कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जो हो रहा है और जिसकी हिंसक आक्रामकता बढ़ती ही जा रही है, उसमें लेखकों को साहित्य को एक तरह का अहिंसक सत्याग्रह बनाना ही होगा और यही नए अर्थ में प्रतिबद्ध होना है.
दो शामों में आपको ऐसे तीन आयोजन मिलें जिनमें जाकर आप कृतकृत्य अनुभव करें, ऐसा कम होता है. पर होता है. दिल्ली में कला-प्रेमियों के लिए ऐसे अवसर होते हैं अगर वे अपनी आवाजाही थोड़ी व्यवस्थित करें और उनकी रुचि हो. 14-15 जुलाई को मुझे उर्दू कविता की एक महफ़िल, एक वयोवृद्ध चित्रकार की पुनरावलोकी प्रदर्शनी और तुलसीदास के रामचरितमानस की कंचन चित्रित पांडुलिपि पर विशद व्याख्यान सुनने मिले तो इसे तिहरा सौभाग्य ही कहा जाएगा.
पहली शाम पत्रकार और उर्दू कविता के अद्भुत और बेहद प्रभावशाली प्रस्तोता सईद नकवी ने उर्दू कविता का लगभग डेढ़ घंटे, बिना थके या उबाए, शुद्ध याददाश्त से असंख्य अशआर पर ध्यान देते हुए जो सरस सफ़र कराया उसने बहुत अभिभूत किया. उर्दू में आम ज़िंदगी, वक़्त की सचाई, इश्क, नाउम्मीदी, उम्मीद, व्यंग्य आदि की कितनी बारीकियां हैं यह स्पष्ट हुआ. ऐसे कई शायरों के कलाम से हम वाकिफ़ हुए जिनका या तो हमने नाम ही नहीं सुना या जिन्हें हम भूल गए हैं.
यह भी स्पष्ट हुआ कि उर्दू कविता में मुल्ला-मौलवी के पक्ष में शायद एक भी शेर नहीं है: वे ज़्यादातर उर्दू कवियों द्वारा व्यंग्य के शिकार हुए हैं. यह भी नज़र आया कि उर्दू जैसी बेहद नागर लगती भाषा ने कविता में बोलियों को कितना शामिल किया है.
शांति दवे का नाम समकालीन कला-दृश्य से ग़ायब-सा है. सत्तर के दशक में वे एक बड़े चित्रकार माने जाते थे. जेसल ठकार के संयोजन में उनकी जो विशाल पुनरावलोकी प्रदर्शनी उसी शाम जाकर देखी वह इस चित्रकार के पुनर्वास जैसा है. उनकी कला का स्वभाव अमूर्तन में भी अधिक से अधिक कहने का है जबकि उनके समवयसी गायतोंडे और अम्बा दास अपने अमूर्तन में अल्पभाषी रहे हैं.
कैनवास पर देवनागरी अक्षरों को भी अंकित करने की युक्ति का सबसे प्रभावशाली प्रयोग शांति दवे ने ही किया. दशकों पहले वे हमारे निमंत्रण पर भोपाल आए थे और उस संक्षिप्त प्रवास को अब भी याद करते हैं. 52 की उम्र में वे अब अशक्त हैं पर उनका जीवन उनकी कला में अब भी बचा और स्पंदित है.
16 की शाम प्रख्यात कलाविद् कविता सिंह ने बनारस में वहां के एक नरेश उदय नारायण सिंह द्वारा आयोजित तुलसीदास के ‘रामचरित मानस’ के कंचन चित्र संस्करण की पांडुलिपि पर जो सोदाहरण व्याख्यान दिया वह अद्भुत था. इस पांडुलिपि में, जो कई खंडों में है, हर पृष्ठ पर मानस की इबारत है और सामने के पृष्ठ पर एक चित्र. सोने के प्रयोग की वजह से मानस का यह संस्करण कंचन चित्र रामायण कहलाता है.
कई नए तथ्य पता लगे. मानस की बनारस में अठारहवीं शताब्दी में प्रतिष्ठा हो चुकी थी जबकि स्वयं महाकवि का उनके जीवनकाल में वहां के ब्राह्मणों ने घोर विरोध किया था. यह मान्यता कि मुगलों के ज़माने में पनपी-व्यापी मिनिएचर शैली अठारहवीं शताब्दी के अंत तक अस्त हो चुकी थी सही नहीं है, क्योंकि इस पांडुलिपि का चित्रांकन मिनिएचर शैली में ही है.
काशी नरेश ने इस काम में जिन कलाकारों को लगाया था वे देश के कई भागों- फ़ैज़ाबाद, मुर्शिदाबाद, दिल्ली, राजस्थान आदि से आए थे और यद्यपि उन्होंने अपने अलग-अलग मुहावरों में तालमेल बैठाया, उनकी विशिष्टता बरक़रार रही. चित्रों में मानस की इबारत से जब-तब कला-उचित छूट भी ली गई है और कहीं-कहीं कलाकार ने अलग उड़ान भरी है. व्यक्तिगत प्रतिभा के इस इज़हार के लिए राजकीय कमीशन में जगह थी.
दुर्भाग्य यह है कि कंचन चित्र रामायण के पृष्ठ कई जगह, कई संग्रहों में बिखरे पड़े हैं और उन्हें एकत्र कर पाना लगभग असंभव है. कुछ पृष्ठ हो सकता है हमेशा के लिए नष्ट या ग़ायब हो चुके होंगे. लिपिकार और कलाकार भी अनाम हैं. उनमें निश्चय ही मुसलमान कलाकार भी थे. पांडुलिपि के आवरण पर काशी नरेश का नाम फ़ारसी में भी लिखा था जिसे मिटा दिया गया है. ‘टूटी हुई, बिखरी हुई’ होने का हश्र कई मध्यकालीन चित्रित पांडुलिपियों का रहा है.
प्रतिबद्धता का नया अर्थ
बहस तो फ्रांस के ज़्यां पाल सार्त्र ने उठाई थी कि लेखक को प्रतिबद्ध होना चाहिए. यहां तक कि उस समय चल रहे वियतनाम युद्ध के सिलसिले में वे यह तक कह गए थे कि लेखकों को लिखने के बजाय वियतनाम जाकर युद्ध में सही पक्ष की ओर से लड़ना चाहिए.
प्रतिबद्धता का प्रश्न हमारे यहां भी साठ के दशक में उठा. प्रतिबद्ध, जिससे ज़्यादातर आशय वामपंथ से प्रतिबद्ध ही होता था, संगठित भी हुए और उन्होंने अप्रतिबद्ध या प्रतिबद्धता-विरोधी लेखकों को अप्रासंगिक, समाज-विरोधी आदि क़रार देकर साहित्य से देशनिकाला तक देने की कोशिश की. उन्हें कलावादी कहकर उनका मानमर्दन भी खूब किया गया.
धीरे-धीरे प्रतिबद्धता पर यह आक्रामक आग्रह शिथिल पड़ गया और इन दिनों इस अवधारणा की बहुत सक्रिय उपस्थिति नहीं रह गई है.
कभी वीएस नॉयपाल ने यह कहा था कि कुछ लोग लेखक होते हैं, कुछ लोग मिशनरी: लेखक मिशनरी नहीं हो सकता. साहित्य और मिशन दो ध्रुवांत हैं ऐसी उनकी धारणा थी. स्थिति इतनी पैनी नहीं होती, न है.
आज भारत में सभ्यतागत संकट है: समावेशी-बहुल-उदार-खुला-ग्रहणशील भारतविचार लगातार हमलों का शिकार हो रहा है. यह विचार भारतीय परंपरा, इतिहास, चिंतन और संस्कृति का प्रतिफल भी है और उसका मूल आधार भी. अगर वह नष्ट या विकृत या अशक्त हुआ तो साहित्य का औचित्य, उसकी प्रेरणाभूमि, उसका उत्तराधिकार सभी नष्ट या ग़ायब हो जाएंगे.
इस समय, इसलिए, प्रतिबद्धता अपना नया रूप लेकर उभरती है. अब यह किसी राजनीतिक विचारधारा के लिए प्रतिबद्धता नहीं है- वह इस भारतविचार के लिए प्रतिबद्धता है. उसकी अपेक्षा यह है कि लेखक, अपने राजनीतिक और वैचारिक मतभेदों को क़ायम रखते हुए भी, अपने सृजन-चिंतन-व्यवहार-सामुदायिकता में भारत विचार को पुष्ट-सक्रिय-सशक्त-सत्यापित करें. साहित्य में भी, साहित्य से बाहर व्यापक समाज में भी.
धर्मों के लगातार अपने को विकृत और राजनीति में इस्तेमाल होने देने की प्रवृत्ति और शोर में साहित्य को मनुष्यता के पक्ष में आपद्धर्म बनकर उभरना चाहिए. अगर यह मिशन है तो ऐसा जिसमें उदार समावेशिता होगी, कोई ‘दूसरे’ नहीं होंगे, निजीपन के लिए जगह होगी और जो साहित्य की अपनी शर्तों और ज़मीन पर ही विकसित होगा: उसमें सूक्ष्मता-जटिलता-असहमति-वक्रता का सम्मान होगा.
जो हो रहा है और जिसकी हिंसक आक्रामकता बढ़ती ही जा रही है और जिस विचार-विरोधी उपक्रम में कई सामाजिक शक्तियां और तबके शामिल हैं, उसमें लेखक और कलाकार निश्चिंत और निष्क्रिय नहीं बैठ सकते. उन्हें साहित्य को एक तरह का अहिंसक सत्याग्रह बनाना ही होगा और यही नए अर्थ में प्रतिबद्ध होना है.
यहां साहित्य और समाज के प्रतिबद्धता में किसी भी क़िस्म का द्वैत ध्वस्त हो जाता है. साहित्य के साथ होना और समाज के साथ होना एक बात हो जाती है. हम लेखक और मिशनरी साथ-साथ हो सकते हैं- आज लेखक होने का अर्थ कुछ न कुछ मिशनरी होना भी अनिवार्यतः है.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)