सरकारी फैक्ट-चेकिंग के ख़िलाफ़ कुणाल कामरा की याचिका और अभिव्यक्ति की आज़ादी का सवाल

इस महीने की शुरुआत में अधिसूचित नए आईटी नियम कहते हैं कि सरकारी फैक्ट-चेक इकाई द्वारा ‘फ़र्ज़ी या भ्रामक’ क़रार दी गई सामग्री को गूगल, फेसबुक, ट्विटर आदि सोशल मीडिया कंपनियों और इंटरनेट सेवा प्रदाता को हटाना ही होगा. स्टैंड-अप कॉमेडियन कुणाल कामरा ने इसके ख़िलाफ़ बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर की है.

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नरेंद्र मोदी और कुणाल कामरा. (फोटो साभार: पीटीआई/द वायर/यूट्यूब स्क्रीनग्रैब)

इस महीने की शुरुआत में अधिसूचित नए आईटी नियम कहते हैं कि सरकारी फैक्ट-चेक इकाई द्वारा ‘फ़र्ज़ी या भ्रामक’ क़रार दी गई सामग्री को गूगल, फेसबुक, ट्विटर आदि सोशल मीडिया कंपनियों और इंटरनेट सेवा प्रदाता को हटाना ही होगा. स्टैंड-अप कॉमेडियन कुणाल कामरा ने इसके ख़िलाफ़ बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर की है.

नरेंद्र मोदी और कुणाल कामरा. (फोटो साभार: पीटीआई/द वायर/यूट्यूब स्क्रीनग्रैब)

नई दिल्ली : कॉमेडियन कुणाल कामरा ने बॉम्बे हाईकोर्ट में एक याचिका दायर करके इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस एंड डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड) संशोधन नियमों, 2023 में 6 अप्रैल को किए गए संशोधन को चुनौती दी है. यह संशोधन केंद्र सरकार को डिजिटल मीडिया की सामग्री (कंटेंट) की तथ्यात्मकता की जांच (फैक्ट-चेक) करने और फेक, झूठी या भ्रामक पाए जाने पर इसे हटाने का आदेश देने के लिए एक अलग यूनिट गठित करने की शक्ति देता है.

इस याचिका का आधार संविधान का अनुच्छेद 14, 19 (1) (ए) और 19 (1)(जी) है. साथ ही इसे इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट, 2000 की धारा 79 के अधिकारों से परे होने के आधार पर चुनौती दी गई है.

जस्टिस गौतम पटेल और जस्टिस नीला गोखले की बॉम्बे हाईकोर्ट की एक पीठ ने 11 अप्रैल को याचिकाकर्ता की तरफ से वरिष्ठ वकील नवरोज शेरवानी और अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल अनिल सिंह की दलीलों को सुना और केंद्र सरकार से इस पर 19 अप्रैल से पहले जवाब देने के लिए कहा है.

बार एंड बेंच के अनुसार, न्यायधीशों ने सरकार से यह स्पष्ट करने के लिए कहा कि क्या इस संशोधन की पहल करने के पीछे कोई तथ्यात्मक आधार या तर्क मौजूद था? इस मामले पर अगली सुनवाई 21 अप्रैल को होगी.

द वायर  के पास मौजूद इस याचिका की प्रति इन विवादित नियमों के खिलाफ संभावित कानूनी दलीलों पर पर्याप्त रोशनी डालती है.

विवादित नियम, आईटी रूल्स, 2021 के नियम 3(i)(ए) और 3(1)(बी)(वी) को संशोधित करते हैं. इसके तहत सोशल मीडिया इंटरमीडियरीज (प्लेटफॉर्मों/मध्यस्थों) को इस बात का यथोचित प्रयास करने का निर्देश दिया गया है कि वे अपने यूजर्स को- नियमों, विनियमों और अन्य नीतियों द्वारा- ऐसी किसी सूचना, जिसे केंद्र सरकार की फैक्ट-चेक इकाई द्वारा केंद्र के किसी कामकाज के संदर्भ में फर्जी, झूठ या भ्रामक करार दिया गया है, को ‘होस्ट, प्रदर्शित, संशोधित, प्रकाशित, प्रसारित, प्रेषित, स्टोर, अपडेट या साझा’ न करने दें.

इस प्रकार से ये विवादित नियम सोशल मीडिया इंटरमीडियरीज पर केंद्र सरकार द्वारा गठित फैक्ट-चेक इकाई के निर्देश पर केंद्र सरकार से जुड़ी सामग्री को सेंसर या संशोधित करने की जिम्मेदारी डालते हैं.

कामरा की याचिका में विवादित नियमों पर साफ तौर पर मनमानेपन से भरा हुआ बताया गया है, क्योंकि इसमें केंद्र सरकार को अपने ही मामले में जज और वकील दोनों, बना दिया गया है, जो नैसर्गिक न्याय के सबसे बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ है.

कामरा का कहना है कि विवादित नियमों का दायरा बहुत बड़ा और अस्पष्ट है और यह सरकार को अभिव्यक्ति की सत्यता या झूठ का एकमात्र निर्णायक बनाकर संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत मिली बोलने एवं अभिव्यक्ति की आजादी पर अतार्किक बंदिश लगाता है.

आई एक्ट की धारा 79 मध्यस्थों को एक सुरक्षित कवच देती थी. वे उनके द्वारा उपलब्ध कराई गई या होस्ट की गई किसी थर्ड पार्टी सूचना के लिए जवाबदेह नहीं थे, बशर्ते उन्होंने आईटी एक्ट के तहत अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में समुचित सावधानी बरती हो और केंद्र द्वारा दिए गए दिशानिर्देशों का पालन किया हो.

धारा 79 (3)(बी) इस सुरक्षा कवच के हट जाने की स्थिति को रेखांकित करती है. इसके अनुसार अगर ‘सक्षम सरकार या इसकी एजेंसी द्वारा यह जानकारी मिलने या अधिसूचना जारी किए जाने पर कि कोई सूचना, डेटा या कम्युनिकेशन लिंक, जिसका इस्तेमाल गैरकानूनी कार्य को अंजाम देने के लिए किया जा रहा है, मध्यस्थों द्वारा नियंत्रित कंप्यूटर रिसोर्स में मौजूद है या उससे जुड़ा हुआ है, मध्यस्थ सबूत में किसी प्रकार की छेड़छाड़ किए बगैर उस रिसोर्स में मौजूद उस सामग्री को तत्परता के साथ हटाने या उसके एक्सेस को डिसेबल करने में असमर्थ रहता है, तो उसे मिला सुरक्षा कवच हट जाएगा.’

श्रेया सिंघल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2015) वाले में मामले में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 79(3)(बी) को बरकरार रखा था, इस शर्त के साथ कि कोर्ट के आदेश/या सक्षम सरकार या इसकी एजेंसी की अधिसूचना को हर हाल में अनुच्छेद 19 (2) में दिए गए प्रावधानों के अनुरूप होना चाहिए.

2011 में सरकार ने आईटी एक्ट की धारा 87 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए आईटी नियमों को बनाया गया. इनमें से नियम 3(4) में मध्यस्थों पर इसके द्वारा होस्ट की गई किसी सूचना के कानून विरुद्ध होने की ‘वास्तविक जानकारी’ मिलने के 36 घंटों के भीतर उस पर कार्रवाई करने की जिम्मेदारी डाली गई. श्रेया सिंघल वाले मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रावधान को नरम बनाते हुए इसका अर्थ कोर्ट के आदेश द्वारा दी गई सूचना कर दिया.

2021 में सरकार ने आईटी नियमों में व्यापक संशोधन किए. इनके द्वारा सोशल मीडिया मध्यस्थों पर अपने सुरक्षा कवच को बचाए रखने के लिए उन पर शर्तों की एक पूरी फेहरिस्त थोप दी गई.

9 मई, 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने इन नियमों को चुनौती देने वाली एक याचिका पर एक नोटिस जारी किया और उच्च न्यायालयों में सुनवाइयों पर रोक लगा दी.

28 अक्टूबर, 2022 को सरकार ने नियमों की एक नई नियमावली- इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस एंड डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड) रूल्स- लेकर आई, जिसने 2021 के आईटी रूल्स में व्यापक संशोधन कर दिए. 2022 के संशोधन के बाद संशोधित रूल 3 (1)(बी)(वी) ने मध्यस्थों पर यूजर्स को झूठी या भ्रामक जानकारी अपलोड या शेयर करने से रोकने की दिशा में समुचित प्रयास करने की जिम्मेदारी डाल दी.’

अपनी याचिका में कामरा ने दलील दी है कि 2023 के विवादित नियम ये नहीं बताते हैं कि यह ‘समुचित प्रयास’ क्या है?

अभिव्यक्ति को हतोत्साहित करने की दलील

अभिव्यक्ति को हतोत्साहित करने की दलील का संबंध एक ऐसे परिदृश्य से है, जिसमें अभिव्यक्ति पर पाबंदी लगाने वाला अस्पष्ट कानून का अस्पष्ट हिस्सा है, जहां नागरिक कानूनी और गैरकानूनी के बीच के अंतर का अनुमान लगाते रहते हैं. ऐसी स्थिति में नागरिक इस कानूनी-गैर कानूनी वाले अस्पष्ट हिस्से से दूर रहने के लिए कानून सम्मत अभिव्यक्ति को भी खुद ही सेंसर करते हैं. इसका परिणाम जरूरत से ज्यादा विनियमन और कानूनसम्मत अभिव्यक्ति का गला घोंटने के तौर पर निकलता है.

कामरा की दलील है कि ‘किसी कामकाज’ के संबंध में अस्पष्टता के साथ-साथ ‘समुचित प्रयासों’ को लेकर अस्पष्टता निस्संदेह एक ऐसा हतोत्साहित करने वाला प्रभाव पैदा करेगा, जिसमें मध्यस्थों केंद्र सरकार की फैक्ट-चेक इकाई द्वारा इंगित किसी भी सूचना को हटाने का विकल्प चुनेंगे, बजाय अपने सुरक्षा कवच को गंवाने का जोखिम उठाने के.

कामरा आगे कहते हैं कि विवादित नियम सरकार को विचारों का एकमात्र निगरानीकर्ता बना देता है और इस तरह से संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) का साफ तौर पर उल्लंघन करता है. विवादित नियम इसे केंद्र सरकार की निजी संतुष्टि पर छोड़ देता है, जो अपने सिवाय किसी के प्रति भी जवाबदेह नहीं है.

सरकार के पास सबसे बड़ा भोंपू है. अपने कामकाज को लेकर फर्जी या भ्रामक खबरों से पीड़ित सरकार के पास समुचित कार्रवाई करने के लिए हर उपलब्ध बुनियादी ढांचा है और इसकी पहुंच का कोई सानी नहीं है. पुराना तर्क कि किसी अभिव्यक्ति का इलाज जवाबी अभिव्यक्ति है, सरकार पर किसी व्यक्ति की तुलना में कहीं ज्यादा शिद्दत से लागू होता है.

अनुच्छेद 19(2) की संगति में नहीं 

यह एक मान्य विचार है कि संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में दिए गए आधारों के अलावा अभिव्यक्ति पर किसी भी अन्य तरह से पाबंदी नहीं लगाई जा सकती.

कामरा की दलील है कि यहां तक कि अगर विवादित नियम अनुच्छेद 19(2) की संगति में भी है, तो भी यह आनुपातिकता के सवाल पर असफल हो जाता है. आनुपातिकता के मानदंड की एक अहम शर्त यह है कि ‘सबसे कम प्रतिबंधात्मक’ विकल्प को चुना जाना चाहिए. यहां कई कम प्रतिबंधात्मक विकल्प गिनाए जा सकते हैं- मसलन, किसी ऐसी सूचना के मामले में जिसे सरकार अपने कामकाज के संबंध में ‘गलत’ मानती है, सरकार द्वारा स्पष्टीकरण या सुधार जारी किया जाए. ये सोशल मीडिया इंटरमीडियरीज पर यूजर्स से उनकी सामग्री हटवाने का दायित्व डालने से कम प्रतिबंधात्मक है.

अनुच्छेद 19 (1) जी पर हमला

विवादित नियम अनुच्छेद 19 (1) जी द्वारा दिए गए अधिकारों पर अतार्किक और अतिशयोक्तिपूर्ण पाबंदी लगाता है और इसे अनुच्छेद 19 (6) का संरक्षण हासिल नहीं है.

कामरा का कहना है कि एक राजनीतिक व्यंग्यकार (political satirist) होने के नाते वे अनिवार्य रूप से केंद्र सरकार और इसके लोगों को लेकर टिप्पणी करते हैं और अपने काम को साझा करने के लिए इंटरनेट और सोशल मीडिया मंचों का इस्तेमाल करते हैं. अगर केंद्र द्वारा गठित किसी इकाई द्वारा उनकी सामग्री का मनमाने और व्यक्तिनिष्ठ तरीके से फैक्ट-चेक किया जाएगा, तो राजनीतिक व्यंग्य कर सकने की उनकी क्षमता अतार्किक तरीके से कम हो जाएगी. इसलिए उनका कहना है कि व्यंग्य की अपनी प्रकृति ऐसी है कि उसे ऐसी किसी फैक्ट-चेक कवायद से नहीं गुजारा जा सकता है. यह राजनीतिक व्यंग्य के असली मकसद पर ही पानी फेर देगा, अगर इसकी जांच खुद केंद्र सरकार द्वारा ही जाएगी और इसे ‘फर्जी, झूठा और भ्रामक’ होने के आधार पर सेंसर किया जाएगा.

विवादित नियम के तहत कार्रवाई के डर से राजनीतिक व्यंग्यकार अपना सेंसर खुद करने लगेंगे या राजनीतिक टिप्पणी से बचना चाहेंगे. राजनीतिक व्यंग्यकार/ हास्य कलाकार अपनी कला को मुख्य तौर पर सोशल मीडिया मंचों के जरिये साझा करते हैं. कामरा की दलील है कि अगर इस मीडिया तक पहुंच को केंद्र सरकार द्वारा प्रतिबंधित किया जाएगा या उस पर पहरा बैठाया जाएगा, तो यह अपने पेशे/व्यापार को करने के संविधान द्वारा गारंटीकृत उनके अधिकार को अतार्किक तरीके से प्रतिबंधित करेगा.

अनुच्छेद 14 का उल्लंघन

केंद्र सरकार के कामकाज से संबंध रखने वाली सामग्री पर केंद्र सरकार को ही अंपायर बनाने वाले विवादित नियम किसी व्यक्ति या संस्था (इस मामले में सरकार) को अपने ही मामले में ही वकील और जज दोनों ही बनाने का अच्छा उदाहरण है. यह साफ तौर पर मनमाना, कानून के शासन के खिलाफ और नैसर्गिक न्याय के सबसे ज्यादा बुनियादी सिद्धांतों में से एक का उल्लंघन है और यह स्वाभाविक तौर पर एक ऐसी स्थिति बनाएगा जहां खासतौर पर सरकार की आलोचना करने वाली सामग्री पर सरकार द्वारा ही नियुक्त फैक्ट-चेकर्स द्वारा ‘भ्रामक’ करार दिए जाने का खतरा हमेशा रहेगा.

कामरा की दलील है कि विवादित नियमों में इसके पूर्ण दुरुपयोग और इसके मनमाने और तर्कविरुद्ध तरीके से इस्तेमाल किए जाने की संभावना है.

कामरा आगे कहते हैं कि ये विवादित नियम पूरी तरह से अतार्किक और कानून के शासन के खिलाफ है क्योंकि यह एक संस्था (केंद्र सरकार) को एक ऐसा विशेषाधिकार दे देता है, जो किसी और को नहीं मिला है (इसमें राज्य और स्थानीय सरकारें भी शामिल हैं). सिर्फ केंद्र सरकार के पास ही अपने फैक्ट-चेकर्स के फैसले के आधार पर किसी से उसके कहे-लिखे को सेंसर या संशोधित करवाने की शक्ति है. किसी दूसरी सरकार या किसी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं दिया गया है. यह ‘वर्गीय कानून’ (class legislation) बनाने जैसा है ( जहां केंद्र सरकार विशेषाधिकार वर्ग है) जिसका प्रतिषेध करने का दायित्व अनुच्छेद 14 का काम है.

विवादित नियम पूरी तरह से मनमाने और नैसर्गिक न्याय के बुनियादी सिद्धातों के विपरीत है क्योंकि यह किसी कंटेंट के फर्जी, झूठा या भ्रामक होने को लेकर किए जाने वाले फैसले से पहले यूजर को अपना पक्ष रखने का मौका नहीं देता है. विवादित नियम इसलिए भी अतार्किक है, क्योंकि इसमें केंद्र सरकार के विवेकाधीन फैसले से बचाव का कोई प्रावधान नहीं है. कामरा ने अपनी याचिका में कहा है कि इसमें ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया गया है जिसके द्वारा यूजर अपना पक्ष रखने या किसी कोर्ट के सामने फैसले को चुनौती देने का अधिकार दिया गया हो.

कामरा का कहना है कि विवादित नियम सिर्फ और सिर्फ न्यायालयों को दी गई भूमिका: विवादों की मध्यस्थता, जिनमें सरकार और नागरिकों के बीच विवाद शामिल है, और ऐसे विवादों के संदर्भ में तथ्य को स्थापित करने के एकमात्र अधिकार का अतिक्रमण करता है. कामरा का दावा है कि विवादित नियम संविधान के तहत सिर्फ न्यायालयों को सौंपी गई भूमिका को केंद्र सरकार द्वारा कब्जाने का काम करता है.

सार्वजनिक मशविरे का स्वांग

केंद्र सरकार ने 17 जनवरी को इंटरमीडियरी गाइडलाइंस एंड डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड एमेंडमेंट रूल्स के प्रस्तावित ड्राफ्ट को सार्वजनिक परामर्श के लिए जारी किया. कई हितधारकों ने इसको लेकर गंभीर और सुविचारित आपत्तियां दर्ज कराईं. फिर भी केंद्र सरकार ने बेहद मामूली (जिनका कोई महत्व नहीं है) संशोधनों के साथ नियमों को अधिसूचित कर दिया. इसलिए अतिगंभीर हालात और केंद्र से न्याय की किसी गुहार की निरर्थकता को देखते हुए याचिका में हाईकोर्ट से तत्काल इस मामले में हस्तक्षेप करने की मांग की गई है.

विवादित नियमों पर स्टे लगाने के आधारों को जायज ठहराते हुए कामरा ने यह संकेत दिया है कि तर्क का पलड़ा उनके पक्ष में और सरकार के खिलाफ झुका हुआ है.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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