इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) को एक महिला पुलिस कॉन्स्टेबल के आवेदन पर निर्णय लेने का आदेश दिया, जिसने लिंग परिवर्तन सर्जरी (एसआरएस) की अनुमति मांगी थी. याचिका के अनुसार, बीते 11 मार्च को उन्होंने सर्जरी के लिए आवश्यक मंज़ूरी के लिए डीजीपी को आवेदन दिया था.
नई दिल्ली: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि किसी व्यक्ति को सर्जरी के माध्यम से अपना लिंग बदलने का संवैधानिक अधिकार है. इसके साथ ही हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) को एक महिला पुलिस कॉन्स्टेबल के आवेदन पर निर्णय लेने का आदेश दिया, जिसने लिंग परिवर्तन सर्जरी (एसआरएस) की अनुमति मांगी थी.
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, याचिकाकर्ता उत्तर प्रदेश पुलिस में कॉन्स्टेबल हैं. उन्होंने बीते 29 अप्रैल को अदालत से कहा था कि वे लिंग डिस्फोरिया का अनुभव कर रही हैं. 11 मार्च 2023 को उन्होंने लिंग परिवर्तन सर्जरी के लिए आवश्यक मंजूरी के लिए आवेदन किया था.
जेंडर डिस्फोरिया एक ऐसा टर्म है, जो उस बेचैनी की भावना का वर्णन करता है, जो किसी व्यक्ति में उनके जैविक लिंग (Biological Sex) और उसकी लैंगिक पहचान (Gender Identity) के बीच बेमेल होने के कारण हो सकती है.
याचिकाकर्ता के कानूनी प्रतिनिधि ने 18 अगस्त को सुनवाई के दौरान अदालत को बताया, ‘याचिकाकर्ता ने 11 मार्च, 2023 को लखनऊ में उत्तर प्रदेश के डीजीपी को लिंग परिवर्तन सर्जरी के लिए आवेदन दिया था. हालांकि, इस संबंध में कोई निर्णय नहीं हुआ है, जिसके कारण यह याचिका दायर की गई है.’
कॉन्स्टेबल के सर्जरी से गुजरने के अधिकार को स्वीकार करते हुए जस्टिस अजीत कुमार की एकल-न्यायाधीश पीठ ने कहा, ‘इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि लिंग डिस्फोरिया का अनुभव करने वाला व्यक्ति, जिसकी भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक विशेषताएं विपरीत लिंग के लक्षणों के प्रति होती हैं, के पास लिंग परिवर्तन सर्जरी कराने का संवैधानिक रूप से स्वीकृत अधिकार है.’
यह आदेश बीते 18 अगस्त को पारित किया गया था.
सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता के वकील ने उसके आवेदन को रोकने के खिलाफ बहस करने के लिए राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ में 2014 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले – ट्रांसपर्सन के अधिकारों पर एक ऐतिहासिक निर्णय – का हवाला दिया था.
15 अप्रैल 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसपर्सन को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता देते हुए उनके अधिकारों की पुष्टि की थी.
अदालत ने कहा, ‘इस अंतर्निहित अधिकार को स्वीकार करने में विफल रहने से हमारे आधुनिक समाज में लिंग पहचान संबंधी सिंड्रोम कायम रहेगा. कुछ मामलों में इस सिंड्रोम के गंभीर परिणाम हो सकते हैं, जिनमें चिंता, अवसाद, नकारात्मक आत्म-धारणा और स्वयं की यौन शारीरिक रचना के साथ असुविधा शामिल है. जब मनोवैज्ञानिक हस्तक्षेप इस तरह के संकट को कम करने में अप्रभावी साबित होते हैं, तो लिंग परिवर्तन सर्जरी को आवश्यक समझा जाना चाहिए और इसे सक्रिय रूप से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.’
अदालत ने आगे कहा, ‘अधिकारी यह आकलन करने के लिए प्रासंगिक सामग्रियों और दस्तावेजों को प्रस्तुत करने का अनुरोध कर सकते हैं कि आवेदन पर वास्तविक विचार की आवश्यकता है या नहीं. इस तरह के अनुरोध को ठोस सामग्री द्वारा समर्थित किया जाना चाहिए.’
पीठ ने राज्य सरकार के वकील को सुप्रीम कोर्ट के 2014 के फैसले के अनुरूप दिशानिर्देशों के कार्यान्वयन के बारे में जानकारी प्रदान करने का भी निर्देश दिया.
शीर्ष अदालत का निर्देश अस्पतालों के भीतर ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए चिकित्सा देखभाल सुनिश्चित करने के साथ-साथ उनकी बेहतरी के उद्देश्य से अलग सार्वजनिक सुविधाओं और सामाजिक कल्याण पहलों के प्रावधान पर केंद्रित है.