सुप्रीम कोर्ट ने एक दशक से अधिक लंबे अंतराल के बाद स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण को लागू करने के लिए दिए गए वचन का उल्लंघन करने के लिए नगालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो, राज्य के मुख्य सचिव और आदिवासी नेताओं को नोटिस जारी किया है.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बीते सोमवार को नगालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो, राज्य के मुख्य सचिव और आदिवासी नेताओं को नगालैंड नगरपालिका अधिनियम को निरस्त करने और एक दशक से अधिक लंबे अंतराल के बाद स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण को लागू करने के लिए दिए गए वचन का उल्लंघन करने के लिए नोटिस जारी किया है.
राज्य विधानसभा ने 29 मार्च को 2001 के कानून को निरस्त कर दिया था, जिसके कारण अगले महीने होने वाले नगरपालिका चुनाव को रद्द करना पड़ा.
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, इससे पहले इसने पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीए) की जनहित याचिका में सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के भाग 9A का पालन करने का वचन दिया था, जो नगर निकायों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करता है. यह 14 मार्च को पारित एक आदेश में दर्ज किया गया था.
जस्टिस संजय किशन कौल और अरविंद कुमार की पीठ ने राज्य द्वारा अपनाए गए ‘चतुर’ तरीके को उसके 14 मार्च के आदेश का स्पष्ट उल्लंघन पाया, जिसमें 36 नगर परिषदों और तीन नगर पालिकाओं के चुनाव का निर्देश दिया गया था.
पीठ ने कहा, ‘इस बात पर ध्यान देने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि जो किया गया है, वह इस न्यायालय के आदेश का उल्लंघन है.’
यह आदेश पीयूसीएल द्वारा अदालत को सूचित किए गए एक आवेदन पर आया है, जिसमें आदिवासी समूहों द्वारा स्थानीय निकाय चुनावों का बहिष्कार करने की धमकी के विरोध में राज्य द्वारा महिला आरक्षण के कार्यान्वयन को विफल करने के प्रयास के बारे में सूचित किया गया था.
पीयूसीएल के आवेदन में अदालत के आदेश को लागू नहीं करने के लिए मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव, राज्य चुनाव आयुक्त और आदिवासी समूहों के प्रमुखों को अवमानना नोटिस जारी करने की मांग की गई थी.
पीठ ने राज्य चुनाव आयुक्त को छोड़कर सभी व्यक्तियों को नोटिस जारी करने का निर्देश दिया. पीठ ने कहा, ‘चुनाव आयोग क्या कर सकता है? उन्होंने (राज्य सरकार) सबको निराश किया है.’
इस मामले को 1 मई तक के लिए स्थगित करते हुए पीठ ने केंद्र से जवाब मांगा कि क्या राज्य का इस तरह से कार्य करना उचित था, जब संविधान के तहत इसे लागू नहीं करने का कोई औचित्य नहीं है.
पीठ ने कहा, ‘केंद्र किसी देश के एक हिस्से को, खासकर आत्मसात करने की प्रक्रिया में, संवैधानिक योजना के खिलाफ नहीं जाने दे सकता. आपको एक समाधान खोजना होगा.’
हिंदुस्तान टाइम्स के अनुसार, केंद्र की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज ने अदालत को बताया कि राज्य ने संविधान के अनुच्छेद 371ए का बचाव किया है. यह नगालैंड के लिए विशेष प्रावधानों से संबंधित है, जहां नगाओं की धार्मिक या सामाजिक प्रथाओं, नगा प्रथागत कानून और प्रक्रिया, नागरिक और आपराधिक न्याय के प्रशासन और भूमि तथा उसके संसाधनों के स्वामित्व और हस्तांतरण के संबंध में संसद का कोई भी अधिनियम सिर्फ राज्य विधानसभा द्वारा अपनाए गए एक संकल्प द्वारा लागू होगा.
पीठ ने अपने आदेश में कहा, ‘हम चाहते हैं कि केंद्र अपना पक्ष रखे कि क्या उसकी राय में नगर पालिकाओं और नगर परिषदों में एक तिहाई आरक्षण की संवैधानिक योजना का नगालैंड सरकार द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया से उल्लंघन किया जा सकता है.’
पीठ ने कहा, ‘हम भारत के संविधान के अनुच्छेद 371ए के संदर्भ में ऐसा कहते हैं, क्योंकि अब तक ऐसा कुछ भी सामने नहीं आया है, जिससे यह तर्क दिया जा सके कि धार्मिक या सामाजिक प्रथाएं या प्रथागत कानून महिला आरक्षण से इनकार करेंगे.’
इस दौरान नगालैंड के महाधिवक्ता केएन बालगोपाल ने अदालत से आखिरी मौका मांगा.
उन्होंने कहा, ‘बातचीत का माहौल है, जहां हम आदिवासी नेताओं को समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि भाग 9A के हिस्से के रूप में आरक्षण को लागू करना राज्य के विकास के हित में है, क्योंकि इसे अनुदान मिलेगा.’
उन्होंने यह भी जोड़ा कि यह मुद्दा पुरुष बनाम महिलाओं का नहीं था, क्योंकि 15 आदिवासी समूहों में से आठ ने कानून में कुछ विसंगतियां उठाई हैं, जहां उन्हें आशंका है कि महिलाएं विरासत के अधिकारों के साथ छेड़छाड़ कर सकती हैं.
राज्य का विरोध करते हुए पीयूसीएल के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता कॉलिन गोंजाल्विस ने प्रस्तुत किया, ‘इस बात का कोई सबूत नहीं है कि महिलाओं के लिए आरक्षण प्रथागत नगा परंपरा में हस्तक्षेप करता है.’
पीठ ने राज्य के रुख पर भी चिंता जताई. उसने कहा, ‘आप सभी को खुश नहीं रख सकते. हर चरण में जब आप किसी परिणाम की ओर पहुंचते हैं, तो कोई न कोई आपत्ति जताता ही है.’
यह कहते हुए कि राज्य का कदम महिला सशक्तिकरण को हराने के इरादे से किया गया है, पीठ ने राज्य से कहा, ‘सशक्तिकरण शिक्षा, विरासत और राजनीतिक भागीदारी से आता है. समाज का एक वर्ग ऐसा भी है, जिसमें पुरुष का वर्चस्व है. यदि राजनीतिक सहमति नहीं बनती है, तो हम कानून को कमजोर कैसे होने दे सकते हैं?’
हिंदुस्तान टाइम्स के अनुसार, नगालैंड के महाधिवक्ता बालगोपाल ने अदालत से कहा कि आदिवासी समूहों द्वारा किसी भी बहिष्कार को गंभीरता से लिया जाना चाहिए, क्योंकि इसका परिणाम हिंसा और रक्तपात हो सकता है, जिससे राज्य बचना चाहता है.
इस पर अदालत ने राज्य को याद दिलाया कि हर चुनाव में हिंसा का खतरा रहता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि चुनाव नहीं होंगे.
पीयूसीएल चाहता था कि 29 मार्च को राज्य विधानसभा द्वारा कानून को रद्द करने के आदेश और नगालैंड चुनाव आयोग द्वारा जारी 30 मार्च के आदेश में चुनाव कार्यक्रम को रद्द कर दिया जाए.
शीर्ष अदालत ने 5 अप्रैल को 30 मार्च के आदेश पर रोक लगा दी थी, लेकिन अधिनियम लागू नहीं होने के कारण चुनाव प्रक्रिया नहीं हो सकी.
होहोस के रूप में जाने जाने वाले आदिवासी प्रमुखों ने गारंटी मांगी कि ‘33 प्रतिशत महिला आरक्षण अनुच्छेद 371ए का उल्लंघन नहीं करता है’ और प्रस्तावित किया कि 33 प्रतिशत महिला आरक्षण के आवेदन की अवधि या समय अवधि तय की जानी चाहिए.
उनकी इच्छा थी कि ऐसा आरक्षण दो कार्यकाल से अधिक नहीं होना चाहिए. होहोस ने मांग की, ‘जब तक नगालैंड म्युनिसिपल एक्ट 2001 की समीक्षा और पुनर्लेखन नहीं किया जाता, तब तक शहरी स्थानीय निकाय चुनाव टाले जा सकते हैं.’