नरेंद्र मोदी की छवि को ख़राब करने वालीं तीस्ता सीतलवाड़ अकेली नहीं हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और भारतीय चुनाव आयोग जैसे स्वतंत्र संस्थानों ने भी अतीत में गुजरात हिंसा और मुख्यमंत्री के रूप में मोदी द्वारा चलाई गई सरकार की भूमिका पर कड़ी टिप्पणियां की थीं.
नई दिल्ली: इस साल जून में गुजरात सरकार ने अधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ द्वारा दायर जमानत याचिका का विरोध करते हुए उन्हें एक निश्चित राजनेता की ‘कठपुतली (टूल)’ करार दिया था और कहा था कि उनकी दंगों से संबंधित याचिकाओं का उद्देश्य नरेंद्र मोदी की छवि खराब करना और स्थापित सरकार को अस्थिर करना था.
सीतलवाड़ को जून 2022 में गुजरात पुलिस ने 2002 के गुजरात दंगों में मोदी को मुस्लिम विरोधी हिंसा में फंसाने के उद्देश्य से ‘झूठे गढ़े गए सबूत’ के आरोप में गिरफ्तार किया था. उक्त हिंसा में 1,000 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी. मोदी तब राज्य के मुख्यमंत्री थे.
सीतलवाड़ ने दंगा पीड़िता जाकिया जाफरी के साथ याचिका लगाई थी, जिसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री और उनके प्रशासन पर हिंसा में शामिल होने और बाद में इस पर पर्दा डालने का आरोप लगाया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल जनहित याचिका खारिज कर दी थी और सीतलवाड़ पर ‘प्रक्रिया के दुरुपयोग’ के लिए मुकदमा चलाने का सुझाव दिया था.
दो महीने जेल में बिताने के बाद उन्हें अंतरिम जमानत पर रिहा कर दिया गया था, लेकिन नियमित जमानत की उनकी याचिका 1 जुलाई 2023 को गुजरात हाईकोर्ट ने खारिज कर दी थी.
हाईकोर्ट में उनकी जमानत याचिका पर आपत्ति जताते हुए सरकारी अभियोजक मितेश अमीन ने कहा था कि ‘याचिकाकर्ता ने अपने दो हथियारों – पुलिस अधिकारी आरबी श्रीकुमार और संजीव भट्ट – के साथ मिलकर साजिश रची थी. वह भी एक राजनीतिक दल के एक नेता के हाथों की कठपुतली थीं.’
ये दावे अपनी तरह के पहले दावे नहीं हैं. पिछले दो दशकों में 2002 की गुजरात हिंसा को जनमानस में कुछ इस तरह बैठाने के व्यवस्थित प्रयास किए गए हैं कि सीतलवाड़ जैसे अधिकार कार्यकर्ताओं समेत कुछ लोगों ने इसे जान-बूझकर बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया था.
अब अंतर यह है कि यह धारणा अब अदालतों में भी तथ्य के रूप में पेश की जा रही है.
इस पृष्ठभूमि में यह याद रखना महत्वपूर्ण हो जाता है कि मोदी की छवि को ‘खराब’ करने वालीं सीतलवाड़ अकेली नहीं हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) और भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) जैसे स्वतंत्र संस्थानों ने भी अतीत में गुजरात हिंसा और मुख्यमंत्री के रूप में उनके द्वारा चलाई गई सरकार की भूमिका पर कड़ी टिप्पणियां की हैं.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग
गुजरात में दंगों का तुरंत संज्ञान लेने के बाद 2002 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने न केवल गुजरात सरकार से एक रिपोर्ट सौंपने को कहा था, बल्कि राज्य का दौरा भी किया था.
उस समय एनएचआरसी का नेतृत्व भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा कर रहे थे. जस्टिस के. रामास्वामी, जस्टिस सुजाता मनोहर और वीरेंद्र दयाल इसकी कार्यवाही रिपोर्ट के हस्ताक्षरकर्ता हैं.
आयोग ने राज्य सरकार को इस आम धारणा का खंडन करने के लिए कहा था कि वह अपनी जिम्मेदारी निभाने में विफल रही है.
आयोग ने हिंसा में मारे गए लोगों के परिवारों को दिए गए मुआवजे के मामले में हुए भेदभाव पर भी टिप्पणी की थी. जहां दंगों में मारे गए लोगों के परिजनों के लिए मुआवजा 1 लाख रुपये था, वहीं गोधरा ट्रेन हादसे में मारे गए लोगों के परिजनों के लिए दी जाने वाली राशि 2 लाख रुपये थी.
31 मई 2002 को अपनी कार्यवाही में राज्य सरकार से असंतोषजनक प्रतिक्रिया प्राप्त करने के बाद एनएचआरसी ने कहा था कि 27 फरवरी 2002 को गोधरा में हुई त्रासदी से लेकर उसके बाद के हफ्तों में हिंसा जारी रहने तक ‘गुजरात के लोगों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने में राज्य की व्यापक विफलता थी.’
चुनाव आयोग
दंगों के बाद चुनाव आयोग ने यह जानने के लिए राज्य का दौरा किया था कि चुनाव कराए जा सकते हैं या नहीं. अपनी रिपोर्ट में आयोग ने कहा था कि राज्य सरकार ने कानून और व्यवस्था पर रिपोर्ट में जो बताया था और राज्य सरकार वास्तव में जो कर रही थी, उसमें विरोधाभास थे.
एक ओर राज्य सरकार ने बताया कि केवल 12 जिले प्रभावित हुए हैं, जबकि मुफ्त राशन वितरण की योजना को 20 जिलों तक बढ़ा दिया गया था. राज्य सरकार की चूक के संबंध में आयोग ने मामले में दर्ज एफआईआर के विवरणों पर सवाल उठाया था और पाया था कि उनमें समान विवरण भरे गए थे.
जांच आयोग
राज्य सरकार ने गोधरा ट्रेन अग्निकांड की जांच के लिए नानावटी-मेहता आयोग की नियुक्ति की और बाद में दंगों की जांच के लिए भी इसका दायरा बढ़ाया गया.
नानावती-मेहता आयोग ने इन घटनाओं को रोकने के लिए की गई प्रशासनिक कार्रवाइयों की प्रभावशीलता की भी जांच की थी, कि क्या गोधरा की घटना पूर्व नियोजित थी और क्या अधिकारियों को इसे रोकने के लिए पूर्व जानकारी थी.
हालांकि, 2004 में आयोग ने तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी, उनके मंत्रियों, पुलिस अधिकारियों और अन्य व्यक्तियों और संगठनों की दंगों में भूमिका और भागीदारी का पता लगाने के लिए अपनी जांच का दायरा बढ़ाया था.
सुप्रीम कोर्ट
बेस्ट बेकरी मामले (जिसमें दंगों के दौरान 14 लोगों की हत्या हुई थी) के आरोपियों पर फिर से मुकदमा चलाने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वीएन खरे ने टिप्पणी की थी कि उन्हें अभियोजन पक्ष और गुजरात सरकार पर कोई भरोसा नहीं रह गया है.
इस टिप्पणी के कुछ महीने बाद सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र में दोबारा सुनवाई करने का निर्देश दिया था.
इसी फैसले में कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि मामले की जांच निष्पक्ष नहीं हुई थी.
अदालत ने टिप्पणी की थी, ‘जब बेस्ट बेकरी और मासूम बच्चे और असहाय महिलाएं जल रहे थे, आधुनिक समय के ‘नीरो’ कहीं और देख रहे थे, और शायद विचार कर रहे थे कि अपराध के गुनाहगारों को कैसे बचाया या संरक्षित किया जा सकता है.’
यह एकमात्र मामला नहीं था, जहां मुकदमा गुजरात से बाहर स्थानांतरित किया गया था. गुजरात हाईकोर्ट ने बिलकिस बानो मामले- जिसके दोषी अब सजा माफी पाकर जेल से बाहर आ गए हैं- को भी गुजरात से बाहर महाराष्ट्र में स्थानांतरित करने का निर्देश दिया था.
इन तीन संस्थानों के अलावा महिला सशक्तिकरण पर संसदीय समिति जैसी समितियों ने भी कहा था कि हिंसा के प्रसार को रोकने के लिए एहतियाती कदम उठाना प्रत्येक राज्य मशीनरी का परम कर्तव्य है.
समिति ने यह कहते हुए खेद व्यक्त किया था कि ‘खुफिया सेवाओं द्वारा स्थिति के संभावित खतरों का अनुमान लगाने में विफलता गुजरात में हुई हिंसा, मौतों और विनाश के लिए जिम्मेदार थी.’
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