दिल्ली विश्वविद्यालय की नियुक्तियों में एक प्रकार का संहार अभियान चल रहा है

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज के अध्यापक समरवीर सिंह की आत्महत्या से उस गहरी बीमारी का पता चलता है जो दिल्ली विश्वविद्यालय को, उसके कॉलेजों को बरसों से खोखला कर रही है; कि स्थायी नियुक्ति का आधार योग्यता नहीं, भाग्य और सही जगह पहुंच है.

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दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज के अध्यापक समरवीर सिंह की आत्महत्या से उस गहरी बीमारी का पता चलता है जो दिल्ली विश्वविद्यालय को, उसके कॉलेजों को बरसों से खोखला कर रही है; कि स्थायी नियुक्ति का आधार योग्यता नहीं, भाग्य और सही जगह पहुंच है.

डीयू के हिंदू कॉलेज में शिक्षक रहे समरवीर सिंह. (फोटो साभार: फेसबुक)

हिंदू कॉलेज के अध्यापक समरवीर सिंह की आत्महत्या से मृत्यु की खबर के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में तूफ़ान आ जाना चाहिए था. लेकिन वह नहीं हुआ.समरवीर सिंह को आख़िर अध्यापक क्यों कहें, वे अस्थायी अध्यापक ही तो थे! इसलिए शायद यह दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ का मामला भी नहीं बनता. हालांकि अस्थायी अध्यापक उसके सदस्य होते हैं और वे ही विभिन्न शिक्षक गुटों के मतदाता भी होते हैं. लेकिन जैसे इस देश के जनतंत्र को किसी मतदाता की अस्वाभाविक मृत्यु से फ़र्क नहीं पड़ता, वैसे ही दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ को भी समरवीर सिंह की आत्महत्या से क्यों पड़ना चाहिए?

हिंदू कॉलेज के छात्र भी एक दूसरे विरोध में व्यस्त थे इसलिए अपने अध्यापक की इस मौत पर सोचने का शायद उन्हें वक़्त न मिला हो. उनके सालाना जश्न पर प्रशासन ने कई पाबंदियां लगा दी थीं और वे उसके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. मालूम नहीं उन्होंने अपने इस जश्न की शुरुआत अपने इस ‘अभाग्यशाली’ अध्यापक के लिए मौन के साथ की या नहीं!

वे अस्थायी शिक्षक भी ख़ामोश रहे जो कुछ साल पहले तक ख़ुद को नियमित कराने को लेकर सड़क पर थे. अब उनमें से प्रायः सब एक कॉलेज से दूसरे कॉलेज दौड़ रहे हैं. विरोध की फुर्सत उनके पास नहीं. स्थायी नियुक्तियों का दौर चल रहा है और सब अपना भाग्य आजमा रहे हैं. उनमें से ज़्यादातर का भाग्य उनका साथ नहीं दे रहा. जैसा हिंदू कॉलेज में समरवीर सिंह के साथ हुआ. इसी से उस गहरी बीमारी का पता चलता है जो दिल्ली विश्वविद्यालय को, उसके कॉलेजों को बरसों से खोखला कर रही है. योग्यता नहीं; भाग्य और सही जगह पहुंच, यह आधार है स्थायी नियुक्ति का.

किसी पद के उम्मीदवार का ‘सोर्स’ कितना तगड़ा है, इससे तय होगा कि उसकी नियुक्ति दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज में होगी या नहीं. कोई कह सकता है कि यह आज की ही बात नहीं. अरसे से हम यह देख रहे हैं. पहुंच के साथ योग्यता हो तो सोने पर सुहागा, लेकिन असल चीज़ है पहुंच.

अस्थायी अध्यापक के लिए एक दूसरी उम्मीद सिर्फ़ कॉलेज के प्राचार्य से है. वह कितना प्रभावशाली है, कितना ताकतवर है और अपनी ताक़त का कितना उपयोग सालों से बिना किसी स्थायी आश्वासन के अपने कॉलेज को चला रहे इन अस्थायी अध्यापकों के हित के लिए करना चाहता है.

यह भी हमारे लिए राहत की बात है कि हमने स्थायी नियुक्ति के इस मौसम में एक ही ख़ुदकुशी देखी है. समरवीर की तरह सैकड़ों अस्थायी अध्यापक हैं जो अपनी जगह छिनते हुए देख रहे हैं और असहाय हैं. ये सब सालों से अस्थायी तौर पर अध्यापन करते रहे हैं. हर सत्र के बाद नए सिरे से अस्थायी नियुक्ति हासिल करने की असुरक्षा झेलते हुए इन्हें लंबा वक्त गुजर गया है. अब जब स्थायी नियुक्ति की बारी आई है, इनका जीवन, भाग्य और संयोग की पतली डोरी से झूल रहा है.

क्यों समरवीर ने वह निर्णय किया होगा? इसलिए कि जिस कॉलेज में आप बरसों से पढ़ा रहे हैं, अगर वहां आपका चुनाव नहीं हुआ तो किसी दूसरे कॉलेज में होना नामुमकिन है. यह बात सब जानते हैं और कम से कम अब तो हमें इस मामले में खुलकर बात करनी चाहिए. वह बात जो खुला भेद है लेकिन हर कोई नाटक कर रहा है जैसे उसे कुछ मालूम नहीं.

पिछले दो महीनों से ख़ुद मेरे पास मेरे पुराने विद्यार्थी, जो 8-10 साल से अस्थायी तौर पर पढ़ा रहे हैं, आकर अपने इंटरव्यू का ब्योरा दे चुके हैं. इंटरव्यू बेमानी हैं. अमूमन 2-3 मिनट, अधिकतम 5 मिनट तक चलने वाले इंटरव्यू से निकलने के बाद अपमानित महसूस करते हैं. उनमें से कुछ के छात्रों का चुनाव उनकी जगह पर हो गया है. उनसे कई साल कनिष्ठ उम्मीदवारों का चयन भी हुआ है. क्या उनसे अधिक योग्य थे? यह उसी 2 मिनट में कैसे पता किया गया होगा?

उत्तर है, योग्यता आधार नहीं है. जिस कॉलेज में प्राचार्य ने ठान लिया कि वह अपने यहां अस्थायी तौर पर पढ़ा रहे अध्यापकों को विस्थापित नहीं होने देगा, वहां वे बच गए. लेकिन यह भी हुआ कि प्राचार्य की प्रतिबद्धता उनमें से कुछ विशेष के प्रति है, तो बाक़ी अस्थायी अध्यापक बाहर होने को अभिशप्त हैं.

मेरे पास एक अस्थायी अध्यापक के पिता का फोन आया. वे यह विश्वास नहीं कर पा रहे थे कि जिस कॉलेज में उनकी बेटी 8 साल से पढ़ा रही थी, जिसके शोध पत्र प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं, उसे इंटरव्यू में योग्य नहीं पाया गया. जिसे उसकी जगह लिया गया, वह ख़ुद जानती है कि यह उसकी पहुंच के कारण हुआ. पिता क्षुब्ध थे. उन्हें यथार्थ के परिचय ने ज़मीन पर ला पटका था. वे भारतीय सेना में ऊंचे ओहदे पर रह चुके हैं. उन्हें यक़ीन नहीं हो रहा था कि दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रतिभा की नहीं, किसी और देवी की पूजा होती है.

अभ्यर्थी कहते हैं कि आज यह खुला राज है कि अगर आपकी सिफ़ारिश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी स्रोत से की जा रही है तो आपकी नियुक्ति प्रायः निश्चित है. उसमें भी प्रतियोगिता है, वहां भी जाति, प्रदेश और नेताओं के गुट हैं. लेकिन इस रास्ते जाने पर नौकरी मिलने की उम्मीद की जा सकती है. दूसरा रास्ता वह है जो पहले कहा गया. यानी, प्राचार्य की प्रतिबद्धता. तीसरा, अगर विशेषज्ञों में कोई आपके लिए इस हद तक जाने को तैयार हो कि अगर उनकी सूची के 5 के बदले वह आपके लिए 1 जगह की मोल-तोल की ज़हमत ले.

जो विशेषज्ञ बुलाए जाते हैं उनमें शायद हो कोई इतना आत्माभिमानी है कि दी हुई सूची पर दस्तखत करने से मना करके उठ आए.

यह सारा जोड़ बैठाना सब के बस की बात नहीं. समरवीर दर्शनशास्त्र के अध्यापक थे. उनके विषय की पढ़ाई भी कम कॉलेजों में होती है. जिस कॉलेज ने 8 साल उनसे काम लिया, जो उसे जानता है, अगर उसी ने असली मौक़े पर उन्हें निकाल फेंका तो और कहां उम्मीद है?

स्थायी अस्थायित्व की यह परंपरा अमानवीय है. लेकिन इसे शिक्षक संघ के सारे गुटों ने इसे जारी रखा. उन्होंने अस्थायी शिक्षकों को अपने लाभार्थियों में बदल दिया. शिक्षक संघ ने लंबे वक्त तक एक झूठा वायदा किया कि अस्थायी शिक्षकों को स्थायी पद पर नियमित करने का संघर्ष होगा. क़ानूनन यह नहीं होना था, यह सबको पता था.

क्या सभी अस्थायी शिक्षक योग्य हैं? उत्तर होगा, नहीं! लेकिन क्या अभी योग्यता को तरजीह दी जा रही है? इसका भी उत्तर है, नहीं. यह जवाब तो कॉलेजों को देना होगा कि जो अध्यापक 8 साल तक योग्य थे, वे आज अयोग्य कैसे हो गए?

समरवीर सिंह के छात्रों और सहकर्मियों का कहना है कि वे योग्य अध्यापक थे. विद्यार्थी उनकी कक्षा की प्रतीक्षा करते थे. फिर उन्हें बाहर करने का क्या तर्क था?

इस तरह दिल्ली विश्वविद्यालय की नियुक्तियों में एक प्रकार का संहार अभियान चल रहा है. यह प्रतिभा संहार तो निश्चय ही है. जो छात्र अभी एमए कर रहे हैं, वे भी सच्चाई जानते हैं. इस प्रकार की नियुक्ति का अर्थ है, तक़रीबन 20 से 30 साल तक छात्रों को विशेष प्रतिभा से युक्त अध्यापकों से पढ़ने का दुर्भाग्य. फिर ये अध्यापक अपनी तरह, या अपने कृपापात्रों की नियुक्तियां करेंगे. यह कई पीढ़ियों के छात्रों के साथ अन्याय है. या हमेशा के लिए संस्थान की बर्बादी की शुरुआत है. लेकिन उसकी परवाह किसे है?

तर्क दिया जाता है कि आज अगर आरएसएस इस हालत में है कि अपने लोगों की बहाली करवाए तो इसमें क्या ग़लत है, क्या यही वामपंथी या दूसरे गुटों ने नहीं किया? इस बात में सच्चाई है. लेकिन कल किए गए अपराध से आज का अपराध वैध नहीं हो जाता.

दुनिया भर में कुलपति या प्राचार्य अपनी एक उपलब्धि यह मानते हैं कि वे कितने प्रतिभाशाली दिमाग़ों को अपने संस्थान में अध्यापक के तौर पर ला सके. यह उनकी महत्त्वाकांक्षा भी होती है. लेकिन यह भारत के शिक्षा संस्थानों के नेतृत्व के बारे में नहीं कहा जा सकता.दिल्ली विश्वविद्यालय उनमें अपवाद नहीं है. पिछले कुलपति के कार्यकाल में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने ऐसी ही नियुक्तियां देखीं. आज भी वहां योग्य व्यक्ति का चुनाव संयोग है जिसे खबर की तरह बतलाया जाता है.

भारत के शिक्षा संस्थानों के नेतृत्व अपने संरक्षकों के प्रसाद की चिंता करते हैं, अपने छात्रों की नहीं. न इसकी कि ज्ञान के क्षेत्र में उनके संस्थान का योगदान, उनके अध्यापकों के शोध, लेखन के ज़रिये कितना माना जाएगा. आज के कॉलेजों की प्रतिष्ठा शायद इससे मापी जाएगी कि गुरु दक्षिणा में कौन कितना आगे रहा.

यह सारा प्रसंग इतना असुविधाजनक है और हम अध्यापक इस बेईमानी में इस कदर ख़ुद संलिप्त हैं कि इसपर फुसफुसा कर आपस में तो बात कर लें, बाहर इसपर कोई चर्चा नहीं होने देते. क्या एक ख़ुदकुशी में इतनी ताक़त है कि वह इस खामोशी की साज़िश को तोड़ सके?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)