क्या पहलवानों का प्रदर्शन भारतीय समाज के अंतर्विरोधों का आईना है

पहलवानों के हालिया आंदोलन में न केवल कुश्ती बल्कि भारतीय खेल संस्कृति के भविष्य को मोड़ने की ताक़त है. हालांकि, आंदोलन की क़रीबी पड़ताल करें तो एक तरफ़ ये आंदोलन राज्य की पितृसत्ता का विरोध कर रहा है, लेकिन साथ ही जातिगत पितृसत्ता के साथ खड़ा मिलता है.

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(बाएं से दाएं) बजरंग पुनिया, विनेश फोगाट और साक्षी मलिक जंतर मंतर पर. (फोटो साभार: ट्विटर/@RakeshTikaitBKU)

पहलवानों के हालिया आंदोलन में न केवल कुश्ती बल्कि भारतीय खेल संस्कृति के भविष्य को मोड़ने की ताक़त है. हालांकि, आंदोलन की क़रीबी पड़ताल करें तो एक तरफ़ ये आंदोलन राज्य की पितृसत्ता का विरोध कर रहा है, लेकिन साथ ही जातिगत पितृसत्ता के साथ खड़ा मिलता है.

(बाएं से दाएं) बजरंग पुनिया, विनेश फोगट और साक्षी मलिक जंतर मंतर पर. (फोटो साभार: ट्विटर/@RakeshTikaitBKU)

कुछ देर के लिए प्रतितथ्यात्मक (काउंटर फैक्चुअल) इतिहास की गलियों में विचरते हुए हम पाते कि गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया और उसे अपने आश्रम में रहने की अनुमति भी दे दी. हालांकि, जब बाद में उन्हें याद आया कि वह अभी भी अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं, तो उन्होंने एकलव्य से अपना दाहिना अंगूठा काटकर गुरु-दक्षिणा के रूप में देने को कहा.

एकलव्य गुरु की इस मांग की मुख़ालफ़त न कर सका और उसने अपना अंगूठा सहर्ष गुरु-दक्षिणा के रूप में द्रोणाचार्य को दे दिया. चूंकि, ये सब गुरु के आश्रम के अंदर हुआ था इसीलिए एकलव्य की ये कहानी आश्रम की दहलीज़ से बाहर नहीं आ सकी.

अब जब हम प्रतितथ्यात्मक (काउंटर फैक्चुअल) इतिहास से वापस असल दुनिया में आते हैं तो पता चलता हैं कि कुछ ऐसा ही भारत में महिला पहलवानों के साथ होता आया हैं. हालांकि,महिलाओं के यौन उत्पीड़न की घटनाएं अब इतनी बढ़ गईं कि ये अब सामने आ ही गईं.

भारतीय खेल संस्कृति मुख्यतः रूप से इसी गुरु-शिष्य परंपरा में निहित रही है और हाल ही में विरोध करने वाले पहलवानों द्वारा सामने लाए गए अधिकांश मुद्दों का मूल कारण यही है. यह एक सार्वभौमिक सत्य हैं कि गुरु, एक सर्वशक्तिमान शख़्स हैं और भारतीय खेल संस्कृति की धुरी उन्हीं के आस-पास घूमती रही हैं.

भारतीय ज्ञान परंपरा में गुरु की शक्ति कुछ ऐसी बताई गई हैं कि सृजन और विनाश, दोनों ही उनकी गोद में पलते हैं. गुरु को देवी-देवताओं से भी बढ़कर माना गया हैं, गुरु के बारे में कहा भी गया हैं;

गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु, गुरुर देवो महेश्वरः
गुरुः साक्षात्परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः

गुरु की ये महिमा भारतीय खेल संस्कृति में संरक्षक और संरक्षित के स्थायित्व भाव की द्योतक हैं. नतीजतन, खिलाड़ी एक शिष्य के रूप में अधिक और एक स्वतंत्र और समान व्यक्तित्व के रूप में कम विकसित हो पाते हैं. खिलाड़ियों का जीवन अनिवार्यत रूप में इन्ही गुरुओं के आस-पास घूमता हैं, जो कभी इन्हें अपने बुजुर्ग के रूप में तो कभी कोच, या कभी खेल फेडरेशन के अधिकारियों के रूप में मिलते हैं.

इसका प्रभाव ये होता हैं कि खिलाड़ियों की मुक्ति और अधीनता उनके खेलों में प्रदर्शन पर कम और इन गुरुओं के आशीर्वाद और श्राप पर बहुत कुछ निर्भर करती है. अमूमन, गुरु-शिष्य परंपरा के यही संरक्षक-संरक्षित संबंध अपने साथ पितृसत्ता, स्त्री-द्वेष और जातिवाद जैसी कई विषाक्ता अपने साथ लाती हैं.

पहलवानों से ज़्यादा इस बात को कोई नहीं जान सकता क्योंकि अन्य खेलों से अधिक कुश्ती पारंपरिक रूप से एक ग्रामीण खेल रहा है जो आश्रम संस्कृति में बहुत अच्छी तरह से निहित है. यहां अखाड़े एक आश्रम की तरह से ही संचालित होते हैं, जहां पहलवान बनने के इच्छुक बच्चे अपने घरों को छोड़कर यहां अभ्यास करना और रहना शुरू करते हैं.

इनमें से अधिकांश का लक्ष्य एक अदद सरकारी नौकरी पाना और आगे बढ़कर अपने देश को अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अधिक से अधिक पदक दिलाना होता हैं. लेकिन ये गुरु-शिष्य संस्कृति अखाड़ों में ही सीमित नहीं रहती और व्यापक खेल संस्कृति में अंतर्निहित हो जाती हैं.

यहां यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि भारत में महिला कुश्ती का इतिहास काफ़ी नया हैं और इसका शुरुआती सफ़र कांटों भरा रहा हैं. चूंकि, भारत में कुश्ती का विकास परंपरागत रूप से एक पुरुष खेल के रूप में होता हैं इसीलिए शुरुआती दिनों से ही भारतीय कुश्ती बिरादरी, महिलाओं के कुश्ती में प्रवेश को लेकर लगभग एकमुश्त रूप से ख़िलाफ़ रही.

इसका मंजर ये होता हैं कि सन 2000 के शुरुआती सालों तक भी कुश्ती बिरादरी, जिसमें शत-प्रतिशत पुरुष रहते हैं, महिलाओं के इसमें प्रवेश को एक भारतीय संस्कृति पर एक हमले के रूप में लेते हैं. ये सभी गुरु, महिलाओं को एक शिष्य के रूप में भी स्वीकार नहीं करते हैं.

विश्व पटल पर देखें, तो महिला कुश्ती के ऐतिहासिक प्रमाण प्राचीन इटली की अत्रुसकान सभ्यता में 330 ईसा पूर्व भी मिलते हैं लेकिन फिर भी पुरुष कुश्ती के कई सालों बाद इसे पेशेवर कुश्ती का हिस्सा बनाया गया. सन 1987 में विश्व चैंपियनशिप में पहली बार महिलाओं को भाग लेने की मंज़ूरी मिली और बाद में एथेंस 2004 से ओलंपिक खेलों में भी शामिल किया गया. यही वो समय था जब महिला कुश्ती भारत में करवट लेने को तैयार हो रही थी.

दंगल, एक प्रतियोगिता के तौर पर भारतीय कुश्ती का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं, जिसमें पहलवान आकर ज़ोर-आज़माइश करते हैं. शुरुआती सालों में महिला पहलवानों को इन प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने से रोका गया. उस समय गुरु चंदगीराम को छोड़कर बाकी सभी गुरुओं ने महिला कुश्ती की पुरज़ोर मुख़ालफ़त की थी. इस कदम से महिला पहलवानों, उनके परिवार और समर्थकों को धमकी, बहिष्कार और हिंसा का भी सामना करना पड़ा.

इन दंगलों से इतर महिला पहलवान सिर्फ़ ‘प्रदर्शनी’ मैच में ही हिस्सा ले पाती थी. बड़े-बड़े गुरुओं के साथ-साथ दंगल आयोजक भी महिला पहलवानों को जगह देने से झिझकते थे. कुश्ती जगत में देरी से प्रवेश भी महिला पहलवानों को विश्व प्रतियोगिताओं में पदक जीतने से न रोक पाई और कुछ ही सालों के बाद 2006 में विश्व चैंपियनशिप में अलका तोमर ने भारत को कांस्य पदक दिलवाया.

विश्व स्तर पर ऐसे प्रदर्शनों ने भारत में महिला कुश्ती को स्थापित किया और कुश्ती के गुरुओं को इसे अनमने मन से ही सही लेकिन स्वीकृति देनी पड़ी. पिछले कुछ सालों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय महिला पहलवानों ने अपनी छाप छोड़ी हैं और एक सुनहरे भविष्य की ओर इशारा किया हैं.

ये सभी प्रदर्शनकारी पहलवान भी अंतरराष्ट्रीय ख्याति के हैं, जिन्होंने एशियाई खेलों से लेकर, ओलंपिक्स तक में पदक जीते हैं और उज्जवल भविष्य लिए हैं. क़ायदे से तो इन सभी को 2024 में होने वाले पेरिस ओलंपिक्स की तैयारियों में जुटा होना चाहिए, इसके बजाय ये सब भारतीय कुश्ती महासंघ (डब्ल्यूएफआई) के प्रमुख बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ विरोध करने को मजबूर हैं.

इनमें से कई महिला पहलवानों ने बृजभूषण शरण सिंह के ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न जैसे गंभीर आरोप लगाए हैं. हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ हैं और समय-समय पर इस तरह के आरोप विभिन्न कोचों और खेल संघों के अधिकारियों पर लगते रहे हैं. हाल ही में हरियाणा के मंत्री संदीप सिंह को इसी तरह के आरोपों के चलते खेल मंत्री का पद छोड़ना पड़ा था. (हालांकि, वे कैबिनेट में एक अन्य मंत्रालय का ज़िम्मा संभाल रहे हैं.)

अमूमन खिलाड़ी फेडरेशन या खेल अधिकारियों के ख़िलाफ़ कोई भी शिकायत करने की हिम्मत नहीं करते क्योंकि महिला-द्वेष के अलावा, ये अधिकारी खिलाड़ियों का करिअर ख़त्म करने की ताक़त रखते हैं. इस कारण कुछेक को छोड़कर अधिकांश यौन उत्पीड़न के मामले कभी सामने नहीं आ पाते. लेकिन इस बार इन महिला पहलवानों ने सार्वजनिक रूप से बोलने का अदम्य साहस दिखाया हैं.

इस तरह के आरोप एक गंभीर जांच और पेशेवर परामर्श की मांग करते हैं लेकिन इसके विपरीत इस कदम ने इन खिलाड़ियों में अपने करिअर को लेकर गंभीर चिंता में डाल दिया हैं, जो काफ़ी निंदनीय हैं.

जातिगत पहचान और लैंगिक समानता का सवाल

हम अक्सर एथलीटों को एक अमूर्त व्यक्तित्व के रूप में देखते हैं जो राष्ट्र और राष्ट्रवाद के ध्वजवाहक हैं. हम ये भूल जाते हैं कि खिलाड़ी भी एक देश की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन में गुंथे होते हैं और अपने सामाजिक संदर्भों और पहचानों को साथ लेकर चलते हैं. हालांकि कई बार ये राजनीति खेल के बाहर एक प्रतिकूल ताना-बाना भी गढ़ लेती हैं. कुश्ती और पहलवानों की दुनिया भी इससे अछूती नहीं रही हैं.

हाल ही के वर्षों में ऐसा प्रतीत होता हैं कि कुश्ती एक जाति विशेष के खिलाड़ियों का गढ़ बन गई हैं, ख़ासकर उत्तर भारत के जाटों का. इसकी तह में वो ऐतिहासिक परिघटनाएं हैं जिनकी शुरुआत 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में तब होती हैं जब पंजाब में औपनिवेशिक अधिकारियों ने विकृत सामाजिक स्तरीकरण के आधार पर इनमें से कुछ जातियों को मार्शल रेस/जातियों में वर्गीकृत किया और उन्हें क़ानूनी रूप से भूमि पर विशिष्ट अधिकार दे दिया. सक्रिय या निष्क्रिय रूप से, इनमें से कई पहलवान अब भी इस विशिष्टता का फ़ायदा उठाते हैं.

पिछड़ी जाति के पहलवान अगर कुश्ती जगत में प्रवेश करने का साहस करते हैं तो उन्हें हाशिए पर धकेल दिया जाता है. इसके लिए ढेरों उदाहरण दिए जा सकते हैं. पहलवान नरसिंह यादव की घटना उनमें से एक का प्रतिनिधित्व करती है. ये घटनाएं द्योतक हैं कि दबंग जातीयता पहलवानों से अछूती नहीं हैं.

जहां खेल संस्कृति एक समावेशी और लोकतांत्रिक परिवेश में पनपती और फलती-फूलती है, वही जातीयता के क्षेत्र में घुसते ही प्रतिगामी भी हो जाती है. खेल संस्कृति के सार्वभौमिक विकास के लिए और इसे समावेशी बनाने के लिए इसे गुरु-शिष्य परंपरा के इस ढर्रे से मुक्ति लेनी होगी जहां खिलाड़ी गुरुओं के आशीर्वाद और श्राप के जंजाल के परे एक स्वतंत्र और समान नागरिक के रूप में पहचाने जाएं.

हालांकि, मुझे डर है कि पहलवानों का वर्तमान विरोध इस धारणा को चुनौती नहीं दे रहा है और गुरु-शिष्य परंपरा की उसी विषैली जड़-बेल में पानी दे रहा हैं, जो भारतीय खेल संस्कृति के तल में है.

पहलवानों ने इस आंदोलन की सफलता के लिए ‘अपनी’ खाप पंचायतों के बुजुर्गों से सहयोग, मार्गदर्शन और आशीर्वाद मांगा हैं. खाप पंचायतों का समर्थन और सहभागिता इस आंदोलन के जातिगत चरित्र पर अधिक और यौन शोषण या खिलाड़ियों की चिंताओं पर कम निर्भर है. यह वास्तव में खेल संस्कृति में जातिवाद के दावे को और मज़बूत करता है और लैंगिक न्याय और जातीय राजनीति के अंतर्विरोधों को दिखाता है.

यह बात किसी से छिपी नहीं हैं कि महिला मुक्ति और जातीय न्याय के सवाल पर खाप पंचायतों की क्या राय है? यही खाप पंचायतें क्या करेंगी अगर इनमें से कोई महिला पहलवान जाति की सीमाओं को लांघकर दूसरी जाति या दूसरे धर्म में शादी करना चाहे? खाप पंचायतों की क्या राय होगी अगर कोई महिला पहलवान अपनी पैतृक संपत्ति में पुरुषों के बराबर हिस्सा मांगेंगी? क्या इस स्थिति में भी पहलवान इन खाप पंचायतों से सहयोग, मार्गदर्शन और आशीर्वाद मांग सकेंगे?

खाप पंचायतें दशकों से जातिगत पितृसत्ता का द्योतक रही हैं, इनका सहयोग और सहभागिता किसी भी रूप में लैंगिक न्याय की राजनीति का समर्थन नहीं हो सकतीं.

इस आंदोलन की करीबी पड़ताल करे तो दिखता है कि जाति और गुरु-शिष्य परंपरा की भाषा इस पर हावी हैं. जहां एक तरफ़ ये आंदोलन राज्य की पितृसत्ता का विरोध कर रहा है, वहीं जातिगत पितृसत्ता के साथ खड़ा मिलता है, जिससे इस आंदोलन के अंतर्विरोध साफ़ तौर पर दिखाई देते हैं.

यह आंदोलन इतिहास के एक बड़े महत्त्वपूर्ण मोड़ का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें न केवल भारतीय कुश्ती बल्कि भारतीय खेल संस्कृति के भविष्य को मोड़ने की ताक़त है. इस आंदोलन ने महिला पहलवानों की ताकत और अदम्य साहस को दिखाया है, लेकिन लैंगिक न्याय और महिला मुक्ति का सवाल पुरानी संस्थाओं और भाषा के हाथ पुख़्ता करने में नहीं बल्कि उनकी पड़ताल और चोट करने में है.

(लेखक पहलवान रहे हैं और वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं.)

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