एनसीईआरटी किताब में आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को ‘अलगाववाद’ समर्थक बताने पर अकाली दल की आपत्ति

एनसीईआरटी की कक्षा 12वीं की राजनीति विज्ञान की किताब में 1973 के आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को अलगाववादी दस्तावेज़ के रूप में चित्रित करने पर आपत्ति जताई गई है. शिरोमणि अकाली दल की ओर से कहा गया है कि प्रस्ताव केवल संवैधानिक ढांचे के भीतर संघवाद को बढ़ावा देने की मांग करता है.

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एनसीईआरटी की कक्षा 12वीं की राजनीति विज्ञान की किताब, जिसके हिस्सों पर आपत्ति जताई गई है. (फोटो साभार: एनसीईआरटी)

एनसीईआरटी में कक्षा 12वीं की राजनीति विज्ञान की किताब में 1973 के आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को अलगाववादी दस्तावेज़ के रूप में चित्रित करने पर आपत्ति जताई गई है. शिरोमणि अकाली दल की ओर से कहा गया है कि प्रस्ताव केवल संवैधानिक ढांचे के भीतर संघवाद को बढ़ावा देने की मांग करता है.

एनसीईआरटी की कक्षा 12वीं की राजनीति विज्ञान की किताब, जिसके हिस्सों पर आपत्ति जताई गई है. (फोटो साभार: एनसीईआरटी)

चंडीगढ़: पंजाब में शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) और अन्य सिख निकायों ने एनसीईआरटी की कक्षा 12वीं की राजनीति विज्ञान की किताब में 1973 के आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को अलगाववादी दस्तावेज के रूप में चित्रित करने पर कड़ी आपत्ति जताई है.

इसका उल्लेख किताब के अध्याय 7 ‘स्वतंत्रता के बाद से भारत में राजनीति’ में किया गया है. अलगाववादी दस्तावेज के रूप में आनंदपुर साहिब प्रस्ताव का उल्लेख किताब के पहले संस्करणों में भी किया गया था, शिरोमणि अकाली दल ने अब इस मुद्दे को उठाया है, क्योंकि एनसीईआरटी के संशोधनों की कड़ी आलोचना हुई है.

भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद, महात्मा गांधी, आरएसएस, गुजरात दंगों और मुगल साम्राज्य से संबंधित सामग्री को हटाने जाने को लेकर भी विवाद हुए हैं.

अकाली दल के वरिष्ठ नेता दलजीत चीमा ने द वायर को बताया कि पार्टी के लिए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ऐसा चित्रण किताब के पहले के संस्करणों में भी मौजूद था. तथ्य यह है कि आनंदपुर साहिब प्रस्ताव की गलत व्याख्या की गई थी. यह हमारे लिए अस्वीकार्य है, क्योंकि यह सिखों को बदनाम करने की साजिश का संकेत देता है.

उन्होंने कहा, ‘जब मामला हमारे ध्यान में आया, तो हमने तुरंत इसे सामने रखा और केंद्रीय शिक्षा मंत्री से वास्तविक स्थिति के साथ इसे संशोधित करने की मांग की है.’

आनंदपुर साहिब प्रस्ताव आधुनिक सिख इतिहास में सबसे अधिक इस्तेमाल किए जाने वाले दस्तावेजों में से एक है. इस प्रस्ताव को अकाली दल के धार्मिक और राजनीतिक लक्ष्य हैं.

इसे अक्टूबर 1973 में गुरु गोबिंद सिंह के पवित्र शहर आनंदपुर साहिब में आयोजित एक बैठक में शिरोमणि अकाली दल की कार्य समिति द्वारा अपनाया गया था। यह बाद में आनंदपुर साहिब प्रस्ताव के रूप में लोकप्रिय हो गया.

किताब में कहा गया है कि 1970 के दशक के दौरान जैसे अकाली दल की राजनीतिक स्थिति अनिश्चित बनी रही, अकालियों का एक वर्ग इस क्षेत्र के लिए राजनीतिक स्वायत्तता की मांग करने लगा. यह 1973 में आनंदपुर साहिब में उनके सम्मेलन में पारित एक प्रस्ताव में परिलक्षित हुआ.

पुस्तक में कहा गया है, ‘प्रस्ताव संघवाद को मजबूत करने के लिए एक आवेदन था, लेकिन इसकी व्याख्या एक अलग सिख राष्ट्र के लिए एक याचिका के रूप में भी की जा सकती है.’ वाक्य के दूसरे हिस्से को लेकर सिख निकायों ने नाराजगी जताई है.

चीमा ने द वायर को बताया कि दस्तावेज देश की एकता और अखंडता के लिए खड़ा था और केवल संवैधानिक ढांचे के भीतर संघवाद को बढ़ावा देने की मांग करता था, यह एक ऐसा मुद्दा है, जो आज भी प्रासंगिक है.

किताब में आगे कहा गया है कि 1973 में पारित होने के बाद इस प्रस्ताव की सिख जनता के बीच एक सीमित अपील थी.

इसमें कहा गया है,

‘कुछ वर्षों बाद 1980 में अकाली सरकार की बर्खास्तगी के बाद अकाली दल ने पंजाब और उसके पड़ोसी राज्यों के बीच पानी के वितरण के सवाल पर एक आंदोलन शुरू किया. धार्मिक नेताओं के एक वर्ग ने स्वायत्त सिख पहचान का सवाल उठाया. चरमपंथी तत्वों ने भारत से अलगाव और ‘खालिस्तान’ के निर्माण की वकालत शुरू कर दी.’

जान-बूझकर सिख समुदाय को अलगाववादी के रूप में चित्रित किया गया

अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने 14 अप्रैल को एक बयान में कहा कि आनंदपुर साहिब प्रस्ताव के ‘अपमानजनक संदर्भ’ ने ‘जान-बूझकर देशभक्त सिख समुदाय को अलगाववादी के रूप में चित्रित किया है’.

उन्होंने कहा, ‘आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को संघीय ढांचे के आह्वान के रूप में संसद द्वारा अनुमोदित किया गया था, भारत सरकार द्वारा स्वीकार किया गया था, सरकारिया आयोग को संदर्भित किया गया था, इसकी सिफारिशों को लागू किया गया था.’

इससे पहले ऐतिहासिक गुरुद्वारों के प्रबंधन के लिए जिम्मेदार एक सिख निकाय शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) ने भी प्रस्ताव को लेकर किताब में किए गए चित्रण की निंदा की थी.

क्या कहते हैं विशेषज्ञ

द वायर ने इस बारे में कुछ विशेषज्ञों से बात की, जिनका यह विचार था कि अकाली दल द्वारा अपनाए गए प्रस्ताव में अलगाववादी लहजा नहीं था.

गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में इतिहास के पूर्व प्रोफेसर सुखदेव सिंह सोहल ने बताया कि प्रस्ताव ऐसे समय में पारित किया गया था, जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस देश में एक प्रमुख स्थिति बना रही थी, जिससे विपक्षी दलों के लिए बहुत कम राजनीतिक जगह बची थी.

सोहल ने कहा कि इस संदर्भ में अकाली दल ने राज्यों के लिए अधिक स्वायत्तता की मांग करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया, जिसने किसी भी तरह से पंजाब को भारत संघ से अलग करने की मांग नहीं की.

सोहल ने कहा कि प्रस्ताव में कुछ विचार दूर की कौड़ी लग सकते हैं, लेकिन इसका मुख्य फोकस धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना था. उन्होंने कहा कि यह सत्ता का विकेंद्रीकरण भी सुनिश्चित करना चाहता है, ताकि भारतीय संवैधानिक ढांचे को वास्तविक संघीय आकार दिया जा सके.

सोहल ने कहा कि यह विचार आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि आज का राजनीतिक माहौल 70 के दशक जैसा ही है. उन्होंने कहा कि जैसा कि इंदिरा गांधी के समय में देखा गया, केंद्रीय सत्ता का एक समान प्रभुत्व है.

राजनीतिक टिप्पणीकार और चंडीगढ़ में विकास और संचार संस्थान के निदेशक प्रमोद कुमार का विचार है कि भारत में इतिहास लेखन के साथ समस्या यह है कि यह हमेशा साक्ष्य आधारित नहीं होता है.

उन्होंने कहा कि जहां तक आनंदपुर साहिब प्रस्ताव का संबंध है, विभिन्न सिख गुटों द्वारा तीन संस्करण पेश किए गए थे. एक ने अधिक स्वायत्तता मांगी, जो मुख्यधारा के अकाली दल का दृष्टिकोण था. एक अन्य गुट भारत को राज्यों का संघ बनाना चाहता था और प्रस्ताव के तीसरे संस्करण में एक अलगाववादी एजेंडा अपनाया गया था.

उन्होंने कहा, ‘किताब में आनंदपुर साहिब के इन तीनों संस्करणों का उल्लेख होना चाहिए था और प्रत्येक संस्करण को संबंधित राजनीतिक समूहों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए था. अगर इसका उल्लेख नहीं है, तो यह गलत व्याख्या है.’

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