मणिपुर में हुई हालिया हिंसा के बीच जो बात स्पष्ट नज़र आती है, वो यह है कि समुदायों के बीच संघर्षों के इतिहास से भरे इस राज्य को संभालने में अगर मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह ने ज़रा भी सावधानी बरती होती तो ताज़ा संघर्ष के कई कारणों से बचा जा सकता था.
नई दिल्ली: हर बार की तरह मणिपुर एक बार फिर गलत कारणों से सुर्ख़ियों में है. इस पूर्वोत्तर राज्य के बारे में जश्न मनाने के लिए बहुत कुछ है. यह भारत का एक खूबसूरत हिस्सा है, जिसकी आबादी पहाड़ियों और घाटियों में फैली हुई है. इसकी एक समृद्ध संस्कृति है और इसने देश को कुछ बेहतरीन खिलाड़ी दिए हैं जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की है.
हालांकि, अक्सर मणिपुर में हिंसा लौटती रहती है- मुख्य रूप से लंबे समय तक अनसुलझे अंतर-सामुदायिक संघर्ष से पैदा हुई अशांति के कारण, जो कभी राज्य और कभी केंद्र, दोनों स्तरों पर इनसे जुड़ी समस्याओं का समाधान न करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण उपजती हैं.
इसका परिणाम समुदायों के बीच खाई का चौड़ा होना और जान-माल का नुकसान है. कभी कुकी-ज़ो समूहों और उनके पड़ोस में नगाओं के बीच बेहद ख़राब संघर्ष छिड़ जाता है और कभी यही कुकी-ज़ो समूह और नगा, राज्य के बहुसंख्यक समुदाय मेईतेई के आमने-सामने होते हैं.
मामला किसी के भी बीच हो, सबसे पहला शिकार राज्य की शांति होती है.
तीन मई को मणिपुर फिर ख़बरों में आया- वजह थी राज्य में आगजनी, भीड़ की हिंसा और मौतें, जो कुकी-ज़ो और मेईतेई समुदायों के बीच छिड़े संघर्ष का नतीजा थे. इस हिंसा को तीन दिन हो चुके हैं और राज्य में करीब 54 लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है, राज्यभर में भारी सुरक्षाबल तैनात हैं और बताया जा रहा है कि कानून-व्यवस्था की स्थिति नियंत्रण में आ रही है. ऐसे में महत्वपूर्ण है कि उन कारणों की पड़ताल की जाए, जिनके परिणामस्वरूप ऐसे हालात खड़े हुए.
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— Брат (@B5001001101) May 4, 2023
मेईतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने का विरोध
मणिपुर में 3 और 4 मई की हिंसा राज्य की जनजातियों के विरोध का प्रत्यक्ष परिणाम है, जिसमें मेईतेई के एक वर्ग ने उन्हें भी अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल करने की मांग की थी. मणिपुर हाईकोर्ट ने अप्रैल के अंत में बहुसंख्यक समुदाय की मांग को मंजूरी दे दी और राज्य सरकार को केंद्रीय आदिवासी मामलों के मंत्रालय को इसकी सिफारिश करने का निर्देश दिया. इसके बाद से प्रदेश के छोटे आदिवासी समुदायों के भीतर अपने संवैधानिक सुरक्षा उपायों को खोने का डर बढ़ गया.
उल्लेखनीय है कि बहुसंख्यक समुदाय के तौर पर मेईतेई राज्य में निश्चित रूप से सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक और आर्थिक मापदंडों के मामले में अन्य जनजातियों, विशेष रूप से कुकी-ज़ोमी समूह की तुलना में बेहतर स्थिति में हैं. राज्य की अधिकांश आदिवासी आबादी इसी समूह की है. इसलिए, छोटी जनजातियों के बीच यह भावना है कि एसटी दर्जा ही एकमात्र बढ़त है, जो उन्हें बहुसंख्यक समुदाय पर मिली हुई है.
एक अन्य कारण जिसने वर्तमान हिंसा में योगदान दिया है, वह है हाईकोर्ट का ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ मणिपुर (एटीएसयूएम) के अध्यक्ष और राज्य विधानसभा की हिल एरिया समिति (एचएसी) के अध्यक्ष को उसके आदेश की आलोचना करने के लिए कारण बताओ नोटिस जारी करना. पहाड़ी क्षेत्र के नेताओं और छात्रसंघ के प्रमुखों ने द वायर को बताया कि उन्होंने हाईकोर्ट के नोटिस को अदालत द्वारा मेईतेई समुदाय के समर्थन के रूप में देखा.
यह एटीएसयूएम ही था जिसने 3 मई को राज्य के सभी पहाड़ी जिलों में मेईतेई को एसटी का दर्जा देने के खिलाफ आदिवासी एकजुटता मार्च का आयोजन किया था. चूड़ाचांदपुर जिले में ऐसे ही एक मार्च के दौरान हिंसा हुई, जो राज्य के विभिन्न हिस्सों में एक या दूसरे समुदाय को निशाना बनाते हुए उग्र भीड़ की हिंसा में बदल गई.
यहां यह भी गौर करना महत्वपूर्ण है कि एसटी दर्जे के लिए मेईतेई के एक वर्ग की मांग भी अपनी पारंपरिक मातृभूमि, घाटी क्षेत्र में अपनी प्रधानता खोने के डर पर टिकी है. अपनी पारंपरिक भूमि पर अधिकार को पहाड़ी जनजातियों में भी उतना पवित्र माना जाता है जितना कि घाटी में.
अब इस डर के साथ कुछ समय पहले पूरे राज्य में इनर लाइन परमिट (आईएलपी) को लागू करने के लिए मेईतेई समुदाय की मांग को जोड़ें – नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा इसे लागू किया गया- और आपको इस बहुसंख्यक समुदाय के लगातार आशंकित रहने की पूरी तस्वीर नजर आएगी.
भले ही मेईतेई राज्य की आबादी में 50% से थोड़ा अधिक हिस्सा रखते हैं, फिर भी वे एक छोटा समुदाय हैं, और इसलिए अन्य समुदायों के प्रभुत्व के डर से आजाद नहीं हैं. दूसरों पर अपना आधिपत्य खोने का इसी तरह का डर असमिया लोगों को भी सताता है, जो असम में बहुसंख्यक समुदाय होने के बावजूद ऐसा महसूस करते हैं.
असमियों का एक वर्ग भी मोदी सरकार से आईएलपी की मांग कर रहा है और अपनी पारंपरिक जोत की रक्षा के प्रावधान की मांग कर रहा है. अन्य लोगों के प्रति यह डर पूर्वोत्तर में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों समुदायों में व्याप्त है और असम में 1980 के दशक के छात्रों के आंदोलन सहित कई अंतर-सामुदायिक संघर्षों और आंदोलनों की जड़ साबित हुआ है.
एन. बीरेन सरकार का कुकी-ज़ोमी समूहों से शांति समझौता रद्द करना
हालिया हिंसा की एक और वजह कुकी-ज़ोमी जनजातियों के भीतर भरा गुस्सा है, जिसका कारण एन. बीरेन सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार का बीते मार्च में उनके सशस्त्र संगठनों- यूनाइटेड पीपुल्स फ्रंट (यूपीएफ) और कुकी नेशनल ऑर्गनाइजेशन (केएनओ) के साथ सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन्स (एसओओ) समझौते को वापस लेना है.
राज्य सरकार ने 10 मार्च को कैबिनेट की बैठक में यह निर्णय लिया और केंद्र सरकार को इसके बारे में सूचित किया गया. इसका अनिवार्य रूप से मतलब था कि राज्य सरकार केंद्र द्वारा नियुक्त वार्ताकार के माध्यम से इन सशस्त्र समूहों और नरेंद्र मोदी सरकार के बीच चल रही त्रिपक्षीय शांति वार्ता से खुद को हटा रही थी. मोदी सरकार द्वारा 2017 के विधानसभा चुनावों के दौरान इन वार्ताओं की शुरुआत की गई थी.
हालांकि, केंद्र सरकार ने जल्द ही राज्य सरकार के हालिया फैसले को समर्थन देने में अनिच्छा जाहिर कर दी, जिससे बीरेन सरकार अजीब स्थिति में आ गई.
2016 के मध्य से, जब मोदी सरकार ने कुकी उग्रवादी समूहों से बात करने में रुचि दिखाई थी, तबसे कुकी-ज़ो समुदाय शांति समझौता करने के लिए केंद्र सरकार पर भरोसा कर रहे हैं और उन्हें लगता था कि उन्हें किसी तरफ का स्व-शासन मिल सकेगा, जैसे असम में बोडो समुदाय को दिया गया था. इसलिए, मणिपुर सरकार के अचानक वार्ता से पीछे हटने से आदिवासी समूहों को यह संदेश मिला कि बहुसंख्यक मेईतेई समुदाय (मुख्यमंत्री भी एक मेईतेई हैं) उन्हें किसी भी प्रकार का स्व-शासन देने के खिलाफ हैं.
इस निर्णय को भाजपा के मुख्यमंत्री द्वारा लिए गए एक अपरिपक्व राजनीतिक निर्णय के रूप में देखा गया, वो भी एक ऐसे राज्य में, जहां पहाड़ी और घाटी क्षेत्रों के बीच आपसी अविश्वास से उपजने वाले सांप्रदायिक संघर्षों का इतिहास रहा है.
अतिक्रमण-रोधी अभियान
इसी बीच, एन. बीरेन सरकार के खिलाफ चूड़ाचांदपुर और टेंग्नौपाल के पहाड़ी जिलों में लगातार विरोध प्रदर्शन हुए. राज्य सरकार को लगा कि इन्हें सशस्त्र कुकी समूहों का समर्थन प्राप्त है. यह प्रदर्शन राज्य सरकार द्वारा कुछ चर्चों सहित कई लोगों को भेजे गए बेदखली (eviction) नोटिस के जवाब में इंडिजिनस ट्राइबल लीडर फोरम द्वारा आयोजित किए गए थे. नोटिस में सरकार ने कहा था कि उन्हें हटना चाहिए क्योंकि वे वन भूमि पर अतिक्रमण कर रहे हैं.
विरोध के कारण को ‘असंवैधानिक’ और ‘अवैध’ करार देते हुए राज्य सरकार ने रैलियों की अनुमति देने के लिए दोनों जिलों के उपायुक्त और एसपी को कारण बताओ नोटिस जारी किया.
कुकी पहाड़ियों में इसे सरकार द्वारा उन्हें अपने नियंत्रण में लेने के प्रयास के रूप में देखा गया.
Eviction drive is in the interest of the state: Manipur forest minister https://t.co/EBtPE3pY97 pic.twitter.com/2RCIjbmtPM
— TheNewsMill (@The_NewsMill) July 5, 2018
चर्चों पर हमले
कई रिपोर्ट्स के अनुसार, राज्य सरकार द्वारा अतिक्रमण-रोधी अभियान में तीन चर्चों को ध्वस्त किया गया था. इस कार्रवाई ने ईसाई-बहुसंख्यक आदिवासी आबादी के मन में राज्य के दूसरे बहुसंख्यक समुदाय, जो ज्यादातर वैष्णव हैं, के प्रति यह संदेह पैदा किया कि वे उनके पूजा स्थलों के खिलाफ साजिश रच रहे हैं.
मणिपुर से आने वाली हाल की खबरों में भी चर्चों पर भीड़ द्वारा हमलों का उल्लेख है, जिससे भाजपा शासित इस राज्य में अंतर-सामुदायिक संघर्ष में एक धार्मिक एंगल भी जुड़ गया है. उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ वर्षों में मेईतेई समुदाय में हिंदुत्व समूह दिखने लगे हैं.
3 मई की झड़प के जवाब में बैंगलोर मणिपुर स्टूडेंट्स एसोसिएशन द्वारा जारी एक बयान से जमीनी हकीकत का पता चलता है.
एसोसिएशन ने आरक्षित वन क्षेत्रों की रक्षा के लिए बीरेन सरकार के ‘दृढ़ अभियान’ का समर्थन किया, जिसमें कहा गया कि ‘कुकी उग्रवादियों द्वारा हिंदू गांवों को जलाते हुए निर्दोषों की जान ले ली गई. ‘हिंदू गांवों’ शब्द के इस्तेमाल ने टकराव को एक सांप्रदायिक कोण देने का काम किया है.
संख्याबल की राजनीति और पड़ोसी म्यांमार में तनाव
बैंगलोर मणिपुर स्टूडेंट्स एसोसिएशन द्वारा जारी उस बयान में यह भी कहा गया है कि 3 मई को ‘कुकी उग्रवादियों और ड्रग कार्टेल द्वारा समर्थित अवैध बर्मी अप्रवासियों ने मोरेह, टूरबंग और चूड़ाचांदपुर में शांतिपूर्ण हिंदू मणिपुरी बस्तियों को जला दिया.’
यह सच है कि इन क्षेत्रों में मेईतेई बस्तियों पर हमला किया गया और उनके घरों को जला दिया गया, जिससे लोग सुरक्षा के लिए पलायन करने पर मजबूर हो गए. लेकिन इसे ‘बहुसंख्यक समुदाय बनाम अल्पसंख्यक समुदाय’ की लड़ाई के बजाय ‘ईसाई बनाम हिंदू’ लड़ाई के रूप में प्रस्तुत करना एक त्रासदी- जिसमें दोनों पक्षों के कई निर्दोष लोगों की जान चली गई, को एक अलग दिशा में मोड़ना है.
बयान के कुछ अन्य शब्दों पर भी गौर किया जाना चाहिए- ‘अवैध बर्मी अप्रवासी’ और ‘ड्रग कार्टेल’.
पिछले कुछ समय से घाटी के क्षेत्रों में पहाड़ी क्षेत्रों में कुकी-ज़ोमी समुदायों द्वारा बर्मी नागरिकों को ‘अवैध रूप से’ आश्रय देने के बारे में शक करना आम हो चला है. कहा जाता है कि दोनों के पूर्वज एक ही थे और वे पहाड़ी क्षेत्रों में अपनी आबादी बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं.
पहाड़ी क्षेत्रों में घाटी की तुलना में अधिक जमीन है. इसके और एसटी दर्जा मिलने का मतलब है कि मणिपुर के गैर-आदिवासियों उन्हें ईर्ष्या की दृष्टि से देखते हैं.
कोई भी मेईतेई पहाड़ी जिलों में जमीन नहीं खरीद सकता है, लेकिन जनजातियां घाटी क्षेत्र- जो पारंपरिक रूप से मेईतेई की मातृभूमि है- में जमीन ले सकती हैं. यह भी एक पहलू है, जिसने चिंता बढ़ाई है.
हाल ही में म्यांमार में गृहयुद्ध छिड़ने के बाद यह कोई रहस्य नहीं है कि शरणार्थी मणिपुर सहित देश की सीमा से लगे कुछ भारतीय राज्यों में घुसपैठ कर रहे हैं – इस प्रकार बहुसंख्यक समुदाय के एक वर्ग में डर बढ़ रहा है- जैसा पहले कभी नहीं हुआ था.
बीरेन सरकार इस डर को अपने विभिन्न क़दमों से बढ़ा रही है, जहां इसका यह कहना शामिल है कि कुकी के सशस्त्र समूहों के प्रमुखों में से एक म्यांमार का नागरिक और उस देश का एक पूर्व नेता है. फिर इसने कहा कि कुकी उग्रवादी समूह म्यांमार के शरणार्थियों को लेकर आ रहे हैं. बीरेन सरकार के कहने पर हाल ही में ऐसी किसी संभावना को रोकने के लिए उस ओर की अंतरराष्ट्रीय सीमा पर अर्धसैनिक बलों को तैनात किया गया है.
‘ड्रग कार्टेल’ की बात करें, तो मुख्यमंत्री ने कुकी उग्रवादियों पर पहाड़ी जिलों के वन क्षेत्रों में अफीम की खेती करने का आरोप लगाया, ताकि उनके बेदखली अभियान को सही ठहराया जा सके. हालांकि इसमें कुछ सच्चाई हो सकती है, लेकिन चौंकाने वाली बात यह भी है कि हाल ही में बीरेन सरकार पर एक पूर्व शीर्ष पुलिस अधिकारी द्वारा ड्रग तस्करी के खिलाफ नरमी बरतने और यहां तक कि पहाड़ी क्षेत्रों में ड्रग माफियाओं का समर्थन करने का आरोप लगाया गया था.
बीरेन का मुख्यमंत्री होना
अगर मुख्यमंत्री ने संघर्षों के इतिहास से भरे इस राज्य को संभालने में थोड़ी-सी भी सावधानी बरती होती तो इनमें से कई कारणों से बचा जा सकता था. इसके बजाय उनके ज्यादातर काम विभाजनकारी होने के तौर पर सामने आए और स्पष्ट रूप से उनका मकसद वोटों के लिए बहुसंख्यक समुदाय को लुभाना था. उल्लेखनीय है कि विधानसभा की ज्यादातर सीटें घाटी इलाकों में हैं.
अधिकांश उत्तर-पूर्वी राज्यों में समुदायों के बीच संघर्ष एक वास्तविकता है. इसलिए इस क्षेत्र को ऐसे नेताओं की जरूरत है जो शांति के लिए लोगों को एकजुट कर सकें. बीरेन इस मामले में पूरी तरह से विफल नजर आ रहे हैं. आज के बीरेन, उस बीरेन से बहुत अलग हैं, जिन्होंने 2017 में घाटी में स्थित इंफाल के बजाय पहाड़ियों में कैबिनेट बैठक कर काम की शुरुआत की थी.
बीरेन के नेतृत्व को लेकर खुद उनकी पार्टी के भीतर का हालिया विरोध भी सदन को एक साथ रखने में उनकी विफलता दिखाता है. यह पहली बार नहीं है जब भाजपा के विधायक ही अपने मुख्यमंत्री के खिलाफ खड़े हुए हैं.
शांति वार्ताएं पूरी करने में विफल केंद्र सरकार
कुकी-ज़ो जनजातियों के भीतर उपजी नाराजगी का दोष नई दिल्ली के माथे भी है.
कुकी-ज़ोमी सशस्त्र समूह 2008 से युद्धविराम में हैं. 2016 में इन समूहों के साथ शांति वार्ता शुरू करने के लिए समुदाय द्वारा मोदी सरकार की सराहना की गई थी, लेकिन पिछले सात वर्षों में इसका कुछ नतीजा नहीं आया- इससे केवल यह सवाल खड़ा होता है कि क्या भाजपा ने 2017 के चुनावों के मद्देनजर समुदाय का दिल जीतने के लिए ही शांति वार्ता शुरू की थी?
विकास न होना
मणिपुर में विकास का अभाव भी पहाड़ी और घाटी क्षेत्रों के बीच संघर्षों की एक वजह है.
पिछले कुछ वर्षों में अधिकांश विकास कार्य केवल घाटी क्षेत्रों में हुए हैं, इस प्रकार पहाड़ी जनजातियों में बहुसंख्यक समुदाय के प्रति काफी आक्रोश है, क्योंकि उन्हें ऐसा लगता है कि उनके क्षेत्रों को पिछड़ा रखने के लिए एक सुनियोजित ‘साजिश’ चल रही हो.
पहाड़ी और घाटी के बीच बेहतर संबंध विकसित करने में मदद करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों दोनों को इसे तुरंत सुधारना चाहिए. यह शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए ज़रूरी है.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)