ये विवादास्पद ग़ैर न्यायिक हत्याएं 1998 और 2001 के बीच असम में तब हुई थीं, जब प्रफुल्ल कुमार महंत राज्य के मुख्यमंत्री थे और गृह विभाग भी संभाल रहे थे. इन हत्याओं को गुप्त हत्या के नाम से जाना जाता है. इनमें प्रतिबंधित उग्रवादी संगठन उल्फा से जुड़े लोगों के रिश्तेदारों सहित क़रीबी सहयोगियों को गोली मार दी जाती थी.
नई दिल्ली: असम के पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत को ‘गैर न्यायिक हत्याओं’ के आरोपों से बरी करते हुए गौहाटी हाईकोर्ट ने इस संबंध में दायर हस्तक्षेप याचिका खारिज कर दी है.
याचिका पर बीते सोमवार को सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश संदीप मेहता की खंडपीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता अपने दावे के समर्थन में पर्याप्त सबूत पेश नहीं कर पाए.
हाईकोर्ट ने अपने 2018 के उस फैसले को बरकरार रखा, जिसमें असम के पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत को राज्य में गैर-न्यायिक हत्याओं (Extra-Judicial Killings) के लिए जिम्मेदार ठहराने वाली एक खोजी संस्था के गठन को रद्द कर दिया गया था.
1998 और 2001 के बीच आत्मसमर्पण करने वाले उल्फा कैडरों की मिलीभगत से पुलिस द्वारा कम से कम 400 लोगों – प्रतिबंधित यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) के परिवार के सदस्यों, रिश्तेदारों और उसके समर्थकों को कथित तौर पर मार दिया गया था. उल्फा पर दबाव डालने के लिए की गई इन हत्याओं को ‘गुप्त हत्या’ के रूप में जाना जाता है.
मुख्य न्यायाधीश संदीप मेहता ने अदालत के 2018 के फैसले को चुनौती देने वाले एक प्रस्ताव पर सुनवाई के बाद यह फैसला सुनाया.
द हिंदू के एक रिपोर्ट के मुताबिक, न्यायाधीश ने कहा, ‘आवेदक न केवल अपील दाखिल करने में हुई 531 दिनों की सकल देरी को समझाने में विफल रहे हैं, बल्कि उन्होंने (अपने) हलफनामों में असंगत और विरोधाभासी दलीलें भी दी हैं.’
महंत ने कोर्ट के फैसले का स्वागत किया.
महंत ने मामले पर अंतिम फैसला आने के एक दिन बाद बीते मंगलवार (13 जून) को गुवाहाटी में मीडिया से बातचीत में कहा, ‘अदालत के फैसले ने न्यायपालिका में मेरे विश्वास की फिर से पुष्टि की है. मैं सच्चाई का समर्थन करने और यह बनाए रखने के लिए अदालत को धन्यवाद देता हूं कि मेरे खिलाफ लगाए गए आरोप कुछ राजनेताओं और राजनीतिक दलों द्वारा मेरी छवि खराब करने की साजिश का हिस्सा थे.’
दो बार के मुख्यमंत्री रहे महंत पिछले कई महीनों से बीमार चल रहे हैं.
असम के राज्यसभा सांसद अजीत कुमार भुइयां और अनंत कलीता कथित रूप से उल्फा समर्थक एक युवा संगठन से जुड़े होने के कारण 18 सितंबर, 1999 को सिर में गोली लगने के बाद भी बाल-बाल बच गए थे.
दोनों ने 3 सितंबर, 2018 को महंत को क्लीनचिट देने के गौहाटी हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए लिमिटेशन एक्ट की धारा 5 के तहत एक आवेदन दायर किया था.
अदालत के 12 जून के आदेश में कहा गया है, ‘आवेदक न केवल अपील दायर करने में हुई 531 दिनों की सकल देरी को समझाने में विफल रहे हैं, बल्कि उन्होंने तीन हलफनामों में असंगत और विरोधाभासी दलीलें भी दी हैं.’
द हिंदू के मुताबिक, ‘गुप्त हत्याओं’ का ये मामला तब हुआ था, जब असोम गण परिषद (एजीपी), जो अब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की एक सहयोगी है, सत्ता में थी और प्रफुल्ल कुमार महंत मुख्यमंत्री होने के साथ और गृह विभाग भी संभाले हुए थे.
तरुण गोगोई के नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इन हत्याओं की जांच के लिए केएन सैकिया आयोग का गठन किया था. इसे मोटे तौर पर 2001 के विधानसभा चुनावों में एजीपी की हार का एक प्रमुख कारक माना जाता है.
आयोग ने अपनी रिपोर्ट किश्तों में प्रस्तुत की थी और कार्रवाई रिपोर्ट (Action Taken Report) 15 अक्टूबर, 2007 को प्रस्तुत की गई थी.
सैकिया आयोग ने इनमें से कुछ मामलों के बीच समानताएं पाईं और गृह विभाग की ओर इशारा करते हुए उनके ‘उच्च अधिकारियों के निर्देश पर’ अंजाम दिए जाने की बात कही थी.
हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, गौहाटी हाईकोर्ट की एकल-न्यायाधीश की पीठ ने सितंबर 2018 में सैकिया आयोग के गठन को इस आधार पर रद्द कर दिया कि इन गैर न्यायिक हत्याओं की जांच कर रहे पिछले आयोग के सक्रिय होने के बावजूद इसका गठन किया गया था.