पहाड़ों में विकास के नाम पर जो कुछ हो रहा है, क्या वह टिकाऊ है?

मानसून के दौरान पहाड़ों पर साल दर साल आने वाली त्रासदी पहाड़ से बाहर रह रहे लोगों के लिए भले ही हताहतों की संख्या या एक ख़बर भर हो, लेकिन पहाड़ में रहने वालों और वहां की पारिस्थितिकी के लिए ये सुरक्षित भविष्य बनाने की एक पुकार है. क्या सरकारें इसे सुन पा रही हैं?

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हिमाचल प्रदेश में भूस्खलन के बाद एक सड़क पर मलबे में दबी गाड़ी. (फोटो साभार: ट्विटर/@SukhuSukhvinder)

मानसून के दौरान पहाड़ों पर साल दर साल आने वाली त्रासदी पहाड़ से बाहर रह रहे लोगों के लिए भले ही हताहतों की संख्या या एक ख़बर भर हो, लेकिन पहाड़ में रहने वालों और वहां की पारिस्थितिकी के लिए ये सुरक्षित भविष्य बनाने की एक पुकार है. क्या सरकारें इसे सुन पा रही हैं?

हिमाचल प्रदेश में भूस्खलन के बाद एक सड़क पर मलबे में दबी गाड़ी. (फोटो साभार: ट्विटर/@SukhuSukhvinder)

भारी बारिश के चलते हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड से आई त्रासदी की भयावह तस्वीरें हम सबने देखीं. भरभराकर गिरते घर, नदियों की उफनाती हुई धारा में बहती सड़कें, दुकानें और भवन, व भूस्खलन की तस्वीरों में जिस एक बात की समानता थी वो ये कि प्रकृति कह रही है ‘बस अब और नहीं।’ इस त्रासदी के चलते हिमाचल प्रदेश में अब तक 300 से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है. लगभग 10,000 करोड़ रुपये का अनुमानित नुकसान हुआ है. हज़ारों लोगों का आशियाना छिन चुका है और हज़ारों की संख्या में पशुधन को नुक़सान हुआ है. लगभग 1,400 सड़कें त्रासदी के चलते प्रभावित हुई हैं. सेब के कारोबार में लगभग 1,000 करोड़ का नुकसान हुआ है व अन्य कारोबारों में भी मंदी आई है. विशेषज्ञों के अनुसार अभी हिमाचल प्रदेश में और बारिश होने की संभावना है और सितंबर के पहले हफ्ते तक ये त्रासदी जारी रह सकती है.

सोशल मीडिया की वजह से त्रासदी की जो तस्वीरें आज पूरे देश में पहुंच रही हैं, उसकी आहट हिमाचल प्रदेश को पहले से मिल रही थी. 2020 में जहां हिमाचल प्रदेश में भूस्खलन की 16 घटनाएं हुईं थीं, वहीं 2022 में भूस्खलन की 117 घटनाएं हुईं. इस साल भी भूस्खलन की लगभग 100 से अधिक घटनाएं हो चुकी हैं. राज्य आपदा प्रबंधन संस्थान की एक रिपोर्ट के मुताबिक, मानसून के दौरान हुई त्रासदी की वजह से 2017-22 के बीच में लगभग 1,800 मौतें हुईं, 3,000 से अधिक मवेशी त्रासदी की भेंट चढ़ गए और लगभग 7,500 करोड़ का नुकसान हुआ.

मानसून के दौरान दिखने वाली त्रासदी की इन तस्वीरों को मानसून के बाद आने वाली ‘विकास’ और ‘पर्यटन’ की तस्वीरें ढक लेंगी. ग्रीन ट्रिब्यूनल, आपदा प्रबंधन, लैंडस्लाइड एटलस ऑफ इंडिया व तमाम संस्थाओं की चेतावनियों को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा. वन संरक्षण व संवर्धन अधिनियम 2023 ने वनों को नुकसान का रास्ता तैयार कर ही दिया है. ऐसे में अक्टूबर से मई तक के बीच में जब आपके मोबाइल पर पहाड़ों में फ़ोर लेन रोड व सुरंगों की तस्वीरें आएं, जब सोशल मीडिया की रीलों में रिवरसाइड रिज़ॉर्ट और कई मंज़िला इमारतों को सुंदर ढंग से आपको परोसा जाए, जब पहाड़ों पर सरपट कार दौड़ाने और चाय व मैगी की चाहत के चलते आप भी पहाड़ों पर कोई टूरिस्ट डेस्टिनेशन ढूंढ रहे हों, तो सोचिएगा जरूर कि ये जो तथाकथित ‘विकास’ है वो कितना टिकाऊ है?

जो पर्यटन हम कर रहे हैं उसमें जिम्मेदारी का बोध कितना है? क्या इन सुंदर पहाड़ों, जिन्हें हम अपनी तस्वीरों व रील्स में बॉलीवुड के ट्रेंडिंग गानों के साथ डालते हैं, की पीड़ा हम सुन पा रहे हैं?

क्या पहाड़ों में विकास के नाम पर जो कुछ हो रहा है वह टिकाऊ है? जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) आज पूरे विश्व की हकीकत बन चुका है. जलवायु परिवर्तन के चलते हिमालय जैसे तरुणाई से भरे पहाड़ों पर मंडराने वाले खतरे भी सामने हैं. लेकिन क्या इन सुंदर पहाड़ों को बचाने के लिए भविष्य की दृष्टि से टिकाऊ विकास (sustainable development) के कदम उठाए जा रहे हैं?

विशेषज्ञों ने फोरलेन व निर्माण कार्यों के लिए पहाड़ों को 90 डिग्री पर काटने और हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स व सुरंगों के लिए पहाड़ों पर किए जाने वाले धमाकों को लेकर चेतावनियां दी हैं. 25-50000 की क्षमता वाले शहरों में लाखों की आबादी की बसाहट को लेकर अर्बन प्लानिंग एक्स्पर्ट सतर्क करते आ रहे हैं. आपदा प्रबंधन, जलवायु परिवर्तन व पारिस्थितिकी के क्षेत्र में काम करने वाले कई संस्थानों व विशेषज्ञों ने अपनी रिपोर्टों में भवन निर्माण के ‘दिल्ली मॉडल’ को हूबहू पहाड़ों के शहरों पर लागू करने को लेकर आगाह किया है.

विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के चलते बरसात की अनिश्चितता व भयावहता आने वाले दिनों में भी कम नहीं होगी और इस कारण से पहाड़ों पर बिना सोचे समझे किए जा रहे ‘विकास’ को त्यागते हुए हमें टिकाऊ विकास का मॉडल अपनाना होगा.

एक रिपोर्ट के मुताबिक, पूरे विश्व में जलवायु परिवर्तन के कारकों में पर्यटन का हिस्सा 10% है. हिमाचल प्रदेश की जीडीपी में पर्यटन कारोबार का हिस्सा लगभग 4% है. इस साल जून तक 1 करोड़ से अधिक पर्यटक हिमाचल प्रदेश पहुंच थे. सोशल मीडिया, इंस्टाग्राम आदि पर बने आकर्षक पेजों व पर्यटन बढ़ाने के सरकारी प्रयासों और पर्यटकों के लिए सुविधाएं दुरुस्त करने की कवायदों के खाके में जिम्मेदारी का बोध बहुत कम दिखाई पढ़ता है.

पहाड़ों में बेहतर कनेक्टिविटी की अपेक्षा करते समय हम ये भूल जाते हैं कि ‘फास्ट ट्रैवल’ की चाह में हम पहाड़ों का नुकसान कर रहे हैं. हम भूल जाते हैं कि ‘रिवरसाइड रिज़ॉर्ट’ ने नदी का प्राकृतिक रास्ता ही घेर लिया है. हमको ध्यान ही नहीं रहता कि पहाड़ों की हवाओं के बावजूद बहुमंजिला होटलों में चलते एसी जलवायु परिवर्तन में हिस्सेदार है. चिप्स के पैकेट, बोतलों, सिगरेट की डिब्बियों के कचरे से पहाड़ों को भरते समय, हमें अंदाजा ही नहीं लगता कि ये कचरा पहाड़ों में पानी के प्राकृतिक बहाव में अड़ंगा डालेगा. कुकुरमत्ते की तरह हो रहे निर्माण कार्य ने नालों में बहाव का रास्ता ही रोक दिया है. पर्यटन के इस पूरे मॉडल से जिम्मेदारी शब्द ही गायब है.

मानसून के दौरान पहाड़ों पर साल दर साल आने वाली त्रासदी पहाड़ से बाहर रह रहे लोगों के लिए भले ही हताहत लोगों की संख्या या एक खबर भर लगती हो, लेकिन पहाड़ में रहने वाले स्थानीय लोगों व पहाड़ की पारिस्थितिकी के लिए ये सुरक्षित भविष्य बनाने की एक पुकार है.

पहाड़ की इस पुकार में ‘दिखाऊ विकास की जगह ‘टिकाऊ विकास’ और ‘लापरवाह पर्यटन मॉडल’ की जगह ‘ज़िम्मेदार पर्यटन मॉडल’ की साफ झलक मिलती है. क्या सरकारें और हम नागरिक इस पुकार को सुन पा रहे हैं?

(लेखक जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष और विकास संचार के शोधार्थी हैं.)

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