गुजरात: सरकार को विश्वविद्यालयों में अधिक अधिकार देने वाले विधेयक के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन

गुजरात सरकार ने हाल ही में गुजरात कॉमन यूनिवर्सिटीज़ बिल के मसौदे की घोषणा की है, जिसे अगले महीने विधानसभा में पेश किया जा सकता है. इसे शिक्षा का 'सरकारीकरण' और स्वायत्तता को ख़तरा क़रार देते हुए छात्रों और शिक्षक संघ इसे वापस लेने की मांग कर रहे हैं.

गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल. (फोटो: पीटीआई)

गुजरात सरकार ने हाल ही में गुजरात कॉमन यूनिवर्सिटीज़ बिल के मसौदे की घोषणा की है, जिसे अगले महीने विधानसभा में पेश किया जा सकता है. इसे शिक्षा का ‘सरकारीकरण’ और स्वायत्तता को ख़तरा क़रार देते हुए छात्रों और शिक्षक संघ इसे वापस लेने की मांग कर रहे हैं.

गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल. (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: एक दर्जन से अधिक छात्रों और शिक्षक संघों ने मंगलवार को गुजरात विश्वविद्यालय संबंधित एक प्रस्तावित विधेयक को वापस लेने की मांग करते हुए विरोध प्रदर्शन किया, जिसे अगले महीने राज्य विधानसभा के मानसून सत्र के दौरान पेश किए जाने की संभावना है और जो अपने विश्वविद्यालयों पर सरकार के नियंत्रण को कड़ा कर सकता है.

हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, गुजरात कॉमन यूनिवर्सिटी विधेयक, 2023 सभी राजनीतिक रूप से निर्वाचित निकायों- सीनेट और सिंडिकेट निकायों- को खत्म करने और उनके स्थान पर एक बोर्ड ऑफ गवर्नर्स और एक कार्यकारी परिषद को स्थापित करने की बात कहता है, जिसके सदस्यों की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाएगी.

वर्तमान में गुजरात के 16 सरकारी विश्वविद्यालयों में से केवल आठ में सीनेट और सिंडिकेट चुनाव होते हैं.

विधेयक में कुलपतियों का कार्यकाल तीन साल से बढ़ाकर पांच साल करने का भी सुझाव दिया गया है.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, इसे शिक्षा का ‘सरकारीकरण’ करार देते हुए ऑल इंडिया सेव एजुकेशन कमेटी (एआईएसईसी) के नेतृत्व में राज्य भर के विभिन्न कॉलेज और विश्वविद्यालय शिक्षक संघों ने मंगलवार को अहमदाबाद में गुजरात विश्वविद्यालय (जीयू) के बाहर विरोध प्रदर्शन किया.

विभिन्न छात्रों और शिक्षक संघों के कई सदस्यों ने प्रस्तावित कानून वापस नहीं लेने पर राज्यव्यापी आंदोलन शुरू करने की बात कही है. संघों में अखिल भारतीय शिक्षा बचाओ समिति, गुजरात राज्य अध्यापक मंडल, बड़ौदा यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन और गुजरात यूनिवर्सिटी प्रिंसिपल्स एसोसिएशन समेत अन्य शामिल हैं.

एआईएसईसी ने अपने बयान में कहा, ‘प्रस्तावित विधेयक विश्वविद्यालय निकाय की स्वायत्तता, सुलभ शिक्षा और असहमति के अधिकार के पूर्ण विनाश का कदम होगा.’

इसमें कहा गया है कि यह सीनेट सिंडिकेट को खत्म कर देगा और उसकी जगह बोर्ड ऑफ गवर्नेंस ले लेगा, जो विश्वविद्यालय को राज्य सरकार के आदेश पर छोड़ देगा और छात्रों का प्रतिनिधित्व खत्म कर देगा.

एआईएसईसी के संयुक्त सचिव कानू खदादिया ने कहा कि यह विधेयक न केवल अनावश्यक और हानिकारक है बल्कि पूरी तरह से अलोकतांत्रिक भी है. गुजरात राज्य अध्यापक महामंडल के अध्यक्ष राजेंद्र जादव ने कहा, ‘हमारा मानना है कि ऐसा अधिनियम निजी विश्वविद्यालयों के लिए भी होना चाहिए. केवल सार्वजनिक विश्वविद्यालयों के लिए ही क्यों जब वे पहले से ही राज्य सरकार द्वारा नियंत्रित हैं?’

अखिल गुजरात खंडसमय अध्यापक मंडल के अध्यक्ष देवदत्तसिंह राणा ने कहा, ‘कुलपति की नियुक्ति के लिए समिति राज्य सरकार को पांच नाम भेजेगी. यदि वे संतोषजनक नहीं हैं, तो सरकार इसे तब तक वापस कर देगी, जब तक उसे उसके उम्मीदवार नहीं मिल जाते. साथ ही, शिक्षकों का स्थानांतरण असंवैधानिक होगा, क्योंकि हर विश्वविद्यालय में अलग-अलग रोस्टर प्रणाली होती है.

अहमदाबाद के एचके आर्ट्स कॉलेज के सेवानिवृत्त प्रोफेसर एचके शाह ने कहा कि विश्वविद्यालय के कर्मचारी और शिक्षक सरकारी कर्मचारी होंगे, जिनकी कोई आवाज नहीं होगी.

एआईएसईसी ने मसौदा विधेयक के एक अनुच्छेद का भी विरोध किया जिसमें कहा गया था कि राज्य के पास अधिसूचना या निर्देश जारी करने की शक्ति होगी और विश्वविद्यालयों के लिए इसे लागू करना अनिवार्य होगा. इसमें कहा गया है, ‘एक निरंकुश शासन की कोई स्पष्ट अभिव्यक्ति नहीं हो सकती है, जिसका उद्देश्य सभी शैक्षणिक स्वतंत्रता को खत्म करना है.’

हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स ऑर्गनाइजेशन के गुजरात अध्यक्ष भाविक राजा ने कहा कि राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार ने पहले भी दो बार (2007 में एक बार) इस तरह का कानून लाने की कोशिश की है, लेकिन छात्रों और अन्य लोगों के विरोध के कारण असफल रही.

उन्होंने कहा, ‘इस बार भी हम बिल को वापस लेने के लिए सरकार के खिलाफ अपनी लड़ाई में एकजुट हैं. यह विधेयक बढ़े हुए राजनीतिक हस्तक्षेप के दरवाजे खोलेगा, जो शिक्षा की गुणवत्ता से समझौता कर सकता है.’

उन्होंने कहा, ‘इसके अलावा शिक्षक सरकारी कर्मचारी बन जाएंगे और उन्हें सजा के तौर पर मिलने वाले तबादले  का सामना करना पड़ सकता है. एक बार जब सरकार नियंत्रण हासिल कर लेती है, तो वह विश्वविद्यालय के स्वामित्व वाली भूमि को उद्योगपतियों को आसानी से पट्टे पर या किराए पर दे सकती है. ऐसी भी संभावना है कि विश्वविद्यालय बिना किसी विरोध के फीस बढ़ा देंगे.’

1974 में नव निर्माण आंदोलन का नेतृत्व करने वाले मनीषी जानी ने कहा, ‘लोकतंत्र का ताना-बाना खतरे में है. वीर नर्मद जैसे अद्वितीय नाम रखने वाली संस्थाएं स्थानीय महत्व रखती हैं. सीनेट का प्रस्तावित उन्मूलन छात्र प्रतिनिधित्व के लिए एक झटका है. कार्यकारी परिषद और सिंडिकेट – महत्वपूर्ण निर्णय लेने के लिए जिम्मेदार संस्थाएं – में शिक्षकों की घटती शक्ति भी उतनी ही चिंताजनक है.’

वडोदरा में एमएस विश्वविद्यालय के सीनेट सदस्य कपिल जोशी ने विधेयक को राज्य के सभी विश्वविद्यालयों के लिए ‘आपदा’ मसौदा बताया.

उधर, कांग्रेस प्रवक्ता मनीष दोशी ने कहा, ‘हम विश्वविद्यालयों में लोकतांत्रिक मूल्यों की गिरावट को लेकर बेहद चिंतित हैं. निर्वाचित सीनेट प्रतिनिधित्व को हटाने के विधेयक के प्रावधान से समावेशी निर्णय लेने की नींव को खतरा है जिसे विश्वविद्यालयों ने बरकरार रखा है. संकाय सदस्य और विशेषज्ञ, अपनी महत्वपूर्ण भूमिका संभावित रूप से खो सकते हैं.’

गुजरात शिक्षा विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘मसौदा विधेयक के लिए हमने सुझाव मांगे थे और हितधारकों से 236 प्रतिक्रियाएं प्राप्त कीं. ये इनपुट वर्तमान में जांच की प्रक्रिया में हैं.’

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