नाबालिग रेप पीड़िता की गर्भपात याचिका पर कोर्ट ने कहा- पहले महिलाएं कम उम्र में मां बन जाती थीं

गुजरात हाईकोर्ट की जस्टिस समीर दवे की एकल पीठ एक नाबालिग रेप सर्वाइवर के पिता की याचिका सुन रही थी, जिसमें उनकी बेटी के गर्भपात के लिए अनुमति मांगी गई थी. इस दौरान जस्टिस दवे ने कहा कि पहले 14 से 16 लड़कियों की शादी की सामान्य उम्र थी और 17 साल तक वे कम से कम एक बच्चे को जन्म दे देती थीं.

गुजरात हाईकोर्ट. (फोटो साभार: फेसबुक)

गुजरात हाईकोर्ट की जस्टिस समीर दवे की एकल पीठ एक नाबालिग रेप सर्वाइवर के पिता की याचिका सुन रही थी, जिसमें उनकी बेटी के गर्भपात के लिए अनुमति मांगी गई थी. इस दौरान जस्टिस दवे ने कहा कि पहले 14 से 16 लड़कियों की शादी की सामान्य उम्र थी और 17 साल तक वे कम से कम एक बच्चे को जन्म दे देती थीं.

गुजरात हाईकोर्ट. (फोटो साभार: फेसबुक)

नई दिल्ली: एक नाबालिग रेप पीड़िता के पिता की उनकी बेटी के गर्भपात की अपील की सुनवाई में गुजरात हाईकोर्ट ने कहा कि पहले के ज़माने में सत्रह साल की उम्र तक लड़कियां कम से कम एक बच्चे को जन्म दे देती थीं.

बार एंड बेंच के अनुसार, ऐसी टिप्पणी करते हुए जस्टिस समीर दवे की एकल पीठ ने मनुस्मृति का जिक्र भी किया, जिस पर ‘जातिवादी’ और ‘स्त्री-द्वेषी’ होने के आरोप लगते रहे हैं.

नाबालिग लड़की के वकील सिकंदर सैयद ने बताया कि सर्वाइवर 16 साल और 11 महीने की हैं और उन्हें सात महीने का गर्भ है. उन्होंने यह भी जोड़ा कि गर्भावस्था का उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा.

जस्टिस दवे ने इस पर जवाब दिया कि महिलाएं इस तरह की प्रथा की आदी रही हैं.

उन्होंने कहा, ‘क्योंकि हम 21वीं सदी में जी रहे हैं… जाकर अपनी मां या परदादी से पूछिए. वे आपको बताएंगे कि पहले 14 से 16 साल लड़कियों की शादी की सामान्य उम्र थी. जब तक वे (लड़कियां) 17 साल की होती, तब तक वे कम से कम एक बच्चे को जन्म दे देती थीं.’

रिपोर्ट के मुताबिक, सैयद ने इस बात पर सहमति जताई और जोड़ा कि इस्लाम में भी ‘लड़कियों की शादी की उम्र 13 बताई गई है.’

इस पर जस्टिस दवे ने कहा कि लड़कियां लड़कों की तुलना में जल्दी बड़ी हो जाती हैं और फिर मनुस्मृति का उल्लेख किया.

उन्होंने कहा, ‘मसला यह है कि लड़कियां लड़कों से जल्दी बड़ी हो जाती हैं. चार-पांच महीने ऊपर-नीचे होने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता. यह मनुस्मृति में भी लिखा है. मुझे मालूम है कि आप नहीं पढ़ेंगे लेकिन फिर भी, इसे एक बार पढ़िए.’

हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक, जस्टिस दवे ने ‘भ्रूण को समाप्त करने की प्रक्रिया के दौरान बच्चे के जीवित पैदा होने’ की संभावना के बारे में भी चिंता व्यक्त की.

उन्होंने कहा, ‘अगर ऐसा होता है, तो बच्चे की देखभाल कौन करेगा? क्या अदालत बच्चे को खत्म करने की अनुमति दे सकती है, अगर वह जीवित पैदा हो? ‘

उन्होंने वकील से कहा कि अदालत समाज कल्याण विभाग से परामर्श करने का इरादा रखती है. उन्होंने कहा, ‘आप भी गोद लेने के विकल्पों की तलाश शुरू करें.’

अदालत ने राजकोट सिविल अस्पताल के मेडिकल सुप्रिटेंडेंट को एक पैनल बनाने, नाबालिग सर्वाइवर की जांच करने और 15 जून को अगली सुनवाई से पहले भ्रूण को चिकित्सकीय तरीके से समाप्त करने की संभावना पर अपनी रिपोर्ट देने का आदेश दिया.

उल्लेखनीय है कि पिछले साल दिल्ली हाईकोर्ट की एक जज ने की मनुस्मृति की तारीफ़ की थी और कहा था कि मनुस्मृति में महिलाओं को बहुत सम्मानजनक स्थान दिया गया है. हालांकिम सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस पर आपत्ति जताई थी.

उनका कहना था कि जज ने जिन ग्रंथों का हवाला दिया वे सीधे तौर पर संविधान और भारत की महिलाओं, विशेष रूप से दलित और आदिवासी महिलाओं को मिले अधिकारों के घोर विरोधी हैं.

ज्ञात हो कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) अधिनियम (2021 में संशोधन के बाद) बलात्कार की सर्वाइवर को 24 सप्ताह तक के गर्भ को चिकित्सकीय तरीके से समाप्त करने की अनुमति देता है. अदालत द्वारा केवल पर्याप्त भ्रूण असामान्यताओं के मामले में ही 24 सप्ताह से अधिक की अवधि वाले गर्भात की अनुमति दी जाती है.

उल्लेखनीय है कि बीते साल सितंबर में महिलाओं के प्रजनन अधिकारों पर एक महत्वपूर्ण फैसले में शीर्ष अदालत ने पहले कहा था कि एमटीपी अधिनियम के तहत सभी महिलाएं गर्भावस्था के 24 सप्ताह तक सुरक्षित और कानूनन गर्भपात कराने की हकदार हैं और उनकी वैवाहिक स्थिति के आधार पर कोई भेदभाव ‘संवैधानिक रूप से सही नहीं’ है.

जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस एएस बोपन्ना की पीठ का कहना था कि प्रजनन स्वायत्तता के नियम विवाहित या अविवाहित दोनों महिलाओं को समान अधिकार देते हैं.

शीर्ष अदालत ने अहम फैसले में यह भी जोड़ा था कि प्रजनन अधिकार व्यक्तिगत स्वायत्तता का हिस्सा है और क्योंकि भ्रूण का जीवन महिला के शरीर पर निर्भर करता है, ऐसे में इसे ‘समाप्त करने का निर्णय शारीरिक स्वायत्तता के उनके अधिकार में निहित है.’

पीठ ने कहा था, ‘अगर राज्य किसी महिला को अनचाहे गर्भ को इसकी पूरी अवधि तक रखने के लिए मजबूर करता है तो यह उसकी गरिमा का अपमान करना है.’