अनुसूचित जाति (एससी) कोटा में दलित ईसाइयों और दलित मुसलमानों को शामिल किए जाने के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है, इस दौरान सरकार ने कहा कि उसने इस संबंध में एक समिति का गठन किया है, जिसकी रिपोर्ट आने तक शीर्ष अदालत को इंतज़ार करना चाहिए. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मामला 20 वर्षों से लंबित है, कितनी समितियां बनाई जाएंगी.
नई दिल्ली: केंद्र सरकार की इस अपील को सुप्रीम कोर्ट ने दरकिनार कर दिया है कि ‘अनुसूचित जाति (एससी) कोटा में दलित ईसाइयों और दलित मुसलमानों को शामिल किया जाना चाहिए या नहीं, इस बारे में सिफारिश करने के लिए इसके द्वारा बनाई गई एक और समिति की रिपोर्ट का इंतजार किया जाए’, इस तरह सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई पर आगे बढ़ने का फैसला किया है.
यह कहते हुए कि यह मामला लगभग 20 वर्षों से लंबित है, शीर्ष अदालत की तीन सदस्यीय पीठ ने कहा, ‘सामाजिक कलंक और धार्मिक कलंक अलग-अलग चीजें हैं. धर्मांतरण के बाद भी सामाजिक कलंक बना रह सकता है. जब हम इन सभी संवैधानिक मामलों पर विचार कर रहे हैं तो हम अपनी आंखें बंद नहीं कर सकते.’
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, ‘अदालत ने कहा कि वह समयबद्ध तरीके से सुनवाई पूरी करेगी और पक्षकारों को अपनी संक्षिप्त लिखित प्रस्तुति दर्ज करने और मामले में सुचारू सुनवाई के लिए एक सामान्य संकलन बनाने के लिए कहा, जिसमें दोनों पक्षों को बहस समाप्त करने के लिए दो-दो दिन का समय मिलेगा.’
रिपोर्ट में कहा गया है कि केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज ने जस्टिस संजय किशन कौल, अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और अरविंद कुमार की पीठ से कहा कि अदालत को सरकार द्वारा अक्टूबर 2022 में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में गठित नई समिति की रिपोर्ट का इंतजार करना चाहिए.
बता दें कि जस्टिस रंगनाथ मिश्र आयोग द्वारा तैयार की गई पहले की रिपोर्ट को सरकार ने खारिज कर दिया था. मिश्रा आयोग ने दलित मुसलमानों और ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने की सिफारिश की थी.
अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल नटराज ने आरोप लगाया कि मिश्र आयोग की रिपोर्ट जमीनी अध्ययन और परामर्श पर आधारित नहीं थी और अदालत को नए आयोग द्वारा एकत्रित अनुभवजन्य आंकड़ों का इंतजार करना चाहिए.
इस पर पीठ ने कहा, ‘कल एक अलग राजनीतिक व्यवस्था होगी, जो कह सकती है कि नई रिपोर्ट स्वीकार्य नहीं है. ऐसे में कितनी समितियां (आयोग) बनाई जाएंगी?’
अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल को मिश्रा आयोग की रिपोर्ट की जांच करने के लिए कहते हुए पीठ ने कहा, ‘आप एक रिपोर्ट पर बहुत सामान्यीकृत बयान दे रहे हैं. रिपोर्ट इतनी सतही नहीं है.’
अदालत ने कहा कि वह इस बात पर विचार करेगी कि क्या वह नई रिपोर्ट के अनुभवजन्य आंकड़ों पर भरोसा कर सकती है.
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण, कॉलिन गोंजाल्विस, राजू रामचंद्रन और सीडी सिंह ने कहा कि इस मामले को शीर्ष अदालत द्वारा सुना जाना चाहिए, क्योंकि ‘इस मुद्दे पर पर्याप्त सामग्री है, जो दिखाती है कि दलित मुसलमानों और ईसाइयों को ‘अछूत’ माना जाता है और उनके साथ भेदभाव किया जाता है और वे सामाजिक पदानुक्रम में सबसे नीचे हैं.’
1950 के संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश के अनुसार, हिंदू, सिख या बौद्ध धर्म के अलावा किसी अन्य धर्म से संबंधित किसी व्यक्ति को अनुसूचित जाति का नहीं माना जा सकता है. हालांकि, ईसाई और इस्लाम धर्म से ताल्लुक रखने वाले दलितों की मांग है कि उन्हें अनुसूचित जाति समुदाय में शामिल किया जाए, क्योंकि उनका धर्म अलग होने से जाति पदानुक्रम के आधार पर उनके सामाजिक बहिष्कार की स्थिति नहीं बदल जाती.
इससे पहले की एक प्रस्तुति में केंद्र सरकार ने 1950 के आदेश पर जोर दिया था और अदालत को बताया था कि चूंकि कोई सामाजिक पदानुक्रम मौजूद नहीं है और जो दलित इस्लाम और ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गए हैं, उन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं दिया जा सकता है.
पीठ ने मामले में अगली सुनवाई 11 जुलाई को तय की है.
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