अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के मार्गदर्शन में जन जागरण शक्ति संगठन द्वारा किए गए सर्वे में सामने आया है कि बिहार के सरकारी प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूलों में शिक्षक नहीं है, शिक्षा की गुणवत्ता ख़राब है, इंफ्रास्ट्रक्चर निराशाजनक है और पाठ्यपुस्तकों व यूनिफॉर्म के लिए प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण विफल साबित हुआ है.
नई दिल्ली: अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने शुक्रवार (4 अगस्त) को कहा कि बिहार के सरकारी प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में केवल 20 फीसदी छात्र ही कक्षाओं में शामिल हो रहे हैं.
द टेलीग्राफ के मुताबिक उन्होंने कहा, ‘स्कूलों में शिक्षक नहीं है, शिक्षा की गुणवत्ता खराब है, बुनियादी ढांचा निराशाजनक है, मध्याह्न भोजन (मिडडे मील) खराब गुणवत्ता का है और पाठ्यपुस्तकों व यूनिफॉर्म के लिए प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण विफल साबित हुआ है.’
इस दौरान उन्होंने बिहार की राजधानी पटना में ‘बच्चे कहां हैं? बिहार में सरकारी स्कूलों का अजीब मामला’ नामक एक सर्वे रिपोर्ट जारी की. यह रिपोर्ट जन जागरण शक्ति संगठन (जेजेएसएस) द्वारा जनवरी-फरवरी 2023 में बिहार के कटिहार और अररिया जिलों में 81 सरकारी प्राथमिक और उच्च-प्राथमिक विद्यालयों के सर्वेक्षण पर आधारित है.
जेजेएसएस के सचिव आशीष रंजन के साथ द्रेज ने सर्वे का मार्गदर्शन किया है.
द वायर के पास उपलब्ध सर्वे के प्रति में कहा गया है, ‘बिहार में सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी है. सैंपल के दो-तिहाई प्राथमिक विद्यालयों और लगभग सभी उच्च-प्राथमिक विद्यालयों में छात्र-शिक्षक अनुपात 30 से ऊपर है, जबकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत छात्र-शिक्षक अनुपात अधिकतम 30 होना चाहिए.’
सर्वे में आगे कहा गया है कि स्कूलों में छात्रों की उपस्थिति बेहद कम है. प्राथमिक विद्यालयों में नामांकित बच्चों में से केवल 23 फीसदी बच्चे सर्वेक्षण के समय उपस्थित थे. उच्च-प्राथमिक विद्यालयों में छात्रों की उपस्थिति और भी कम केवल 20 फीसदी थी.
साथ ही, सर्वे में इस ओर भी इंगित किया गया है कि स्कूलों के शिक्षक नियमित रूप से स्कूल रजिस्टरों में उपस्थिति के आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं, लेकिन बढ़े हुए आंकड़े भी बहुत कम हैं जो प्राथमिक और उच्च-प्राथमिक विद्यालयों में क्रमश: 44 फीसदी और 40 फीसदी हैं.
साथ ही, इस सर्वे की मुख्य बातों में यह भी शुमार है कि कोविड-19 के कारण स्कूल बंद होने से बड़े पैमाने पर पढ़ाई का नुकसान हुआ.
सर्वे रिपोर्ट कहती है, ‘आधे स्कूलों ने बताया कि कक्षा 3-5 के अधिकांश छात्र स्कूल दोबारा खुलने तक पढ़ना-लिखना भूल गए थे. इन नुकसानों और बच्चों की शिक्षा पर लंबे समय तक स्कूल बंद रहने के अन्य प्रतिकूल प्रभावों की भरपाई के लिए बहुत कम काम किया गया है.’
सर्वे में यह भी निकलकर सामने आया कि स्कूलों में बुनियादी ढांचे और सुविधाएं निराशाजनक हैं, खासकर कि प्राथमिक स्तर पर. अधिकांश प्राथमिक विद्यालयों (90 फीसदी) में कोई उचित चारदीवारी, खेल का मैदान या पुस्तकालय नहीं है. कुछ स्कूलों (सर्वेक्षण में चयनित सभी स्कूलों का 9 फीसदी) के पास तो भवन तक नहीं है.
सर्वे में 20 फीसदी स्कूलों ने कहा कि मिडडे मील का बजट अपर्याप्त है. साथ ही, इसकी व्यवस्था को लेकर भी सवाल उठाए गए और मिडडे मील में अंडा परोसे जाने के विरोध को भी एक समस्या करार दिया है.
सर्वे कहता है, ‘पाठ्यपुस्तकों और यूनिफॉर्म के लिए बिहार की तथाकथित प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) प्रणाली विफल है. अधिकांश स्कूलों में कई छात्रों के पास कोई पाठ्यपुस्तक या यूनिफॉर्म नहीं है, क्योंकि उन्हें या तो डीबीटी राशि नहीं मिली या उन्होंने इसका उपयोग अन्य उद्देश्यों के लिए कर लिया.’
रिपोर्ट में चेताया गया है कि ऐसी परिस्थितियों में निजी कोचिंग सेंटर द्वारा बड़े पैमाने पर बिहार के सरकारी स्कूलों की जगह लेने का खतरा मंडरा रहा है.
रिपोर्ट जारी करने के दौरान मांग की गई कि इस संकट से निपटने के लिए तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है. आरटीआई अधिनियम का अनुपालन, मध्याह्न भोजन के साथ प्रतिदिन अंडे उपलब्ध कराना और स्कूल के समय के दौरान ट्यूशन पर प्रतिबंध एक अच्छी शुरुआत होगी.