जिनके पास सत्ता है वो ‘बात के बदले लात’ की संस्कृति चलाना चाहते हैं

कश्मीर में लोकतंत्र कमज़ोर है इसलिए अफ़ज़ल गुरु को शहीद बताने वालों के साथ सरकार चला कर उसे मजबूत करना है और दिल्ली में लोकतंत्र बहुत मजबूत है इसलिए सेमिनार में गुंडागर्दी कर के इसे कमज़ोर करना है.

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कश्मीर में लोकतंत्र कमज़ोर है इसलिए अफ़ज़ल गुरु को शहीद बताने वालों के साथ सरकार चला कर उसे मजबूत करना है और दिल्ली में लोकतंत्र बहुत मजबूत है इसलिए सेमिनार में गुंडागर्दी कर के इसे कमज़ोर बनाना है.

Ramjas College PTI
(फोटो: पीटीआई)

सरकार बहादुर से आप सहमत हैं तो आप देशभक्त हैं, वफादार हैं. अगर सहमत नहीं है तो आप गद्दार हैं, आप पाकिस्तान परस्त हैंं. आप हमलों के बीच घिरे हुए कभी अख़लाक़ होते हैं, कभी रोहित और कभी नजीब. कभी कोई भीड़ घर में घुस कर मार देती है.

कभी मानव संसाधन मंत्रालय से आती हुई चिट्ठियां अवसाद की कोठरी में आपको धकेल देतीं है और आप अपना दम घोट लेते हैं. तो कभी कोई देशभक्त संघटन आपको किसी मामूली सी बात पर इतना पीटता है कि आप अगली सुबह बिना किसी को बताए गायब हो जाते हैं, आपकी मां पागलों की तरह शहर दर शहर आपको तलाश करती है.

और देश के सबसे काबिल पुलिस उसे ये भी नहीं बता पाती कि आप जिंदा हैं या मर गए? जी हां ये बुलंद निज़ाम की बुलंद तस्वीर है और असहमति की रियायती मियाद पार करने के बाद किसी रोज़ आप भी इसका हिस्सा हो सकते हैं. ये हक़ीक़त आप देख सकें तो देखें वर्ना कल ये आपकी आंख-आंख डाल कर अपनी मौजूदगी का अहसास खुद ही करा देगी.

दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में 21, 22 फरवरी को जो घटना घटी वो साफ़ इस बात का संदेश है कि ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ बचाए रखने के लिए अब कीमत चुकानी होगी. अब अभिव्यक्ति के खतरे उठाने पड़ेंगे. क्योंकि वो जिनके पास सत्ता है वो ‘बात के बदले लात’ की संस्कृति चलाना चाहते हैं. ये अपने झूठ को सच साबित करने के लिए आपका सिर फोड़ सकते हैं. आपकी हड्डियां तोड़ सकते हैं.

आइये रामजस विवाद के बहाने देश में पनप रही ‘बात के बदले लात’ की संस्कृति को समझते हैं और ये भी समझने की कोशिश करते हैं कि वो कौन सी चीज है जिससे ये देश और धर्म ठेकेदार डरते हैं और इतना डरते हैं कि हिंसक हो जाते हैं.

रामजस कॉलेज में आयोजित सेमिनार को इस बात पर रोक दिया गया कि उमर ख़ालिद और शेहला राशिद को वहां आना था और ये दोनों लोग ठेकेदारों के हिसाब से देशद्रोही है, जबकि न्यायालय में उमर ख़ालिद के ख़िलाफ़ ठोस सबूत नहीं पेश किए जाने पर उसे जमानत मिली है और दिल्ली की काबिल पुलिस अभी तक चार्जशीट भी नहीं फ़ाइल कर पायी है.

फिर भी ठेकेदार संगठन अगर कहता है तो सबको मान लेना चाहिए. शायद ये लोग खुद को संविधान और न्यायालय से ऊपर मानते हैं. शेहला के विरोध का कारण कश्मीर पर उसका नजरिया है. जिससे ठेकेदार संगठन सहमत नहीं है. इसलिए इनकी नज़र में उसने बोलने और प्रतिवाद के सारे अधिकार खो दिए हैं. फिर चाहे यही ठेकेदार लोग कश्मीर में कुर्सी के लिए महबूबा मुफ़्ती से सहमत न होते हुए भी गठबंधन कर लें और कहें कि हम यहां लोकतंत्र को मजबूत कर रहे हैं.

तो कश्मीर में लोकतंत्र कमज़ोर है इसलिए अफ़ज़ल गुरु को शहीद बताने वालों के साथ सरकार चला कर उसे मजबूत करना है और दिल्ली में लोकतंत्र बहुत मजबूत है इसलिए सेमिनार में गुंडागर्दी कर के इसे कमज़ोर करना है. अगर भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है तो भारत के एक हिस्से के लिए लोकतंत्र का एक पैमाना और दूसरे हिस्से के लिए दूसरा क्यों है ? और अगर है तो इस पर बात कौन करेगा हम या कोई परग्रही ?

दूसरा ऐतराज जेएनयू में लगाए गए नारों पर अक्सर किया जाता है और उस बिना पर कहा जाता है कि उमर और कन्हैया ने देश विरोधी नारे लगाए हैं इसलिए ये, इनकी पार्टी और इनकी विचारधारा देश विरोधी है.

अव्वल तो ये सिद्ध नहीं हुआ है कि इन्होंने देश विरोधी नारे लगाए हैं फिर भी अगर बहस के लिए मान भी लें तो क्या मध्य प्रदेश में पकड़े गए पाकिस्तानी जासूस क्योंकि भाजपा के कार्यकर्ता थे तो क्या भाजपा और इनकी विचारधारा देश विरोधी है?

गौर करने वाली बात ये है कि उमर और कन्हैया पर लगाया गया आरोप एक वीडियो पर आधारित है और इन ग्यारह जासूसों पर एटीएस की छानबीन के आधार पर आरोप लगे हैं. इसलिए ज्यादा संगीन है.

तीसरा आरोप या ऐतराज ये है कि ये लोग आज़ादी के नारे लगाते हैं. बस्तर और कश्मीर की आज़ादी मांगते हैं और क्योंकि देश आज़ाद हो गया है इसलिए आज़ादी मांगना एक दंडनीय अपराध है और ये जिम्मेदारी ठेकेदार संगठन ने आपने हाथों में ले रखी है.

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रामजस कॉलेज में एक रैली में हिस्सा लेते छात्र. (फोटो: अनन्या वाजपेयी)

ये लोग बस्तर और कश्मीर ही नहीं केरल की भी आज़ादी चाहते हैं. कभी सुनिएगा. ये पूरे देश के लिए आजादी मांगे हैं. देश के चप्पे-चप्पे की आज़ादी, जन-जन की आज़ादी मांगते हैं ये लोग. ये भारत से नहीं भारत में आज़ादी चाहते हैं.

ये जब कश्मीर की बात करते हैं मानवीय भावना से प्रेरित हो कर वहां के बच्चों और महिलाओं पर चलती पैलेट गन से आज़ादी मांगते है. फैले हुए डर के साए से आज़ादी मांगते हैं. कभी भी गायब हो जाने के खौफ से आज़ादी मांगते हैं. हिंसा में मारे जाते हमारे जवानों के लिए इस हिंसात्मक चक्रव्यूह से आज़ादी मांगते हैं. अधर में लटकी हुई किस्मत से आज़ादी मांगते हैं.

जब बस्तर की बात करते हैं तो पुलिसिया दमन और कॉरपोरेटी शोषण से आज़ादी मांगते हैं. सरकारी एजेंसियां खुद इस बात को स्वीकार करती हैं कि आदिवासी इलाकों में पुलिस आदिवासियों के गांवों को जलाये जाने में संलिप्त रही है.

पुलिस वहां फर्जी एनकाउंटर कर रही है. पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को झूठे मुकदमों में फंसाया जा रहा है. पुलिस वहां सरकार के पोलिटिकल एजेंट्स की तरह सामाजिक कार्यकर्ताओं के पुतले जलाती हुई पाई जाती है. इस पेशे-मंज़र के खिलाफ आज़ादी चाहिए.

आज़ादी हमें भी चाहिए और तुम्हे भी चाहिए. आज़ादी मानवीय जीवन का परम लक्ष्य है और एक सभ्य समाज का अभीष्ठ भी. हमें पितृसत्ता से, गरीबी से, सामंतवाद से, लूट से, गुंडागर्दी से, अन्याय और दमन से आज़ादी चाहिए. हमें अपने पूर्वाग्रह और झूठे अहम से आज़ादी चाहिए. क्या खराबी है इस आज़ादी की मांग में.

आज़ादी की संकल्पना कन्हैया ने पूरे देश के सामने रखी थी फिर भी अगर कोई सवाल है तो संवाद का रास्ता है ही. पर संवाद का रास्ता बंद करके फसाद फैलाना एक सुनियोजित कार्यक्रम है.

दरअसल ये लोग राष्ट्रवाद के नारों तले बुनियादी सवालों को दबा देना चाहते हैं. ये लोग नहीं चाहते कि लोग सच्चाइयों से रूबरू हों. ये नहीं चाहते कि लोग बस्तर और कश्मीर पर तर्कपूर्ण बहस का हिस्सा बने. ये नहीं चाहते कि दमन और शोषण पर विमर्श हो.

ये हमें घसीट कर पोस्ट ट्रुथ एरा में ले जाना चाहते हैं. इसीलिए ये टीवी स्टूडियो से लेकर यूनिवर्सिटी, कॉलेजों और सड़कों तक हमले कर रहे हैं. चीख रहे हैं हिंसक हो रहे हैं. देश और देशभक्ति को अपने तरीके से परिभाषित कर रहे हैं. इनके लिए देशभक्त होने की पहली और आखिरी शर्त असहमति के अधिकार का त्याग है.

ये लोग इसलिए खासतौर पर हमलावर है क्योंकि कुछ लोग पूछ लेते हैं, वसुधैव कुटुम्बकम वाले देश में अपने ही गांव के दलित को पंडित जी और ठाकुर साहब पानी क्यों नहीं पीने देते?

वो पूछ लेते हैं महिलाओं को शक्तिस्वरूपा मानने वाले देश में अठारह साल की बहन के साथ पांच साल का भाई रक्षा के लिए क्यों भेजा जाता है ? जब सभी लोग अपनी बहनों की रक्षा कर रहे हैं तो हमारे समाज में बलात्कार कौन कर रहा है?

जब बच्चे बाल गोपाल का रूप है तो बाल मजदूरी और बाल यौन शोषण क्यों है ? ये सवाल चेहरे पर से नकाब खींच लेते हैं. और सच्चाई बेपर्दा हो जाती है. देश और धर्म के ठेकेदार असहज होते हैं, डरते हैं और हिंसक हो जाते हैं.

ये बाइनरी बनाते हैं, स्टीरियोटाइप गढ़ते हैं. और सवाल पूछने वाले को उसमें फंसा देते हैं. ये कभी एंटी-हिंदू कहते हैं, कभी एंटी-नेशनल. ये जानते हुए भी कि ये लोग ऐसे नहीं हैं. ये सफ़दर हाश्मी की तरह अपने साल का आगाज़ साहिबाबाद में अपने दोस्त के यहां रामचरित मानस के पाठ से कर सकते हैं. ये राही मासूम रज़ा बनकर महाभारत का संवाद लिख सकते हैं. ये साहिर लुधियानवी की तरह बेहतरीन भजन और भक्ति गीत भी लिख सकते हैं.

और कैफ़ी आज़मी बन कर हमारी ख़ून की रवानी बढ़ा देने वाला देशभक्ति गीत भी रच सकते हैं. ये सभी लोग आज़ादी मांगने वाले लोग थे. उसी विचारधारा से जुड़े थे. जिसे ये एंटी-हिंदू, एंटी-नेशनल कहते हैं. हमारी लड़ाई इन्हीं बाइनरी और स्टीरियोटाइप को तोड़ने की लड़ाई है. हमारी लड़ाई संवाद, विमर्श और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की लड़ाई है. हमारी लड़ाई आर्गुमेंटेटिव इंडिया को बचाने की लड़ाई है.

(लेखक बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ में जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग में शोध छात्र हैं )