दलित ह्यूमन राइट्स डिफेंडर्स नेटवर्क ने सात राज्यों में जाति आधारित ‘ऑनर किलिंग’ के मामलों का अध्ययन किया और पाया कि किसी विशेष क़ानून के अभाव में इस अपराध की वास्तविक स्थिति पता लगाना असंभव है.
मुंबई: देशभर में तथाकथित ‘ऑनर किलिंग’ की घटनाएं इनके आधिकारिक आंकड़ों और मुख्यधारा के मीडिया द्वारा बताए गए आंकड़ों की तुलना में काफी अधिक होती हैं. इन घटनाओं को कम रिपोर्ट किए जाने के अलावा इन अपराधों को अक्सर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के मौजूदा प्रावधानों के तहत हत्या, चोट पहुंचाना और अपहरण के रूप में दर्ज किया जाता है, जिससे इन अपराधों के वास्तविक कारण और प्रकृति की पहचान करना और उनका अध्ययन करना मुश्किल हो जाता है.
रिपोर्ट के अनुसार, दलित ह्यूमन राइट्स डिफेंडर्स नेटवर्क (डीएचआरडीनेट) द्वारा नेशनल काउंसिल फॉर विमेन लीडर्स (एनसीडब्ल्यू) के सहयोग से हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट सात राज्यों- हरियाणा, गुजरात, बिहार, राजस्थान, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश- में जाति आधारित ऑनर किलिंग की तस्वीर सामने रखती है.
रिपोर्ट में जमीनी स्तर की केस स्टडीज के हवाले से बताया गया है कि भारत में बिना क़ानूनी या सामाजिक उपाय के चलते ‘ऑनर किलिंग’ के दर्ज मामलों में स्पष्ट वृद्धि देखी गई है.
रिपोर्ट में 2012 से 2021 के बीच के 24 मामलों पर नजर डाली गई है और लगभग सभी मामलों में पीड़ितों/सर्वाइवर्स को रिश्ते या शादी का विरोध करने वाले परिजनों के हाथों अत्यधिक हिंसा का सामना करना पड़ा है.
हालांकि, अध्ययन में केवल उन मामलों को शामिल किया गया है जिनमें परिवार के सदस्यों ने सहमति से बने संबंध या शादी का पता लगने के बाद हिंसा को अंजाम दिया. इस अध्ययन में दो अनोखे मामलों को छोड़ दिया गया जिनमें दलित महिलाओं और कथित प्रभावशाली जाति के पुरुषों के बीच प्रेम संबंध थे.
अध्ययन में कहा गया है कि इन दो मामलों में कथित प्रभावशाली जाति के पुरुषों ने कथित तौर पर दलित समुदाय की महिलाओं को रिश्ते में फंसाया और जब उन्होंने शादी के लिए दबाव डाला, तो उनकी हत्या करने के लिए परिवार और दोस्तों को साथ लिया. इनमें से एक घटना उत्तर प्रदेश और दूसरी तमिलनाडु में हुई.
अध्ययन में कहा गया है, ‘इन दो (मामलों) को इस रिपोर्ट से बाहर कर दिया गया है क्योंकि वे स्पष्ट रूप से जाति आधारित यौन हिंसा के मामले हैं और पूरी तरह से ‘सम्मान की खातिर (ऑनर)’ किए गए अपराध नहीं हैं.’
रिपोर्टकहती है कि इस प्रकार की हिंसा के शिकार अधिकांश लोग अनुसूचित जाति समुदायों के सदस्य हैं. कम से कम 20 दलित पुरुषों को उनके साथी (पार्टनर) के परिवार- जो कथित प्रभावशाली जातियों से ताल्लुक रखते थे- द्वारा या तो मार डाला गया या गंभीर रूप से घायल कर दिया गया.
रिपोर्ट में पाया गया है कि कई मामलों में केवल एक व्यक्ति पर ही नहीं, बल्कि उसके परिवार के सदस्यों पर भी हमला किया जाता है. रिपोर्ट में पाया गया कि हरियाणा के एक मामले में अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखने वाले एक पूरे परिवार की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी.
इसमें तमिलनाडु में एक अन्य मामले में एक जोड़ा ऐसा था, जो अंतरजातीय संबंध में था और साथ घर छोड़कर कहीं जाकर छिप गया था. चूंकि वे मिले नहीं, इसलिए लड़की के परिवार वालों ने बदला लेने के लिए लड़के की बहन का अपहरण कर उसकी हत्या कर दी. इस मामले में पुरुष अनुसूचित जाति से है, और महिला थेवर जाति की है.
जाति आधारित हिंसा के ख़िलाफ़ क़ानून
यह रिपोर्ट ‘ऑनर क्राइम (सम्मान की खातिर किए अपराध)’ संबंधी मामलों का विश्लेषण है, जिसके लिए डीएचआरडीनेट द्वारा, जैसा कि पहले उल्लेख किया, भारत के सात राज्यों से तथ्य जुटाए गए.
विश्लेषण से पता चलता है कि अपनी पसंद के मुताबिक अंतरजातीय विषमलैंगिक संबंध बनाने के मामलों में महिलाओं और पुरुषों के खिलाफ हिंसा जारी रहने में जाति एक महत्वपूर्ण कारक की भूमिका निभाती है.
यह रिपोर्ट उन अपराधों के संकलन का नतीजा है जिनमें डीएचआरडीनेट ने जमीन पर काम करते हुए न्याय के लिए लड़ने वाले पीड़ितों/सर्वाइवर्स को उनकी लड़ाई में सहायता प्रदान की.
भारत में सम्मान आधारित अपराधों के लिए कोई विशेष कानून नहीं है. इन मामलों की आईपीसी के मौजूदा प्रावधानों के तहत जांच की जाती है, और जब पीड़ित अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति समुदाय से ताल्लुक रखता है तो एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम लागू होता है.
लेकिन कम से कम पांच ऐसे उदाहरण हैं जब ऑनर क्राइम के पीड़ित अन्य पिछड़ा वर्ग या खानाबदोश समुदायों से संबंधित थे. इन मामलों में पुलिस सिर्फ आईपीसी की धाराएं ही लगा सकी.
2012 में भारत के विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि विशेष रूप से ‘ऑनर क्राइम’ के लिए एक अलग कानून बनाया जाए. रिपोर्ट के हिस्से के तौर पर एक विधेयक ड्राफ्ट भी किया गया और उसमें किसी जोड़े को डराने-धमकाने के अपराधीकरण समेत विशिष्ट कानूनी कार्रवाई प्रस्तावित की गईं थी.
हालांकि, ‘किसी भी सांसद ने इस बिल को संसद में पेश नहीं किया।’ रिपोर्ट बताती है कि विधि आयोग के किए कार्य को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.
2018 में, शक्ति वाहिनी बनाम भारत सरकार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ऑनर किलिंग को एक गंभीर मुद्दे के रूप में मान्यता दी और ऑनर क्राइम की रोकथाम के लिए राज्य एवं पुलिस प्रशासन की जवाबदेही और जिम्मेदारी तय की.
इस खतरे से निपटने के लिए अब तक कुछ गंभीरता दिखाने वाला एकमात्र राज्य राजस्थान है. 2019 में राजस्थान ने 2012 के विधि आयोग की रिपोर्ट पर आधारित एक विधेयक विधानसभा में पेश किया. इसे अगस्त 2019 में राजस्थान विधानसभा में पारित किया गया था. हालांकि, यह कानून नहीं बन पाया है क्योंकि इस पर राज्यपाल द्वारा हस्ताक्षर नहीं किए गए.
जमीन पर काम करने वाले मानवाधिकार रक्षकों में बिहार से वकील सविता अली, सेराज अहमद और इम्तियाज अंसारी; गुजरात से प्रीति वाघेला, दिनेशभाई प्रियदर्शी, पीयूषभाई सरवैया, निमिशा परमार और गोविंदभाई परमार; हरियाणा से सोनिया खत्री और मंजूर खत्री; राजस्थान और मध्य प्रदेश से भानु प्रताप; महाराष्ट्र से प्राची साल्वे और प्रभाकर सोनवणे; तमिलनाडु से धर्मदुराई, मुत्थु, रामचंद्रन और अरुमुगन; और उत्तर प्रदेश से शोभना स्मृति, सीमा गौतम, पूनम शामिल रहे.
रिपोर्ट को टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से शेवली कुमार और तमिलनाडु से वकील ईश्वर्या सुब्बैया ने लिखा है.
अलग क़ानून की ज़रूरत
रिपोर्ट में इस समस्या से निपटने के लिए अलग कानून की जरूरत पर जोर दिया गया है. इसमें कहा गया है कि वर्तमान में विशेष कानून के अभाव में इस अपराध की वास्तविक स्थिति की पहचान करना असंभव है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने भी 2014 से ही ‘ऑनर किलिंग’ शीर्षक के तहत अपराध दर्ज करना शुरू किया है, वे भी विश्वसनीय नहीं हैं.
रिपोर्ट में सिफारिश की गई है, ‘चूंकि कोई कानून नहीं है, इसलिए ज्यादातर मामले हत्या या आईपीसी के अन्य प्रावधानों के तहत दर्ज किए जाते हैं. बहुत ही कम मामले ठीक तरीके से ऑनर किलिंग के रूप में दर्ज होते हैं. ऑनर क्राइम पर ध्यानपूर्वक आंकड़े एकत्र किए जाने चाहिए. जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर एक विशेष डेटाबेस मेंटेन रखा जाना चाहिए.’
संगठनों को लगता है कि सरकार को ‘राष्ट्रीय लक्ष्य’ बनाकर जाति-आधारित भेदभाव व हिंसा और जाति-आधारित पितृसत्ता के उन्मूलन के लिए प्रतिबद्ध होने की आवश्यकता है.
संगठनों ने विशेष विवाह अधिनियम की ओर भी ध्यान आकर्षित कराया और सिफारिश की कि विवाहों के पंजीकरण की प्रक्रिया को सरल और तेज बनाया जाना चाहिए ताकि बाहरी स्रोतों से होने वाली परेशानियों और उत्पीड़न से बचा जा सके.
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