कोरोमंडल एक्सप्रेस तो पटरी पर वापस आ गई, लेकिन व्यवस्थागत जोखिम बने हुए हैं

कोलकाता और चेन्नई के बीच मुख्य ट्रंक रूट पर कोरोमंडल एक्सप्रेस के संचालन की बहाली राहत की असली वजह नहीं बन सकती क्योंकि भारतीय रेलवे की जोखिमपूर्ण व्यवस्थागत ख़ामियां अभी दूर नहीं हुई हैं.

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ओडिशा में ट्रेन हादसे के बाद जारी राहत और बचाव कार्य. (फोटो साभार: ट्विटर)

कोलकाता और चेन्नई के बीच मुख्य ट्रंक रूट पर कोरोमंडल एक्सप्रेस के संचालन की बहाली राहत की असली वजह नहीं बन सकती क्योंकि भारतीय रेलवे की जोखिमपूर्ण व्यवस्थागत ख़ामियां अभी दूर नहीं हुई हैं.

ओडिशा में ट्रेन हादसे के बाद जारी राहत और बचाव कार्य. (फोटो साभार: ट्विटर)

बीते सप्ताह कोरोमंडल एक्सप्रेस फिर पटरी पर लौट आई. इस दौरान यह बालासोर से आराम से गुजर गई, हालांकि इस महीने की शुरुआत में हुई तीन ट्रेनों की दुखद टक्कर हमें लंबे समय तक परेशान करेगी.

यह भीषण दुर्घटना कैसे हुई और सिग्नलिंग तंत्र की विफलता के कारण क्या रहे, यह पता लगाने के लिए दो अलग-अलग जांचें चल रही है.

हालांकि, व्यवस्थागत मसले अभी बने हुए हैं. कोलकाता और चेन्नई के बीच मुख्य ट्रंक रूट पर कोरोमंडल एक्सप्रेस के संचालन की बहाली से ज्यादा राहत नहीं मिल सकती है क्योंकि भारतीय रेलवे की जोखिमपूर्ण प्रणालीगत खामियां दूर नहीं हुई हैं. कोई नहीं जानता कि वे फिर कब सिर उठा लेंगी और किसी दुर्घटना या रेल के पटरी से उतरने के रूप में सामने आ जाएंगी!

प्रणालीगत सुरक्षा संबंधी समस्याओं की जड़ क्या है? इस मुद्दे के मूल पर बीते दिनों इंडियन एक्सप्रेस ने भारतीय रेलवे की इंजीनियरिंग सेवाओं के एक सेवानिवृत्त अधिकारी आलोक वर्मा के हवाले से सामने रखा. उन्होंने तर्क दिया कि लगभग 10,000 किलोमीटर ट्रंक मार्गों- दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई के चार महानगरों के बीच यातायात की भीड़ सर्वाधिक है और इसकी 125% क्षमता का उपयोग किया जाता है.

वर्मा ने आगे स्क्रॉल वेबसाइट को बताया कि सुरक्षा कारणों से 90% क्षमता उपयोग की सीमा को उचित माना जा सकता है. अधिकांश आधुनिक रेल प्रणालियां इस सिद्धांत का पालन करती हैं. समस्या 10,000 किमी ट्रंक रूट तक सीमित है, हालांकि भारत की कुल रूट लंबाई लगभग 70,000 किमी है.

वर्मा कहते हैं कि इन ट्रंक मार्गों (कोरोमंडल एक्सप्रेस ऐसे ही ट्रंक रूट पर चलती है) पर केंद्रित इतनी अधिक क्षमता के उपयोग के चलते ट्रैक, इलेक्ट्रिकल और सिग्नल इंफ्रास्ट्रक्चर के नियमित रखरखाव से गंभीर समझौता करता है. मोदी सरकार को इसका जवाब देना चाहिए.

यदि ट्रेनें लगातार पटरियों पर होती हैं, तो गड़बड़ियों को जानने और रखरखाव के लिए समय नहीं बचता है. इस कॉमन सेन्स की बात को नजरअंदाज कर दिया गया है और ट्रंक मार्गों पर क्षमता उपयोग में भारी वृद्धि को प्रोत्साहित किया जा रहा है. क्षमता उपयोग में इस बड़ी वृद्धि से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ है, मोदी सरकार का रेलवे में अभूतपूर्व तरह से पूंजी निवेश पर जोर देना, ज्यादा से ज्यादा फ़ास्ट ट्रेनें बनाना, दूरदराज के क्षेत्रों में नई ट्रेन का स्टॉक और नए ट्रैक बनाना. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद में रेलवे में निवेश के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिबद्धता पर जोर देने की कोशिश में बताया था कि 2023-24 में रेलवे में पूंजी परिव्यय 2013-14 की तुलना में नौ गुना है.

लेकिन बड़े निवेश को बढ़ावा देने के बावजूद सुरक्षा को गंभीर नुकसान पहुंचा है. कैग की रिपोर्ट इशारा करती है कि सुरक्षा बजट या तो अपर्याप्त हैं, या बहुत कम इस्तेमाल किए गए हैं, या दोनों ही कारण हैं. रेल व्यय में समग्र वृद्धि के अनुपात में सुरक्षा पर व्यय में स्पष्ट रूप से गिरावट आई है.

मूलभूत समस्या ज्यादा इस्तेमाल किए जाने वाले ट्रंक मार्गों में बनी हुई है, जैसे कि जहां बालासोर दुर्घटना हुई थी. 8 फरवरी को कर्नाटक में संपूर्ण क्रांति एक्सप्रेस से जुड़ा एक ऐसा ही हादसा, जिसे चेतावनी के रूप में इस्तेमाल देखा जाना चाहिए था, टल गया. कर्नाटक में सतर्क ड्राइवर ने अपनी ट्रेन को गलत तरीके से लूप लाइन पर मुड़ते देखा, जहां से एक मालगाड़ी आ रही थी. उनकी ट्रेन शायद कोरोमंडल एक्सप्रेस की तुलना में बहुत धीमी चल रही थी और उनके पास समय पर ब्रेक लगाने की सहूलियत थी. यह मामला रेलवे बोर्ड तक पहुंचा था.

लेकिन रेलवे बोर्ड 125% क्षमता उपयोग के बारे में क्या कर सकता है, जिसके चलते सुरक्षा के लिए बेहद कम समय बचता है? आलोक वर्मा का कहना है कि कुछ दशक पहले चीन में भी यही समस्या थी. 1997 में चीन के पास 66,000 किमी रेल मार्ग था, जो 2022 तक बढ़कर 1,55,000 किमी हो गया था. चीन 300-350 किमी प्रति घंटे की गति से अल्ट्रा हाई स्पीड ट्रेन चलाने के लिए इसके समानांतर ज्यादा ट्रंक रूट बना रहा है. लेकिन पिछले कुछ सालों में इसने बड़े शहरों को जोड़ने वाले अपने पुराने ट्रंक रूट नेटवर्क को भी अपग्रेड किया है. इससे चीन अलग-अलग सेगमेंट में अलग-अलग हाई स्पीड पर ट्रेन चला सकता है.

ऐसा लगता है कि भारत अभी भी 120-130 किमी प्रति घंटे की स्पीड से जूझ रहा है, यहां तक कि ट्रैक नवीनीकरण और रखरखाव की उपेक्षा की जाती है, खासकर ट्रंक मार्गों पर. जब तक इन रास्तों पर ट्रैफिक को पर्याप्त रूप से कम नहीं किया जाता है, तब तक सुरक्षा से समझौता होता रहेगा और पिछले 10-15 वर्षों में जैसी दुर्घटनाएं हुईं, वैसी होती रहेंगी. सरकार का तर्क है कि इस तरह की दुर्घटनाओं में मामूली गिरावट आई है, लेकिन आधुनिक रेल प्रणालियों में ऐसी घटनाएं बहुत दुर्लभ हैं, चाहे पश्चिम देशों की बात हो या चीन और जापान की.

मोदी के ‘स्पीड और स्केल’ के नारे की रेलवे आधुनिकीकरण के संदर्भ में व्यापक रूप से समीक्षा करने की जरूरत है और इसमें सुरक्षा को तत्काल प्राथमिकता दी जानी चाहिए.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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