सिविल सोसायटी संगठन ‘यूनाइटेड क्रिश्चियन फोरम’ द्वारा जारी नवीनतम आंकड़े बताते हैं कि मौजूदा वर्ष 2023 के पहले 8 महीनों में भारत में ईसाइयों के खिलाफ 525 हमले हुए हैं. मणिपुर में हिंसा, जहां पिछले चार महीनों में सैकड़ों चर्च नष्ट कर दिए गए हैं, को देखते हुए इस वर्ष यह संख्या विशेष रूप से अधिक होने की संभावना है.
नई दिल्ली: ईसाई मुद्दों पर सक्रिय दिल्ली के एक सिविल सोसायटी संगठन ‘यूनाइटेड क्रिश्चियन फोरम’ (यूसीएफ) ने बीते गुरुवार (7 सितंबर) को एक रिपोर्ट जारी कर बताया कि मौजूदा वर्ष 2023 के पहले 8 महीनों में भारत में ईसाइयों के खिलाफ 525 हमले हुए हैं.
अगर यह ट्रेंड जारी रहा तो यह भारत में ईसाई समुदाय के लिए अब तक का सबसे कठिन और हिंसक वर्ष साबित होगा और वर्ष 2021 एवं 2022 के रिकॉर्ड को तोड़ देगा.
गौरतलब है कि हाल के वर्षों में भारत में मुसलमानों और दलितों के साथ-साथ ईसाइयों के खिलाफ हमलों में भी तेज वृद्धि देखी गई है.
मणिपुर में हिंसा, जहां पिछले चार महीनों में सैकड़ों चर्च नष्ट कर दिए गए हैं, को देखते हुए इस वर्ष यह संख्या विशेष रूप से अधिक होने की संभावना है. सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका में नष्ट किए गए पूजा स्थलों का आंकड़ा 642 बताया गया है. जून में इंफाल के आर्कबिशप ने कहा था कि केवल 36 घंटों में 249 चर्च नष्ट कर दिए गए हैं.
फोरम ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा, ‘हिंसा की ये सभी घटनाएं एक विशेष आस्था के तथाकथित निगरानी समूहों के नेतृत्व में भीड़ द्वारा की गई हिंसा है, जिन्हें कथित तौर पर सत्ता में बैठे लोगों से समर्थन मिल रहा है.’
2011 की जनगणना के अनुसार, ईसाई भारत की आबादी का लगभग 2.3 फीसदी हैं.
ईसाई संगठन इवेंजेलिकल फेलोशिप ऑफ इंडिया (ईएफआई) वर्षों से ईसाई समुदाय पर हुए हमलों संबंधी डेटा देश भर से एकत्र कर रहा है, जिसमें हिंसा,चर्चों या प्रार्थना सभाओं पर हमले, अपने धर्म का पालन करने वालों का उत्पीड़न, बहिष्कार और सामुदायिक संसाधनों तक पहुंच को सीमित करना और झूठे आरोप (विशेष तौर पर जबरन धर्मांतरण से संबंधित) शामिल हैं.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ईसाइयों के खिलाफ हमलों पर अलग-अलग डेटा एकत्र नहीं करता है. एनसीआरबी डेटा तो ऐसे विवादित दावे भी करता है कि भारत में दंगों में कमी आई है और हाल के वर्षों में स्थिति अधिक शांतिपूर्ण है.
हमलों की संख्या में भारी वृद्धि
2012 से 2022 के बीच 11 वर्षों में दर्ज की गईं घटनाओं (ईसाइयों के खिलाफ हमला) की संख्या चार गुना बढ़ गई है. पहली बड़ी वृद्धि 2016 में देखी गई, जब ईएफआई रिपोर्ट में 247 घटनाओं का विवरण दिया गया था. अगले कुछ वर्षों में यह संख्या बढ़ती रही. अगला उछाल 2021 में आया, जब 505 घटनाएं दर्ज की गईं. 2022 में ये बढ़कर 599 हो गईं.
राज्य-वार पैटर्न में भी बदलाव आया है. उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में घटनाओं की संख्या में तेज वृद्धि देखी गई, जो 2014 में 18 से बढ़कर 2017 में 50 हो गईं. गौरतलब है कि 2017 में ही राज्य में भाजपा ने अपने कट्टर हिंदुत्ववादी नेता योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में सरकार का गठन किया था.
2018 तक राज्य में ईएफआई द्वारा दर्ज ईसाइयों के खिलाफ हमलों की संख्या 132 हो गई थी. 2019 और 2020 में थोड़ी गिरावट के बाद 2021 में यह 129 घटनाओं तक पहुंच गई थी. वहीं, एक अन्य राज्य जिसने पिछले कुछ वर्षों में बड़ी संख्या में हमले देखे हैं, वह तमिलनाडु है.
यूनाइटेड क्रिश्चियन फोरम द्वारा जारी 2023 के नवीनतम आंकड़ों में उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और हरियाणा में ईसाइयों के खिलाफ सबसे अधिक घटनाएं दर्ज की गई हैं.
ह्यूमन राइट्स वॉच की एशिया डिवीजन की उप-निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने द वायर को बताया, ‘हमने भारत में बढ़ते सांप्रदायिक तनाव को देखा है, जो बहुसंख्यक हिंदू विचारधारा को बढ़ावा देने वाले राजनेताओं के नफरत भरे भाषणों से प्रेरित है, जिससे हिंसा भड़कती है.’
ईएफआई की वार्षिक रिपोर्ट बताती हैं कि कई घटनाओं में पुलिस में शिकायत के बावजूद एफआईआर तक दर्ज नहीं होती है. अन्य स्थितियों में पीड़ित मामले को आगे नहीं बढ़ाना चाहते.
ईएफआई ने 2017 की एक रिपोर्ट में कहा था, ‘ज्यादातर मामले या तो दर्ज नहीं किए जाते हैं, क्योंकि पीड़ित डरा हुआ होता है या पुलिस, खासकर उत्तर भारतीय राज्यों में, आंखें मूंद लेती है और अनिवार्य एफआईआर दर्ज करने से इनकार कर देती है.’
क्रिश्चियन फोरम के राष्ट्रीय संयोजक एसी माइकल ने द वायर को बताया, ‘ज्यादातर मौकों पर हिंसा के पीड़ितों के खिलाफ ही एफआईआर दर्ज कर ली जाती है, जबकि अपराधियों को खुला छोड़ दिया जाता है.’
उन्होंने कहा, ‘पुलिस आमतौर पर पीड़ितों को यह कहकर शांत करने की कोशिश करती है कि यदि आप मामला दर्ज करेंगे तो वे (हमलावर) अधिक आक्रामक हो सकते हैं, और तब आपको जान का खतरा हो सकता है.’
उन्होंने कहा कि ऐसी हिंसा का शिकार लोग ज्यादातर गांवों में होते हैं और इसलिए डर के मारे वे खुद भी एफआईआर दर्ज कराने को तैयार नहीं होते हैं.
ईएफआई की कुछ रिपोर्टों का मसौदा तैयार करने में भूमिका निभाने वाले पत्रकार और अधिकार कार्यकर्ता जॉन दयाल ने द वायर को बताया कि वास्तव में विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में लोग आम तौर पर ‘होम चर्च’ में प्रार्थना करते हैं, जहां प्रार्थनाएं एक निजी निवास (संभवत: एक पादरी के) के भीतर या छोटे, अस्थायी सेटअप में की जाती हैं. यह देखते हुए कि ये अक्सर खुली संरचनाएं होती हैं, इसलिए ये घरेलू चर्च अत्यधिक असुरक्षित होते हैं – और सबसे अधिक पीड़ित यहीं से निकलते हैं.
ऐसे चर्चों को पिछले कुछ वर्षों में कई हमलों का सामना करना पड़ा है, हमलावर ज्यादातर दक्षिणपंथी हिंदू समूहों से होते हैं.
यहां तक कि बड़े चर्चों को भी नहीं बख्शा गया है और ऐसे मामले भी सामने आए हैं, जहां धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा में सरकार की भूमिका संदिग्ध रही है. उदाहरण के लिए दीव में एक 400 साल पुराने चर्च को हाल ही में एक फुटबॉल मैदान को ‘सुंदर बनाने’ के लिए दमन प्रशासन द्वारा अधिग्रहण के लिए लक्षित किया गया था, लेकिन विरोध और याचिकाओं ने फिलहाल योजना को रोक दिया है.
झूठे मामले
ईएफआई के अनुसार, कई मामलों में पुलिस अपराधियों के बजाय हिंसा के पीड़ितों के खिलाफ केस दर्ज कर लेती है. यह भाजपा की कई राज्य सरकारों द्वारा लाए गए धर्मांतरण विरोधी कानूनों का परिणाम है, हालांकि ईसाइयों को परेशान करने के लिए अन्य कानूनों का भी दुरुपयोग किया जाता है.
गौरतलब है कि अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग (यूएससीआईआरएफ) ने अपनी 2023 की वार्षिक रिपोर्ट में एक बार फिर अमेरिकी सरकार से धार्मिक स्वतंत्रता के मामले में भारत को ‘विशेष चिंता का देश’ के रूप में नामित करने के लिए कहा था. सत्तारूढ़ राजनेताओं के अल्पसंख्यक विरोधी बयानों और शारीरिक हिंसा की कई घटनाओं पर प्रकाश डालने के अलावा आयोग ने विशेष रूप से धर्मांतरण विरोधी कानूनों के प्रभाव पर बात की थी.
ईएफआई की रिपोर्ट बताती है कि पादरियों को नियमित रूप से जबरन धर्मांतरण और अन्य आरोपों में गिरफ्तार किया जाता है और उन्हें असहानुभूतिपूर्ण – और कभी-कभी हिंसक – पुलिस कार्रवाई का भी सामना करना पड़ता है.
यूनाइटेड क्रिश्चियन फोरम के राष्ट्रीय संयोजक माइकल ने द वायर को बताया, ‘इस साल 520 ईसाइयों – पादरी और अन्य – को झूठे मामलों में गिरफ्तार किया गया है, लेकिन इन सभी मामलों में कोई भी शिकायतकर्ता यह नहीं कह रहा है कि ‘मेरा जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया’. यह तीसरा पक्ष है, जो आकर कहता है कि लोगों का धर्मांतरण कराया जा रहा है.
वह पूछते हैं, ‘ये सभी अदृश्य धर्मांतरित लोग कहां हैं? यदि ईसाई सभी का धर्म परिवर्तन कराने में इतने व्यस्त हैं, तो हर जनगणना में उनकी आबादी का हिस्सा समान क्यों है?’
यह भी एक सवाल है जिसे माइकल ने सुप्रीम कोर्ट में धर्मांतरण विरोधी कानूनों को चुनौती देने वाली याचिका में उठाया है. यही पीठ ‘गलत तरीके’ से धर्मांतरण के खिलाफ याचिकाओं पर भी सुनवाई कर रही है.
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