कुमार गंधर्व: उनका संगीत बहुत सारी अंतर्ध्वनियों से बुना गया संगीत था…

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: कुमार गंधर्व के यहां सौंदर्य और संघर्ष का द्वैत ध्वस्त हो जाता है: वहां संघर्ष है तो सौंदर्य के लिए ही और संघर्ष का अपना सौंदर्य है. उनका सांगीतिक व्यवहार और उनकी सौंदर्य दृष्टि को कई युग्मों के बीच एक अविराम प्रवाह की तरह देखा जा सकता है.

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पंडित कुमार गंधर्व. (फोटो साभार: एनसीपीए, मुंबई)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: कुमार गंधर्व के यहां सौंदर्य और संघर्ष का द्वैत ध्वस्त हो जाता है: वहां संघर्ष है तो सौंदर्य के लिए ही और संघर्ष का अपना सौंदर्य है. उनका सांगीतिक व्यवहार और उनकी सौंदर्य दृष्टि को कई युग्मों के बीच एक अविराम प्रवाह की तरह देखा जा सकता है.

पंडित कुमार गंधर्व. (फोटो साभार: एनसीपीए, मुंबई)

पंडित कुमार गंधर्व का सौवां वर्ष 8 अप्रैल 2023 को आरंभ हो गया. शती-आयोजनों की श्रृंखला ‘कालजयी’ नाम से देश के अनेक केंद्रों में आयोजित होने जा रही है. पहला आयोजन मुंबई के नेशनल सेंटर ऑफ परफार्मिंग आर्ट्स में 8-9 अप्रैल को हो रहा है. कई संस्थाओं और व्यक्तियों के सहयोग से यह श्रृंखला कुमार गंधर्व प्रतिष्ठान, देवास द्वारा आयोजित की जा रही है.

कई बार लगता है कि हालांकि कुमार जी उन संगीतकारों में से हैं जिनके बारे में संगीत के अलावा कई अन्य अनुशासनों के विशेषज्ञों ने बहुत समझ और जतन से लिखा है, इसकी समझ कुछ कम ही रही है कि उन्होंने किस तरह का लगभग नया, पर अपने मूल में पारंपरिक सौंदर्यशास्त्र रचा.

उसका सबसे मूल्यवान पक्ष यह है कि कुमार जी के यहां सौंदर्य और संघर्ष का द्वैत ध्वस्त हो जाता है: वहां संघर्ष है तो सौंदर्य के लिए ही और संघर्ष का अपना सौंदर्य है. कुमार जी का सांगीतिक व्यवहार और उनकी सौंदर्य दृष्टि को कई युग्मों के बीच एक अविराम प्रवाह की तरह देखा जा सकता है.

युग्मों का एक दशक कुछ इस तरह बनता है: जिजीविषा और नश्वरता, परंपरा और आधुनिकता, स्वर और शब्द, रसिकता और विराग, स्थानीयता और गगनमंडल, शास्त्र और लोक, एकांत और सामुदायिकता, रहस्य और आश्चर्य, समय और अनंत तथा मुखरता और शून्य. अगर इन युग्मों से कुछ परस्पर विरोधी हैं या लगते हैं तो उनके यहां विरुद्धों का सामंजस्य लगातार होता चलता है.

कुमार-संगीत अपने सघन प्रभाव के बावजूद बहुत जटिल संगुम्फन से उपजता था. उसकी प्रवाहमयता कई अवरोधों को पार कर आती थी. ये अवरोध भौतिक होने के अलावा वैचारिक और भावात्मक भी थे. कठिन सत्य में बंधी सरलता.

कुमार-संगीत बहुत सारी अंतर्ध्वनियों से बुना गया संगीत था. जब परंपरा सक्रिय नज़र आती थी तो उसमें आधुनिकता की गूंज भी थी, जब एकांत सधता था तो सामुदायिकता भी प्रगट होती थी. निपट स्थानीय से विराट कॉस्मिक तक वे लगभग अनायास पहुंच जाते थे. उनके निर्गुण में सगुणता भी अनुगुंजित होती थी.

हम उनकी उक्तियों का एक सप्तक बना सकते हैं जिनसे संगीत पर उनके विचार की एक संपदा ज़ाहिर होती है. ‘राग तो नंगा है, उसे कपड़े हम पहनाते हैं’; ‘मैं तो सबसे मरण-धर्मा कला का साधक हूं- गाते-गाते रोज़ मरता हूं’; ‘बिना छंद के फूल नहीं खिलता है’; ‘कला का पेट बहुत बड़ा है, सब कुछ चाहिए उसको, सब उसको व्यक्त करना आता है’, ‘आज के गाने में सुगंध कम हो रही है’; ‘आओ, नचाते हैं तुमको दरबारी गाके’ और ‘कबीर को घुंघरू नहीं.’

ये सभी उक्तियां उन्होंने जब-जब मुझसे बात करते हुए कही थीं. हम उनका आशय समझने की चेष्टा करें तो कुछ अवधारणाएं सामने आएंगी.

कुमार जी का मत था कि राग का कोई आत्यंतिक अर्थ या स्थिर अर्थ नहीं है: अर्थ तो उसमें संगीतकार भरता है. इसी तरह राग का कोई अटल स्वभाव नहीं है. दरबारी हमेशा गुरु गंभीर नहीं है, उसमें चंचलता भी आ सकती है. राग क्या रूप-रंग लेगा यह इस पर निर्भर करता है कि संगीतकार कैसी कल्पना और कितनी रचनात्मकता राग गाने-बजाने में ला पाता है.

कुमार जी के निकट कला की अपने में समावेश करने की अपार क्षमता होती है: वह सब कुछ को व्यक्त करने का उद्यम कर सकती है. सिर्फ़ संगीत में नहीं, हर कला में यह संभावना होती है.

कुमार जी जीवन की भंगुरता से भलीभांति अपनी निजी बीमारी और शारीरिक अक्षमता के रहते परिचित थे. उन्हें इसीलिए संगीत की भंगुरता का भी तीख़ा एहसास था. वे इसे रेखांकित कर पाए कि एक बार गाया-बजाया पूरी बार वैसा का वैसा दोहराया नहीं जा सकता. वह जिजीविषा के कारण फिर गाया-बजाया जाता है पर वह बदल चुका होता है: भंगुरता और परिवर्तनशीलता कुमार जी की सौंदर्यदृष्टि के लगभग कारक तत्व हैं. अथक रूप से प्रगतिशील रहे कुमार जी को अपनी आधार-भूमि को सशक्त-सुदृढ़ करने का पूरा ख्याल था: बिना छंद के प्रफुल्लता संभव नहीं है.

कुमार जी के यहां संगीत किसी एक इंद्रिय द्वारा ग्रहण किए जाने तक सीमित नहीं था. वह अपने सही और गहरे प्रभाव में सकल इंद्रियबोध को सजग-सक्रिय करे ऐसी उनकी आकांक्षा थी. इसीलिए वे गायन में सुगंध भी खोजते और पाते थे.

हिंदी अंचल में तो विशेषतः पर अन्यत्र भी उनकी शास्त्रीय लोकप्रियता का एक कारण उनका भक्ति काव्य का अनूठा गायन था. वहां भी कबीर को शास्त्रीय संपदा का अविस्मरणीय अंग बनाने का काम उन्होंने किया. उन्होंने अपनी शास्त्रीय कल्पना और लोकसंपदा का अनोखा मेलजोल करके सगुण और निर्गुण दोनों तरह के काव्य का गायन किया.

हम जब भारत भवन में एक बार कबीर पर एक नई नाट्यप्रस्तुति करने पर विचार कर रहे थे और ब. व. कारंत चाहते थे कि कुमार जी उसमें सशरीर भाग लें तो कुमार जी ने तुलसी-सूर-मीरा को एक क्यू में खड़े बताते हुए उनसे कबीर को अलगाया था और इस पर इसरार किया था उन्हें गाने में कोई अलंकरण अनावश्यक है, उन्हें शून्य की ओर निरलंकार जाते देखना ही अभीष्ट है.

‘वा घर सबसे न्यारा’

कवि-कथाकार ध्रुव शुक्ल ने, इस बीच, रज़ा फेलोशिप के अंतर्गत, कुमार गंधर्व की जीवनी लिखी है जिसे सेतु प्रकाशन ‘वा घर सबसे न्यारा’ शीर्षक से प्रकाशित कर रहा है. उसका लोकार्पण मुंबई में 8 अप्रैल को हुआ.

वह निरी तथ्यपरक जीवनी नहीं है और उसमें नए अल्पज्ञात तथ्यों और विवरणों के अलावा कुमार जी के और उनके बारे में औरों के विचारों को भी यथास्थान शामिल किया गया है. उसका एक अंश इस प्रकार है:

‘संगीत का विषय स्वर है और खुद संगीतकार उस स्वर का आश्रय है- पहले हो गए आचार्यगण यह अनुभव करते आए हैं कि व्यक्ति बदल जाने से कल्पना भी बदल जाती है. यही कारण है कि जीवन में कुछ भी पुराना नहीं पड़ता. राग भी कभी पुराने नहीं होते. समय, संगीतकार और सहृदय मिलकर उन्हें बार-बार रचते रहते हैं. केवल दुहराव में नई सूझ नहीं होती. नई सूझ से दुहराव नए रूप में जन्म लेते हैं.

जो रसिक लगभग आधी सदी तक कुमार गंधर्व का संगीत सुनते रहे थे वे अनुभव करते आए हैं कि कुमार गंधर्व संगीत की स्मृति, मति और प्रज्ञा में डूबे संगीतज्ञ रहे हैं. उन्होंने विगत को खूब परखा है और वे उसके आने वाले समय को भी पहचान गए हैं. इसीलिए वे शास्त्रीय जड़ता में बंधे हुए संगीत को अपने वर्तमानलोक के आंगन में उतारकर गाते हैं. लोक ही तो है जिसे बांधा नहीं जा सकता और जिसमें सबकी आवाज़ों के लिए बेदल का मैदान फैला है.’

‘संगीत के लक्षण तो उसके शास्त्र से प्रायः ज्ञान लिए जाते हैं पर उसकी व्यंजना क्या है. उससे होने वाली रस-निष्पत्ति को लोक तो अपनी भावस्थिति के अनुरूप प्रत्येक काल में परखता ही आया है पर संगीतकार इस व्यंजकता को लोक की देशकालभूमि पर कैसे नया आकार प्रदान कर सके यह कुमार गंधर्व की मुख्य चिंता रही है.

कभी जब उनका कंठ अवरुद्ध-सा होता तो वे आ-कार से हटकर ए-कार पर गाने लगते. गाने के बाद असंतुष्ट ही बने रहते और कहने लगते कि आज गाना पचास प्रतिशत ही ठीक रहा. वे अपने गाने से पूरी तरह संतुष्ट नहीं हुए. वे सिर्फ़ गाने के लिए नहीं गाते थे. वे तो राग को पाना चाहते थे और अच्छी तरह जानते थे कि आज तक कोई भी पूरा राग कहां गा पाया है.’

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‘कुमार जी ने बात को आगे बढ़ाते हुए समझाया कि- यह स्वरों की लंबाई की बात है. आखिर वास्तुशिल्प और क्या है. लाइन ही तो है, रेखा है. पेंटिग भी क्या है, रेखा है, रंग है. और स्वर में भी वही चीज़ दिखा सकते हैं. गोलाई दिखा सकते हैं. संगीत में एक और बात है जो दूसरी कला में नहीं है. संगीत में आप सिर्फ़ जा सकते हैं, बिना आए. जिसे आरोह-अवरोह कहते हैं- यानी जाना और आना. संगीत में बिना अवरोह के आरोह हो सकता है- सिर्फ़ जाना. और सिर्फ़ आना भी हो सकता है. इस पर बड़े-बड़े राग निर्मित हैं.’

असाधारण संयोग

इस समय भारतीय कला के क्षेत्र में एक असाधारण संयोग घटित हो रहा है. पेरिस के सेंटर पाम्पिदू मे सैयद हैदर रज़ा की विशाल प्रदर्शनी दिनों दिन लोकप्रिय हो रही है. दुबई में उनके चित्रों और उनकी कलाकार पत्नी जानींन मोजिला की संयुक्त प्रदर्शनी पिछले महीने से शुरू हुई. न्यूयार्क में एकान गैलरी में ‘रज़ा+अमेरिका’ एक प्रदर्शनी हाल ही में शुरू हुई है. लंदन में ग्रोवेनर गैलेरी में भी रज़ा की कुछ चुनी हुई कलाकृतियों की प्रदर्शनी का शुभारंभ हुआ है.

इस सबका आशय यह है कि रज़ा के चित्र एक साथ पेरिस, दुबई, न्यूयॉर्क और लंदन में दिखाए जा रहे हैं. ऐसा पहली बार हुआ है कि एक ही समय विश्व के चार शहरों में, और अगर त्रिवेणी, नई दिल्ली में चल रही प्रदर्शनी शामिल कर ली जाए तो पांच शहरों में किसी कलाकार की प्रदर्शनी एक साथ हो रही है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)