मीडिया वन पर बैन रद्द, कोर्ट ने कहा- हक़ से वंचित करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा को इस्तेमाल किया

गृह मंत्रालय ने 2021 में मलयालम न्यूज़ चैनल ‘मीडिया वन’ को ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ का हवाला देते हुए सुरक्षा मंज़ूरी देने से इनकार के बाद जनवरी 2022 में इसके प्रसारण पर रोक लगाने को कहा था. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र के निर्णय को रद्द करते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर लोगों को अधिकारों से वंचित करने की आलोचना की है.

(फोटो साभार: मीडिया वन/पीटीआई फाइल)

गृह मंत्रालय ने 2021 में मलयालम न्यूज़ चैनल ‘मीडिया वन’ को ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ का हवाला देते हुए सुरक्षा मंज़ूरी देने से इनकार के बाद जनवरी 2022 में इसके प्रसारण पर रोक लगाने को कहा था. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र के निर्णय को रद्द करते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर लोगों को अधिकारों से वंचित करने की आलोचना की है.

(फोटो साभार: मीडिया वन/पीटीआई फाइल)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (5 अप्रैल) को मलयालम भाषा के समाचार चैनल मीडिया वन के प्रसारण पर केंद्र सरकार के प्रतिबंध को रद्द कर दिया. शीर्ष अदालत ने उच्च न्यायालय द्वारा इस प्रतिबंध को बरकरार रखने के फैसले और सरकार द्वारा इसे लागू करने के लिए ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ का हवाला देने की आलोचना भी की.

लाइव लॉ के अनुसार, देश मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस हिमा कोहली की पीठ ने कहा, ‘इस बारे में कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि उच्च न्यायालय ने क्या सोचकर इस फैसले को सही ठहराया था.’

ज्ञात हो कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने 30 सितंबर, 2011 को माध्यमम ब्रॉडकास्टिंग कंपनी लिमिटेड द्वारा शुरू किए गए मीडिया वन टीवी के लिए प्रसारण की अनुमति दी थी. 10 साल लंबी अनुमति 29 सितंबर, 2021 को समाप्त हो गई थी, इसलिए कंपनी ने मई 2021 में अगले 10 साल के लिए इसके नवीनीकरण के लिए आवेदन किया था.

हालांकि, 29 दिसंबर 2021 को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इसे ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ का हवाला देते हुए सुरक्षा मंजूरी देने से इनकार कर दिया था. इसके बाद मंत्रालय ने जनवरी 2022 में एक नोटिस जारी कर चैनल को यह बताने के लिए कहा था कि सुरक्षा मंजूरी से इनकार के मद्देनजर नवीनीकरण के लिए उसके आवेदन को खत्म क्यों नहीं किया जाना चाहिए?

इसके बाद मंत्रालय ने 31 जनवरी 2022 को समाचार चैनल के प्रसारण पर रोक लगाने का आदेश जारी किया था. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मार्च 2022 में ‘मीडिया वन’ के प्रसारण पर प्रतिबंध लगाने वाले केंद्र के फैसले पर अगले आदेश तक रोक लगा दी थी.

चैनल ने सुप्रीम कोर्ट में एक स्पेशल लीव पिटीशन दाखिल की थी, जिसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को चैनल को रिन्युअल लाइसेंस चार हफ्ते में जारी करने का निर्देश दिया था.

बताया जाता है कि माध्यमम ब्रॉडकास्टिंग के अधिकतर निवेशक कथित तौर पर जमात-ए-इस्लामी- हिंद के केरल चैप्टर के सदस्य हैं. बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे संबंध, जिसके खुद के भौतिक प्रमाण मौजूद नहीं है, चैनल को लाइसेंस न देने का वैध आधार नहीं हो सकते.

केंद्र के प्रतिबंध को बरकरार रखते हुए केरल हाईकोर्ट के जस्टिस एन. नागरेश की एक पीठ ने केंद्रीय गृह मंत्रालय के सुरक्षा मंजूरी से इनकार के निर्णय को स्वीकार करते हुए पेगासस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के कथन कि राष्ट्रीय सुरक्षा ऐसा मसला नहीं हो सकता, जिससे न्यायपालिका को दूर भागना चाहिए, को नजरअंदाज किया था.

लाइव लॉ के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने केंद्र द्वारा चैनल को सुरक्षा मंजूरी से इनकार करने के कारणों का खुलासा न करने को लेकर फटकार लगाई. इसने यह भी कहा कि प्रभावित चैनल को न बताते हुए किसी सीलबंद लिफाफे में अदालत से अपनी बात कहना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों और निष्पक्ष कार्यवाही के अधिकार का उल्लंघन तो है ही, साथ ही यह कंपनी को लड़ने के लिए अंधेरे में छोड़ने जैसा है.

प्रतिबंध के बाद द वायर  से बात करते हुए मीडिया वन के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद रमन ने कहा था कि चैनल को इस बारे में कोई सूचना नहीं मिली थी कि इसे क्यों बंद किया जा रहा है.

उनका कहना था, ‘हम इस बारे में आपसे ज्यादा कुछ नहीं जानते हैं. बैन के संबंध में नवीनतम जानकारी हाईकोर्ट के फैसले से मिली. हमें पहले कारण बताओ नोटिस भेजा गया था. लेकिन इस नोटिस में यह नहीं बताया गया है कि हमें क्या कारण बताने चाहिए.’

बुधवार के निर्णय में शीर्ष अदालत ने एक बार फिर लोगों को अधिकारों से वंचित करने के लिए सरकार द्वारा ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के इस्तेमाल की तीखी आलोचना की.

लाइव लॉ के मुताबिक, पीठ ने कहा, ‘सरकार नागरिकों के अधिकारों से वंचित करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा की दलील दे रही है. कानून के शासन के साथ यह सही नहीं है… राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित मुद्दों के होने भर से सरकार को गलत काम करने की छूट नहीं मिल जाती… मामले में अपनाई गई सीलबंद कवर प्रक्रिया ने याचिकाकर्ता के अधिकारों को कमजोर किया है.’

गौरतलब है कि यह भी पहली बार नहीं था कि जब शीर्ष अदालत ने सीलबंद दस्तावेज देने को लेकर सरकार को आड़े हाथों लिया हो.

अदालत ने कहा, ‘सीलबंद कवर प्रक्रिया को उन नुकसानों को ढकने के लिए नहीं लाया जा सकता, जिनका समाधान सार्वजनिक कार्यवाही द्वारा नहीं किया जा सकता… राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों को तरजीह देने पर प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को कम महत्व मिल सकता है. लेकिन खुलासे को लेकर पूरी तरह छूट नहीं दी जा सकती…सीलबंद कवर प्रक्रिया प्राकृतिक और पारदर्शी  न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है.’

शीर्ष अदालत ने अपने निर्णय में गृह मंत्रालय के इस दावे कि नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर चैनल की रिपोर्टिंग के साथ-साथ न्यायपालिका और सरकार की स्पष्ट आलोचना इसके ‘सत्ता विरोधी’ होने का प्रमाण हैं, के खिलाफ जाते हुए प्रेस की स्वतंत्रता को भी बरकरार रखा.

कोर्ट ने कहा, ‘प्रेस का कर्तव्य है कि वह सत्ता से सच बोले और नागरिकों को कड़वे तथ्यों से अवगत कराए. सरकार की नीतियों के खिलाफ चैनल के आलोचनात्मक विचारों को सत्ता विरोधी नहीं कहा जा सकता है. इस दृष्टिकोण से ऐसा लगता है कि प्रेस को हमेशा सरकार का समर्थन करना चाहिए. एक मजबूत लोकतंत्र के लिए एक स्वतंत्र प्रेस ज़रूरी है. सरकार की नीतियों की आलोचना को अनुच्छेद 19 (2) के तहत किसी भी आधार से नहीं जोड़ा जा सकता है, जो फ्री स्पीच (मुक्त भाषण) को प्रतिबंधित कर सकता है.’

पीठ ने जोर देकर कहा कि एक चैनल के लिए लाइसेंस का नवीनीकरण न करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबंध है और इसे केवल अनुच्छेद 19(2) के आधार पर लगाया जा सकता है.

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