नई दिल्ली: मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने बुधवार (12 जुलाई) को कहा कि वह मणिपुर में जातीय हिंसा और ‘क्षेत्र में मानवाधिकारों की रक्षा करने में भारतीय अधिकारियों की अक्षमता’ से ‘चिंतित’ है. संगठन ने शांति की बहाली के लिए सरकार से सिविल सोसायटी समूहों और सभी जातीय समूहों के सदस्यों के साथ मिलकर काम करने का आग्रह किया.
मानवाधिकार के क्षेत्र में काम करने वाले इस एनजीओ ने एक सार्वजनिक बयान जारी कर मणिपुर में जारी हिंसा के संबंध में अपनी चिंता व्यक्त की है. इसमें हिंसा के पीड़ितों के बयान शामिल हैं और अंतरराष्ट्रीय कानून के प्रति भारत की प्रतिबद्धता पर प्रकाश डाला गया है.
‘भारत: मणिपुर में बेतहाशा हत्याएं, हिंसा और मानवाधिकारों का हनन’ (India: Wanton killings, violence, and human rights abuses in Manipur) शीर्षक के साथ जारी बयान को 6 खंडों में विभाजित किया गया है, जिसमें हिंसा के पीछे की पृष्ठभूमि, हिंसा की जातीय धुरी, पुलिस ज्यादतियों की रिपोर्ट, शरणार्थियों के विवरण और इंटरनेट शटडाउन एवं अन्य पर चर्चा की गई है.
अपने बयान की शुरुआत में एमनेस्टी ने हिंसा के दौरान मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ बोलने वाले कार्यकर्ताओं और विद्वानों के खिलाफ प्रतिशोध की कार्रवाई पर ध्यान दिया है.
इसके उदाहरणों में मणिपुर की एक स्थानीय अदालत द्वारा द वायर को साक्षात्कार देने वाले तीन लोगों – जिसमें उन्होंने राज्य के कुकी समुदाय के लिए एक अलग प्रशासन की मांग की थी – को समन दिया जाना और हिंसा को ‘सरकार प्रायोजित’ बताने वाली फैक्ट-फाइंडिंग टीम के खिलाफ पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज करना शामिल है.
मणिपुर सरकार के गृह मंत्रालय ने हिंसा को लेकर एक पुस्तिका प्रकाशित करने के लिए कुकी छात्र संगठनों के खिलाफ भी पुलिस से मामला दर्ज करने को कहा है.
एमनेस्टी ने अपने बयान में कहा, ‘भारतीय अधिकरणों को सिविल सोसायटी समूहों और सभी जातीय समूहों के समुदाय के सदस्यों के साथ मिलकर सार्थक रूप से काम करना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि मानवाधिकारों के अनुरूप शांति और सुरक्षा बहाल हो. हिंसा के पीड़ितों को सच्चाई, जवाबदेही और न्याय का अधिकार है.’
राज्य प्रशासन द्वारा ज्यादतियों की रिपोर्टों के संबंध में एमनेस्टी का कहना है कि 4 मई को सरकार द्वारा जारी ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश अंतरराष्ट्रीय कानूनी मानदंडों का पालन नहीं करते हैं.
एमनेस्टी ने राज्य में हिंसा से विस्थापित हुए लोगों से भी बात की. फैक्ट-फाइंडिंग टीमों और राज्य का दौरा करने वाली द वायर के पत्रकारों की टीम के अनुसार, हिंसा भड़कने के बाद से 60,000 से अधिक लोग विस्थापित हुए हैं.
हिंसा का शिकार होने से बचे एक व्यक्ति ने एनजीओ को बताया कि उन्हें और उनके परिवार को राहत शिविर में दो दिनों तक भोजन या पीने का पानी नहीं मिला और उनकी रहने की जगह मूल रूप से एक छप्पर था, जो बिल्कुल भी स्वच्छ नहीं था.
बीते 3 मई को शुरू हुई जातीय हिंसा के बाद राज्य में जारी इंटरनेट शटडाउन पर एमनेस्टी ने प्रकाश डाला है कि अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के प्रति भारत की प्रतिबद्धता, साथ ही सर्वोच्च न्यायालय का एक निर्णय, शटडाउन के विपरीत है.
बयान में कहा गया है, ‘राज्यीय पक्षों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए इंटरनेट कनेक्टिविटी को अवरुद्ध या बाधित नहीं करना चाहिए, जो कि नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय अनुबंध में निहित अधिकार है, जिसमें भारत एक राज्य पक्ष है. साथ ही भारत के संविधान में भी यह निहित है.’
आगे कहा गया है, ‘सूचना प्रसार प्रणालियों के संचालन पर कोई भी प्रतिबंध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों की कसौटी के अनुरूप होना चाहिए – विशेष रूप से वे कानूनी, आवश्यक और आनुपातिक होने चाहिए. ये कसौटी अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के साथ-साथ भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अनुराधा भसीन बनाम भारत संघ के फैसले में भी निर्धारित की गई थीं, जिसमें कहा गया था कि इंटरनेट प्रतिबंधों की मात्रा और दायरा आनुपातिक होना चाहिए.’
इसमें पिछले पांच वर्षों में इंटरनेट शटडाउन के मामले में भारत की वैश्विक स्थिति का भी उल्लेख किया गया है. भारत इस मामले में विश्व भर में शीर्ष पर है.
एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भारतीय अधिकारियों से राज्य में तुरंत इंटरनेट पहुंच बहाल करने को कहा है.
एमनेस्टी ने कहा, ‘पुलिस की ज्यादतियों और पुलिस द्वारा किए गए पक्षपात की रिपोर्टों की तुरंत, स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच की जानी चाहिए. भारत के सरकारी अधिकरणों को एक-दूसरे के साथ और स्थानीय समूहों के साथ समन्वय स्थापित करना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि पर्याप्त और स्वच्छतापूर्ण आवास, सुरक्षा, कपड़े, साफ पानी, पोषण और स्वास्थ्य देखभाल की आवश्यकताएं उन सभी के लिए सुलभ हों, जिन्हें अपने घर छोड़कर भागने के लिए मजबूर किया गया है.’
अधिकरणों को आंतरिक विस्थापित लोगों के स्वेच्छा से अपने घर लौटने और सुरक्षित पुनर्वास सुनिश्चित करके अपने जीवन का पुनर्निर्माण करने के अधिकार को सुविधाजनक बनाना चाहिए.
मालूम हो कि एमनेस्टी भारतीय प्राधिकरणों के निशाने पर रहा है. इसके बेंगलुरु और दिल्ली कार्यालयों पर 2019 में सीबीआई द्वारा छापा मारा गया था और इसके खाते फ्रीज होने के बाद 2020 में इसे भारत में अपने कामकाज को बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा था.
प्रवर्तन निदेशालय ने पिछले साल जुलाई में इसकी भारतीय इकाई के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में आरोप-पत्र दायर किया था और 51 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया था.
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