किसी अपराध में दोषी पाए गए सदन के सदस्यों पर आजीवन प्रतिबंध की मांग करने वाली याचिका सुनते हुए कोर्ट ने कहा कि जब विधायिका छह साल के प्रतिबंध की बात करती है तो हम आजीवन प्रतिबंध की बात कैसे कह सकते हैं. कोर्ट ने जोड़ा कि अदालतें दोषी सांसदों/विधायकों के लिए अयोग्यता की अवधि निर्दिष्ट नहीं कर सकतीं.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (11 जुलाई) को कहा कि अदालतें अपराध में दोषी साबित हो चुके सांसदों/विधायकों को जीवनभर के लिए चुनाव लड़ने से नहीं रोक सकती हैं क्योंकि विधायिका ने निषेधाज्ञा को छह साल के लिए सीमित किया है. इस तरह शीर्ष अदालत ने ऐसे मामलों में आजीवन प्रतिबंध की मांग करने वाली याचिका पर विचार करने में असमर्थता व्यक्त की.
हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक, भारत के मुख्य न्यायाधीश धनंजय वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि विधायकों पर प्रतिबंध लगाना विधायी नीति का मामला है. पीठ में जस्टिस पीएस नरसिम्हा भी शामिल थे. पीठ ने याचिकाकर्ता और वकील अश्विनी उपाध्याय से पूछा, ‘आख़िरकार यह विधायी नीति का मामला है. जब विधायिका छह साल का कहती है तो हम आजीवन प्रतिबंध का कैसे कह सकते हैं?’
इस पर प्रतिक्रिया देते हुए उपाध्याय ने कहा कि उन्होंने जन प्रतिनिधित्व क़ानून- 1951 के प्रासंगिक प्रावधान को भी चुनौती दी है, जो कहता है कि कम से कम दो साल के लिए जेल की सजा पाने वाला एक कानून निर्माता (सदन का सदस्य) सजा की तारीख से अयोग्य रहेगा और अपनी रिहाई के बाद के अगले छह सालों तक अयोग्य बना रहेगा.
लेकिन पीठ ने जवाब दिया, ‘अगर हम आपसे सहमत हैं और इसे असंवैधानिक पाते हैं तो हम प्रावधान को रद्द कर सकते हैं, लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि आजीवन प्रतिबंध होना चाहिए. ऐसा करना अदालतों का काम नहीं है.’
मामले को चार सप्ताह के बाद विस्तृत सुनवाई के लिए स्थगित करते हुए पीठ ने उपाध्याय से कहा कि अदालतें दोषी सांसदों/विधायकों के लिए अयोग्यता की अवधि निर्दिष्ट नहीं कर सकती हैं और इसका दायरा प्रावधान को दी गई चुनौती की वैधता की जांच करने तक ही सीमित है.
बता दें कि 2016 में दायर एक लंबित जनहित याचिका (पीआईएल) में उपाध्याय ने दोषी सदन के सदस्यों पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की मांग की थी. बाद में दिए आवेदन के माध्यम से उन्होंने अयोग्यता को छह साल तक सीमित करने वाले जन प्रतिनिधित्व कानून के विभिन्न प्रावधानों की वैधता को चुनौती दी.
याचिकाकर्ता-वकील ने एक ओर दोषी सदन के सदस्यों और दूसरी ओर दोषी लोकसेवकों के लिए सजा के विभिन्न मानकों पर सवाल उठाया, और मांग की कि चुनाव लड़ने या किसी राजनीतिक दल का नेतृत्व करने पर विधायकों/सांसदों पर भी प्रतिबंध का समान नियम लागू किया जाना चाहिए.
उपाध्याय की याचिका का विरोध करते हुए केंद्र सरकार ने दिसंबर 2020 में अपना हलफनामा दायर किया था. नौकरशाहों और सांसदों या विधायकों के बीच अंतर करते हुए हलफनामे में कहा गया कि लोकसेवक ‘सेवा शर्तों’ के अधीन होते हैं, जबकि सांसदों/विधायकों के लिए ऐसी कोई शर्तें मौजूद नहीं हैं.
इसमें आगे कहा गया था, ‘इसके बजाय वे जनप्रतिनिधित्व कानून द्वारा शासित होते हैं जहां अधिनियम के तहत निर्धारित अपराध के लिए दोषी पाए जाने पर चुनाव लड़ने से छह साल की अयोग्यता निर्धारित है, तब जब सजा दो साल और उससे अधिक हो.’
हलफनामे में पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन बनाम भारत सरकार मामले में 2019 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया गया था, जिसमें अदालत ने कहा था: ‘हालांकि राजनीति में अपराधीकरण एक कड़वा प्रकट सत्य है जो लोकतंत्र की इमारत के लिए एक दीमक है, लेकिन अदालत कानून नहीं बना सकती.’ सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को ध्यान में रखते हुए केंद्र ने कोर्ट से याचिका खारिज करने के लिए कहा था.
मार्च 2017 में एक हलफनामा दायर करते हुए भारतीय निर्वाचन आयोग (ईसीआई) ने कहा था कि सांसदों और विधायकों के मुकदमे एक साल के भीतर समाप्त हो जाएं और ऐसे दोषियों को राजनीतिक प्रक्रिया से आजीवन प्रतिबंधित किया जाए, यह सुनिश्चित करने के लिए निर्देश देने की मांग करने वाली उपाध्याय की याचिका ‘हानिकर नहीं’ है. हलफनामे में कहा गया था, ‘…उत्तर देने वाला प्रतिवादी (ईसीआई) याचिकाकर्ता द्वारा उठाए गए कारण का समर्थन करता है.’