ट ने विविधता को अपनाने की बात पर ख़ास ज़ोर दिया, ‘हम दावा करते हैं कि हम डाइवर्सिटी सेलिब्रेट करते हैं, मगर इसको सेलिब्रेट करने के लिए बहुत बड़ा सीना चाहिए, कहीं पर हमारे दिल तंग हो गए हैं, मगर ये एक मोड़ है, और बात वही है कि अंधेरा कितना भी गहरा हो जाए, आज नहीं तो कल सवेरा होगा. किसने सोचा था कि बुश को उसी के मुल्क में कोई ललकारेगा, दुनिया के मीडिया पर उनका कंट्रोल था, उन्होंने तो ये जता ही दिया था कि हमने मसला हल कर दिया. लेकिन वही बात कहूंगा कि झूठ कितनी ही ताक़त के साथ बोला जाए, वो दम तोड़ ही देता है.’

इस दौरान उन्होंने थिएटर की भमिका पर कहा, ‘आप जिसे कड़वा सच कहते हैं, जो आपको झिंझोड़ दे, जो मौजूदा पॉवर-स्ट्रक्चर को आड़े हाथों ले वो मेनस्ट्रीम सिनेमा के बस में नहीं है ये थिएटर ही कर सकता है. कुछ ही लोग होंगे जो हिम्मत करके सच लिखेंगे और कुछ ही लोग होंगे जो थिएटर के ज़रिये इसको पेश करेंगे.

ऐसे ही एक सवाल के जवाब में भट्ट ने कहा, ‘ओपिनियन-मेकिंग आज भी सबसे बड़ा हथियार है, आज भी सबसे बड़ी चिंता यही है कि अपना जो डिस्कोर्स है, जो सोच है, उसको किस तरह अपने मीडिया के ज़रिये फैलाएं और लोगों की सोच पर अपना असर छोड़ें, और लोगों को बताएं यही सच्चाई है और इस मसले का हल वही है जो हम बता रहे हैं.

उन्होंने कहा, ‘देखिए जंग जब भी हुई, ये दावा किया गया कि हम जंग नहीं चाहते, The war to end all wars… (सभी जंगों को ख़त्म करने की जंग) ये दूसरे विश्वयुद्ध का नारा था. हमला करने वाला दुनिया को जताता है कि हम बड़े अमनपसंद लोग हैं, हम बड़े ही नेक-शरीफ़ लोग हैं और हम इतने लाचार हैं कि अगर हथियार नहीं उठाया तो ये हमें मार ही डालेगा, जबकि सामने वाले के पास चींटी जितनी ताक़त भी नहीं है. जैसे इस जंग में अमेरिका हाथी था…उस वक़्त सब चुप हो गए, वो चुप्पी आज भी काटती है. आज क्या हो रहा है, इतनी जंग लड़ेंगे तो अर्थव्यवस्था का क्या होगा. आज अमेरिका में बैंक फ़ेल हो रहे हैं, अर्थव्यवस्था चरमरा रही है.’

पूरी बातचीत नीचे दिए गए लिंक पर देख-सुन सकते हैं.