क्रमिक विकास (एवोल्यूशन) जीव विज्ञान की धुरी है और डार्विनवाद इसे समझने की बुनियाद. इन्हें स्कूल के पाठ्यक्रम से निकालना विज्ञान की कक्षा के इकोसिस्टम को बिगाड़ना है.
पिछले दिनों दसवीं की किताबों से एनसीईआरटी से आनुवंशिकी और क्रमिक विकास (एवोल्यूशन) का चैप्टर हटा दिया गया. उसके पीछे तर्क कोर्स-लोड कम करने का दिया गया और साथ ही यह भी कहा गया यह सब बारहवीं में तो पढ़ाया जाना ही है. इस कदम की आलोचना होनी थी और देश के वैज्ञानिकों और तमाम बुद्धिजीवियों ने की भी. हालांकि, जीव विज्ञान पढ़ाने के लिए क्रमिक विकास की क्या महत्ता है, इस पर थोड़े और विस्तार से चर्चा होनी चाहिए.
जीव विज्ञान की बुनियादी समझ क्रमिक विकास यानी एवोल्यूशन से बनती है और क्रमिक विकास की समझ डार्विन के बिना नहीं बन सकती. क्रमिक विकास अब जीव विज्ञान का एक स्थापित सत्य है और डार्विन की थ्योरी उसको समझने का एक कड़ी या यूं कहें कि सबसे महत्त्वपूर्ण कड़ी है. ऐसे में क्रमिक विकास का पाठ दसवीं से हटाना छात्रों को जीव विज्ञान का रट्टा मारने पर मजबूर करना है.
इस क्रम में सबसे पहले ध्यान देने की बात यह है कि जीवों के वर्गीकरण जैसे बुनियादी कॉन्सेप्ट को हाईस्कूल में ही पढ़ाया जाता है और मेरा जीव विज्ञान पढ़ने-पढ़ाने का अनुभव यही है कि यह चैप्टर हाईस्कूल और उससे आगे भी जीव विज्ञान को समझने की ज़मीन तैयार करने के लिए जितना ज़रूरी है, विद्यार्थियों की नज़र में उतना ही उबाऊ भी.
यानी कि सभी जीवों को सबसे पहले कितने जगत (किंगडम) और फिर हर एक जगत को कितने संघों (फायलम) में बांटा गया और फिर हरेक संघ को कितने वर्गों (क्लास) में बांटा गया और किस आधार पर बांटा गया, विद्यार्थियों को लगता है कि इस सबके पीछे कोई तर्क नहीं है इसलिए इनको रटने के अलावा और कोई चारा नहीं है.
ऐसे में क्रमिक विकास का फ्रेमवर्क एक ऐसी युक्ति है जो इस वर्गीकरण को समझना आसान कर देती है. मसलन, कोशिकाओं में केंद्रक का होना न होना वर्गीकरण का पहला आधार इसलिए है क्योंकि पृथ्वी पर जीवों के क्रमिक विकास में केंद्रक की उत्पत्ति बाद में हुई है और बिना केंद्रक की कोशिकाओं की पहले. इसी क्रम में जीवों का एककोशिकीय या बहुकोशकीय होना उनके वर्गीकरण का अगला आधार बन जाता है क्योंकि एक की व्युत्पत्ति दूसरे से पहले हुई है. इसी तरह क्रमिक विकास के फ्रेम में रखकर वर्गीकरण के हर पायदान और उसके आधार को समझा जा सकता है.
जीवों के वर्गीकरण के अलावा भी, जीव विज्ञान में ‘क्या’ और ‘कैसे’ का जवाब देना आसान है, लेकिन ‘क्यों’ का जवाब देना मुश्किल है. उदाहरण के तौर पर, जीवों में सांस लेने के लिए क्या तंत्र विकसित हुआ इसका जवाब दिया जा सकता है. वो कैसे काम करता है इसे भी समझाना मुश्किल नहीं है. लेकिन इतने तरह के श्वसन तंत्र विकसित ही क्यों हुए इसे समझाने के लिए जीवों का क्रमिक विकास कैसी अलग-अलग परिस्थितियों में हुआ ये समझना अपरिहार्य है.
इसलिए जीव विज्ञान के पाठ्यक्रम से क्रमिक विकास को हटाना सवालों की एक पूरी की पूरी श्रेणी को अनुत्तरित छोड़ना है और ऐसा करके जीव विज्ञान को रटंत विद्या बनाने का रास्ता खोलना है.
अब बात आती है डार्विन की. यहां सबसे पहले यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि डार्विन जीव विज्ञान की कक्षाओं में अकाट्य सत्य की तरह नहीं पढ़ाया जाता है और न ही यह एक अकेली थ्योरी है क्रमिक विकास को समझने की. हां, यह ज़रूर है कि डार्विन ने जितना लंबा और विविध स्रोतों पर आधारित शोध किया, जीवाश्म से लेकर विभिन्न प्रजातियों की अलग-अलग भौगोलिक विभिन्नताओं तक, कैसे विशद प्रमाण दे डाले, उसका क्रमिक विकास की प्रतिस्थापना करने में बड़ा हाथ रहा है. इसलिए डार्विन और क्रमिक विकास आम समझ में लगभग एक दूसरे के पर्यायवाची बन चुके हैं.
यही वजह है कि क्रमिक विकास की संकल्पना पर कोई भी हमला डार्विनवाद पर प्रहार के साथ ही आता है. इसके पहले भी भारत सरकार के एक केंद्रीय मंत्री सत्यपाल सिंह डार्विनवाद को ‘अवैज्ञानिक’ और ‘गलत’ कह चुके हैं. यह डार्विन पर पहला हमला नहीं था न ही आख़िरी होगा.
यहां यह समझना ज़रूरी है कि डार्विन की आलोचना की जा सकती है और विज्ञान के क्षेत्र में होती भी रही है, लेकिन उसके लिए भी डार्विन को पढ़ना ज़रूरी है. जैसे डार्विन की ये सतत आलोचना रही है कि विभिन्नताओं को क्रमिक विकास का शुरुआती बिंदु तो बता दिया लेकिन विभिन्नताओं का आधार क्या है ये नहीं बता पाए. इसे बाद में मेंडल के आनुवंशिकी के नियमों के सहारे समझा गया. यही वजह है कि दसवीं में क्रमिक विकास और आनुवंशिकी एक ही पाठ में हैं.
इसी तरह, डार्विन जीवों पर पर्यावरण के प्रभाव को वरीयता नहीं देते, जबकि उनके एक पूर्ववर्ती लैमार्क ने दी थी. इसलिए फिलहाल जीव विज्ञान लैमार्कवाद के पुनरुत्थान और एपीजेनेटिक्स की तरफ़ रुख कर रहा है जो आनुवंशिकी पर पर्यावरणीय प्रभाव को पर्याप्त महत्ता देता है. इस तरह से किसी भी वैज्ञानिक धारणा के बनने-बनाने की प्रक्रिया और कैसे उसमें निरंतर सुधार की संभावना बनी रहती है, इसको समझने के लिए डार्विनवाद से बेहतर थ्योरी शायद ही कोई है. इसकी आलोचना भी तभी कारगर है जब वह डार्विन को गहराई से पढ़-समझ कर की जाए.
कुल मिलाकर कहें तो क्रमिक विकास जीव विज्ञान की धुरी है और डार्विनवाद क्रमिक विकास को समझने की बुनियाद. इन्हें पाठ्यक्रम से निकालना विज्ञान की कक्षा के इकोसिस्टम को बिगाड़ना है.
(लेखक क्रिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाती हैं.)