कौन हैं अयोध्या के वे ‘संत’, जो यौन उत्पीड़न के आरोपी बृजभूषण शरण सिंह का बचाव कर रहे हैं?

पहलवानों के यौन उत्पीड़न के आरोपों का सामना कर रहे भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह के समर्थन में अयोध्या के 'संतों' का एक समूह मुखर है और आरोप लगाने वाली महिलाओं का विरोध कर रहा है. साथ ही पॉक्सो क़ानून को 'दोषपूर्ण' बताते हुए इसमें बदलाव की मांग भी उठा रहा है.

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अयोध्या में महंत मिथलेशनन्दिनी शरण के आश्रम में बृजभूषण शरण सिंह. (फोटो साभार: फेसबुक/@brijbhushansharan)

पहलवानों के यौन उत्पीड़न के आरोपों का सामना कर रहे भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह के समर्थन में अयोध्या के ‘संतों’ का एक समूह मुखर है और आरोप लगाने वाली महिलाओं का विरोध कर रहा है. साथ ही पॉक्सो क़ानून को ‘दोषपूर्ण’ बताते हुए इसमें बदलाव की मांग भी उठा रहा है.

अयोध्या में महंत मिथलेशनन्दिनी शरण के आश्रम में बृजभूषण शरण सिंह. (फोटो साभार: फेसबुक/@brijbhushansharan)

देश की कई नामचीन महिला पहलवानों के यौन उत्पीड़न के आरोपी भारतीय जनता पार्टी के सांसद और रेसलिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह ने ‘अयोध्या के संतों’ के ‘मुखर समर्थन’ के बावजूद आगामी पांच जून को वहां के रामकथा पार्क में आगामी पांच जून को प्रस्तावित ‘देश भर के संतों की’ जनचेतना महारैली अचानक स्थगित क्यों कर दी, इस सवाल के जवाब में कई कारण गिनाए, स्वीकार किए और नकारे जा सकते हैं, लेकिन इस दौरान उन्हें समर्थन को लेकर धर्मसत्ता और पितृसत्ता का जैसा गठजोड़ सामने आया, उससे विचलित तो हुआ था सकता है, लेकिन इनकार नहीं किया जा सकता.

लेकिन जो लोग धर्मसत्ताओं व पितृसत्ताओं के चोली और दामन जैसे साथ से परिचित हैं, उन्हें इसको लेकर उतना भी आश्चर्य नहीं है, जितना कई हलकों में इस मामले में नरेंद्र मोदी सरकार की महिला मंत्रियों द्वारा साध ली गई चुप्पी को लेकर या नए संसद भवन के उद्घाटन के अवसर पर हुए धार्मिक कर्मकांड में महिलाओं की विरल उपस्थिति और उससे भी विरल भागीदारी को लेकर जताया जा रहा है.

अलबत्ता, कई लोग इसे लेकर चकित हैं कि जब मोदी सरकार तमाम जगहंसाई झेलकर भी बृजभूषण के बचाव में लगी दिख रही है, तब भी वे इतनी ‘असुरक्षा’ महसूस कर रहे हैं कि उन्हें इस तरह के समर्थनों की जरूरत पड़ रही है और ‘संत’ हैं कि उनकी यह ज़रूरत पूरी करने के लिए धर्म सत्ता के स्त्री विरोध की एक और नज़ीर बनाने से नहीं बच पा रहे.

बहरहाल, ज्यादातर लोग जानते हैं कि पितृसत्ता द्वारा पोषित कोई भी सत्ता या व्यवस्था तभी किसी पीड़ित महिला के पक्ष में खड़ी होती है, जब उसकी निगाह में वह महिला इतनी ‘अपनी’ हो कि उसके मान-अपमान को अपनी नाक का सवाल बनाकर लड़ने में गौरव का अनुभव किया जा सके. इसके लिए भी वह उस महिला को पीड़ा पहुंचाने वाले पुरुष का दूसरे पक्ष का होना जरूरी समझती है क्योंकि अपने पक्ष के पुरुषों द्वारा पहुंचाई गई पीड़ा को तो वह पीड़ा ही नहीं मानती और उसे पहुंचाना उनका हक समझती है.

इस बात को इस तरह भी समझ सकते हैं कि महाराष्ट्र में शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे 2019 में ‘दूसरे’ पाले में जाकर राज्य के मुख्यमंत्री बने और उन्होंने फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत, जिन्हें उस पाले में माना जाता है, जिसे वे छोड़ गए थे, के बंगले का कुछ हिस्सा अतिक्रमण के नाम पर ढहवाने में अपनी शक्तियों का ‘दुरुपयोग’ किया, तो इसी अयोध्या के कई ‘संतों’ की निगाह में वे खलनायक बन गए थे. तब ये ‘संत’ कंगना के प्रति सहानुभूति व समर्थन से इतने भरे हुए थे कि अपनी सरकार के सौ दिन पूरे होने पर उद्धव द्वारा की जाने वाली अयोध्या यात्रा भी उन्हें गवारा नहीं थी.

लेकिन देश की पहलवान बेटियां कंगना जितनी सौभाग्यशाली नहीं हैं क्योंकि बृजभूषण ने उद्धव की तरह पक्ष नहीं बदला है, वे अभी भी ‘संतों के सगे’ बने हुए हैं और पहलवान बेटियां उनके पक्ष के बजाय विपक्ष में हैं.

यों, स्थिति का एक और पक्ष भी है. यह कि उस मीडिया की कृपा से, जो पहलवान बेटियों का यह अनुरोध भी नहीं मान रहा कि जिसके खिलाफ इंसाफ पाने के संघर्ष में वे इतने पापड़ बेल रही हैं, उसे हीरो न बनाए और उनके बारे में उसकी अशोभनीय टिप्पणियां प्रसारित न करे, आप तक जो ख़बरें पहुंच रही हैं, उनसे आभास होता है कि अयोध्या के सारे संत-महंत एकजुट होकर बृजभूषण शरण सिंह के पक्ष में उमड़ पड़े हैं और वे पांच जून की प्रस्तावित रैली में आर या पार करके रख देंगे, जबकि यह पूरा सच नहीं है.

अयोध्या के संतों-महंतों में पंथों, मतों, मान्यताओं और संप्रदायों आदि पर आधारित व्यापक वैभिन्य है और भले ही कहा जाता हो कि जाति न पूछो साधु की, उनमें जाति आधारित विभाजन भी हैं. इनके मद्देनजर वे प्रायः बहुत एकजुट नहीं हो पाते. इस मामले में भी उनका जो हिस्सा बृजभूषण के पक्ष में मुखर है, वह वही है, जो अपने वर्चस्व की बिना पर हिंदुत्व की पैरोकारी करता व भाजपा और विश्व हिंदू परिषद के हित साधता रहा है.

यह बात और है कि ये पंक्तियां लिखने तक भाजपा इस सारे घटनाक्रम से खुद को अलग दिखाने की कोशिश कर रही है.

मणिरामदास की छावनी के महंत कमलनयन दास, जो बृजभूषण के समर्थन के अभियान में सबसे आगे चल रहे हैं, श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के अध्यक्ष महंत नृत्यगोपाल दास के उत्तराधिकारी होने के कारण स्वाभाविक रूप से हिंदुत्ववादी हैं.

इसी तरह, जो महंत मिथिलेशनन्दिनी शरण इस अभियान में कुछ ज्यादा ही सक्रिय होकर 2012 में लाए गए पॉक्सो एक्ट के खोट गिनाते हुए उसे कई महानुभावों की ‘चरित्रहत्या’ व मीडिया ट्रायल का वायस बता रहे और उसमें संशोधन की मांग कर रहे हैं, वे गत अप्रैल में अपनी एक लंबी फेसबुक पोस्ट को लेकर चर्चा में आए थे.

उक्त पोस्ट में उन्होंने सवाल उठाया था कि अगर सत्ता व्यवस्था अयोध्या को अयोध्या ही न रहने दे तो क्या वहां श्री राम रह पाएंगे? लेकिन बाद में उन्होंने अपना रुख बदल लिया और अपने द्वारा की गई इस आलोचना की सफाई देने पर उतर आए थे.

कहते हैं कि बृजभूषण शरण सिंह पर पॉक्सो के तहत एफआईआर से पहले उन्हें इस कानून में कभी कोई खामी नहीं दिखी थी. लेकिन अब वे कह रहे हैं कि इस कानून के रहते तो किसी संत द्वारा आशीर्वाद देने के लिए किसी अवयस्क के सिर पर रखे गए हाथ को भी ‘बैड टच’ मानकर उस पर कार्रवाई की जा सकती है.

यहां जानना जरूरी है कि अयोध्या बृजभूषण के छात्र नेता से हिंदुत्ववादी नेता और बाहुबली आदि बनने की साक्षी रही है. वे उसके प्रतिष्ठित कामता प्रसाद सुंदर लाल साकेत पीजी कॉलेज के छात्र और छात्र संघ के पदाधिकारी भी रहे हैं. बाद में 1992 में वे बाबरी मस्जिद के ध्वंस के मामले में अभियुक्त बने और गिरफ्तार भी किए गए थे. तभी से उन्हें इसका भरपूर गर्व भी रहता आया है.

लंबे संग-साथ के कारण न अयोध्या में उनसे उपकृत महसूस करने वालों की कमी है, न उन्हें उपकृत करने व उनके बहुत नजदीक होने का दावा करने वालों की. वैसे भी उनके गृह जिले और अयोध्या के बीच सरयू नदी के इस और उस पार का ही फर्क है. दोनों पार यानी भाजपा के अंदर भी और बाहर भी उनके अनेक शुभचिंतक पाए जाते हैं क्योंकि उन्हें ‘आड़े वक्त काम आने वाला प्रभावशाली आदमी’ या कि बाहुबली माना जाता है.

भाजपा की पार्टी लाइन के भी वे बहुत पाबंद नहीं रहते क्योंकि चुनाव जीतने के लिए उसके टिकट से ज्यादा अपने निजी प्रभाव, कहना चाहिए, हनक पर निर्भर करते रहे हैं.

पिछले साल भाजपा एक खास रणनीति के तहत महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के नेता राज ठाकरे की पांच जून को प्रस्तावित अयोध्या यात्रा को परदे के पीछे से प्रायोजित कर रही थी तो बृजभूषण ने घोषणा कर दी थी कि राज ठाकरे ने उत्तर भारतीयों के अपमान के लिए माफी नहीं मांगी तो वे उन्हें अयोध्या में नहीं घुसने देंगे.

तब उन्होंने कहा था कि पहले वे भगवान राम के वंशज हैं, फिर उत्तर भारतीय और उसके बाद भाजपा के सदस्य. उन्होंने राम मंदिर आंदोलन में ठाकरे परिवार की भूमिका भी नकार दी थी. तब भी भाजपा ने उन पर अंकुश लगाने वाली कोई कार्रवाई नहीं की थी.

लेकिन वह तो वह, उसके दूसरे नेताओं की ऐसे मामलों में फंसंत उजागर होने पर उसे ले उड़ने और आसमान सिर पर उठा लेने वाली विपक्षी समाजवादी पार्टी ने भी बृजभूषण के मामले में अपना रुख बहुत ठंडा रखा है और खुद बृजभूषण की मानें, तो इसका कारण यह है कि कांग्रेस के नेताओं के विपरीत उसके सुप्रीमो अखिलेश यादव को मामले की ‘सच्चाई’ कहीं ज्यादा पता है. वे पहलवानों की दुनिया से भी कांग्रेसियों से कहीं ज्यादा वाकिफ हैं.

कुछ जानकारों का यह भी कहना है कि ‘अयोध्या के संतों’ द्वारा बृजभूषण का समर्थन दोनों पक्षों की परस्पर निर्भरता का मामला है, क्योंकि दोनों वक्त और जरूरत के हिसाब से एक दूजे की शरण गहते और एक दूजे के प्रभाव का लाभ उठाते रहते हैं. संतों में पहलवानी की भी पुरानी परंपरा रही है और बृजभूषण ने इस परंपरा के संरक्षक या उद्धारक की अपनी छवि भी बना रखी है.

दूसरी ओर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के स्थानीय नेता सूर्यकांत पांडेय सवाल करते हैं कि मीडिया उन्हें संत के बजाय संतवेशधारी क्यों नहीं लिखता? फिर खुद ही ज़वाब देते हैं: इसलिए कि उसने गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रामचरितमानस में गिनाए गए संतों के गुण व लक्षण नहीं पढ़ रखे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)