गुजरात में अहमदाबाद के नरोदा गाम में 28 फरवरी 2002 को सांप्रदायिक दंगे के दौरान 11 लोगों की हत्या कर दी गई थी. इस मामले में 86 आरोपी बनाए गए थे, जिनमें गुजरात सरकार की पूर्व मंत्री माया कोडनानी और बजरंग दल के पूर्व नेता बाबू बजरंगी भी शामिल थे. नरोदा गाम में नरसंहार उस साल के नौ बड़े सांप्रदायिक दंगा मामलों में से एक था.
अहमदाबाद: 28 फरवरी 2002 को अहमदाबाद के नरोदा गाम में हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान 11 लोगों की हत्या किसने की, कोई नहीं जानता. ऐसा इसलिए क्योंकि नरसंहार के 21 साल बाद गुरुवार (20 अप्रैल) को इस मामले में गुजरात में भारतीय जनता पार्टी की पूर्व मंत्री माया कोडनानी, बजरंग दल के पूर्व नेता बाबू बजरंगी और विश्व हिंदू परिषद के नेता जयदीप पटेल सहित सभी 67 आरोपी बरी हो गए हैं.
बचाव पक्ष के एक वकील ने अदालत के बाहर मीडिया से कहा, ‘सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया है. हम फैसले की प्रति का इंतजार कर रहे हैं.’
यहां तक कि आरोपियों के रिश्तेदारों सहित अदालत के बाहर जमा भीड़ ने ‘जय श्री राम’ और ‘भारत माता की जय’ के नारों के साथ फैसले का स्वागत किया.
इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, 2002 के गुजरात दंगों के मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए गठित विशेष रूप से नामित अदालत ने बीते 5 अप्रैल को सुनवाई पूरी की थी. मामले में 86 अभियुक्तों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल किया गया था, 18 की सुनवाई के दौरान मौत हो गई थी और एक को आरोप मुक्त कर दिया गया था.
इस तरह 67 अभियुक्तों को मुकदमे का सामना करना पड़ा था. बृहस्पतिवार को 67 आरोपियों में से 65 कोर्ट रूम में मौजूद थे.
28 फरवरी 2002 को अहमदाबाद के नरोदा गाम क्षेत्र में मुस्लिम मोहल्ला, कुंभार वास नामक इलाके में भीड़ द्वारा उनके घरों में आग लगाने के बाद 11 मुसलमानों को जलाकर मार डाला गया था. नरोदा थाने में एफआईआर दर्ज की गई थी.
आरोपी भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 (हत्या), 307 (हत्या का प्रयास), 143 (गैरकानूनी सभा), 147 (दंगा), 148 (घातक हथियारों से लैस दंगा), 120बी (आपराधिक साजिश) और 153 (दंगों के लिए उकसाना) समेत अन्य धाराओं के तहत आरोपों का सामना कर रहे थे. इन अपराधों के लिए अधिकतम सजा मौत है.
विशेष जांच एजेंसी (एसआईटी) मामलों के विशेष न्यायाधीश एसके बख्शी की अदालत ने गुरुवार को फैसला सुनाया.
अभियोजन पक्ष और बचाव पक्ष ने 2010 में शुरू हुए मुकदमे के दौरान क्रमश: 187 और 57 गवाहों से पूछताछ की. मामला लगभग 13 वर्षों तक चला, जिसमें छह जजों ने मामले पर सुनवाई की. गृह मंत्री अमित शाह 2017 में कोडनानी के बचाव पक्ष के गवाह के रूप में पेश हुए थे.
कोडनानी ने अदालत से अनुरोध किया था कि उन्हें (शाह) यह साबित करने के लिए बुलाया जाए कि वह गुजरात विधानसभा में और बाद में सोला सिविल अस्पताल में मौजूद थीं, न कि नरोदा गाम में जहां नरसंहार हुआ था.
अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किए गए सबूतों में पत्रकार आशीष खेतान द्वारा किए गए एक स्टिंग ऑपरेशन का वीडियो और प्रासंगिक अवधि के दौरान कोडनानी, बजरंगी और अन्य के कॉल विवरण शामिल थे.
जब मामले में ट्रायल शुरू हुई, तब एसएच वोरा पीठासीन जज थे. उन्हें गुजरात हाईकोर्ट में पदोन्नत किया गया था. उनके उत्तराधिकारी ज्योत्सना याग्निक, केके भट्ट और पीबी देसाई ट्रायल के दौरान रिटायर हो गए. इनके बाद आने वाले विशेष न्यायाधीश एमके दवे का तबादला हो गया था.
एक निचली अदालत ने नरोदा पाटिया मामले में गुजरात सरकार में मंत्री रहीं माया कोडनानी और बाबू बजरंगी दोनों को दोषी ठहराया था और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. हालांकि गुजरात हाईकोर्ट ने साल 2018 में कोडनानी की सजा को पलटते हुए उन्हें बरी कर दिया था और नरोदा पाटिया मामले में बाबू बजरंगी की सजा को बरकरार रखा था.
नरोदा गाम में नरसंहार 2002 के नौ बड़े सांप्रदायिक दंगों के मामलों में से एक था, जिसकी एसआईटी ने जांच की और विशेष अदालतों ने सुनवाई की.
नानावटी आयोग के निष्कर्ष
गुजरात दंगों की जांच करने वाले जस्टिस नानावटी आयोग ने गवाहों के बयान दर्ज किए थे कि ‘मुसलमानों को कोई पुलिस सहायता नहीं मिली और वे केवल उपद्रवियों की दया पर निर्भर थे’ और यह कि ‘पुलिस की मदद केवल शाम को पहुंची.’
हालांकि, कई पुलिस अधिकारियों ने आयोग के सामने गवाही दी कि वे नरोदा गाम नहीं पहुंच पाए, क्योंकि वे नरोदा पाटिया में अधिक गंभीर स्थिति संभाल रहे थे, जो उसी समय उत्पन्न हो रही थी.
आयोग ने पाया था कि ‘मौके पर पुलिस बल अपर्याप्त था’ और यह कि पुलिस ‘के पास स्थिति से निपटने के लिए पर्याप्त संसाधन भी नहीं थे.’
आयोग ने निष्कर्ष निकाला था कि ‘यह नहीं कहा जा सकता है कि उन्होंने जान-बूझकर घटना को होने दिया.’
नरसंहार में राजनीतिक शख्सियतों की संलिप्तता के संबंध में आयोग ने कहा था, ‘न केवल इलाके के निवासियों बल्कि वहां मौजूद पुलिस ने भी कहा है कि विहिप, बजरंग दल और भाजपा के नेताओं ने सक्रिय रूप से इन घटनाओं में भाग लिया और उनकी शह पर इस क्षेत्र में दंगे हुए.’
हालांकि, आयोग ने कहा था, ‘चूंकि ऊपर नामित नेताओं के दोषारोपण के संबंध में मुद्दा न्यायिक मंचों की जांच के अधीन है, इसलिए इस आयोग के लिए यह उचित नहीं है कि वह इस पर कोई राय व्यक्त करे.’
(यह लेख मूल रूप से वाइब्स ऑफ इंडिया पर प्रकाशित हुआ था. इसे अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)