‘दिल्ली के देवों! होश करो, सब दिन तो यह मोहिनी न चलने वाली है’

जन्मदिन विशेष: रामधारी सिंह दिनकर उन कवियों के लिए सबक थे- आज भी हैं- जो कई बार देश ओर कविता के प्रति अपनी निष्ठाओं की क़ीमत पर ‘अपनी’ सरकार के चारण बन जाते हैं.

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रामधारी सिंह दिनकर और पृष्ठभूमि में उनकी डेस्क. (फोटो साभार: राजकमल प्रकाशन)

जन्मदिन विशेष: रामधारी सिंह दिनकर उन कवियों के लिए सबक थे- आज भी हैं- जो कई बार देश ओर कविता के प्रति अपनी निष्ठाओं की क़ीमत पर ‘अपनी’ सरकार के चारण बन जाते हैं.

रामधारी सिंह दिनकर और पृष्ठभूमि में उनकी डेस्क. (फोटो साभार: राजकमल प्रकाशन)

जनता? हां, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहने वाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहने वाली.

…लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है;

…. हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह, समय में ताब कहां
वह जिधर चाहती काल उधर ही मुड़ता है

पराधीनता के दौरान ‘विद्रोही’ और स्वतंत्रता के बाद ‘राष्ट्रकवि’ कहलाए स्मृतिशेष रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने देश के पहले गणतंत्र दिवस पर ही सत्तातंत्र को यह चेतावनी दे डाली थी- साथ ही ‘जनता आती है’ कहकर समय रहते समय के रथ का घर्घर नाद सुनने, उसे राह देने और सिंहासन खाली करने की नसीहत भी!

लेकिन विडंबना देखिए: उनकी इस चेतावनी और नसीहत को तब के सत्तातंत्र ने पूरे मन से नहीं लिया तो आज का सत्तातंत्र आधे-अधूरे मन से लेने को भी तैयार नहीं है और अपनी सारी शक्ति ‘जनता को जनता ही न रहने देने’ के प्रयत्नों में लगा रहा है. दूसरी ओर, देशवासियों में शायद ही कोई हो, जिसे उसके इन प्रयत्नों का अंजाम न मालूम हो, फिर भी उनका एक हिस्सा ‘खुशी-खुशी’ प्रजा बने रहने में ही अपनी सुरक्षा ढूंढ़ रहा है.

ऐसे में जो शख्स भी इस देश के भविष्य के अंदेशों पर ईमानदारी से सोचता है, कभी न कभी इस कसक के हवाले हो ही जाता है कि आज हमारे बीच दिनकर जैसा कोई कवि-स्वर क्यों नहीं है जो अपने और पराये का भेद किए बिना निर्भीकतापूर्वक सत्तातंत्र को आईना दिखाकर पूछ सके:

हिल रहा देश कुत्सा के जिन आघातों से, वे नाद तुम्हें ही नहीं सुनाई पड़ते हैं?
निर्माणों के प्रहरियों! तुम्हें ही चोरों के काले चेहरे क्या नहीं दिखाई पड़ते हैं?

तो होश करो, दिल्ली के देवों, होश करो, सब दिन तो यह मोहिनी न चलने वाली है,
होती जाती है गर्म दिशाओं की सांसें, मिट्टी फिर कोई आग उगलने वाली है।

हों रहीं खड़ी सेनाएं फिर काली-काली मेंघों-से उभरे हुए नए गजराजों की,
फिर नए गरुड़ उड़ने को पांखें तोल रहे, फिर झपट झेलनी होगी नूतन बाजों की।

इस कसक के बीच यहां बिहार के बेगूसराय जिला मुख्यालय से बीस किलोमीटर दक्षिण गंगा के तटवर्ती सिमरिया गांव में 23 सितंबर 1908 को एक भूमिहार ब्राह्मण परिवार में जन्मे और 24 अप्रैल, 1974 को मद्रास में इस संसार को अलविदा कह गए राष्ट्रकवि के जीवन संघर्ष, उस दौरान मिली लोकप्रियता, पुरस्कारों, सम्मानों व नियुक्तियों वगैरह के बखान से उनके उस मूल्यांकन को याद करना बेहतर होगा, जो वरिष्ठ पत्रकार अभिरंजन कुमार ने कोई पांच साल पहले बीबीसी के लिए लिखे गए एक लेख में बहुत वस्तुनिष्ठ होकर किया था: ‘दिनकर की राष्ट्रीयता न तो आज के दक्षिणपंथियों जैसी मिलावटी है, न ही उनकी जनपक्षधरता आज के वामपंथियों जैसी दिग्भ्रमित. लिहाजा वे किसी एक विचार के खांचे में फिट बैठने वाले नहीं.’

अभिरंजन अपने इसी लेख में आगे लिखते हैं कि वे थोड़े-से मार्क्सवादी थे, तो थोड़े-से गांधीवादी {दिनकर खुद भी लिख गए हैं: अच्छे लगते हैं मार्क्स किंतु है अधिक प्रेम गांधी से. प्रिय है शीतल पवन प्रेरणा लेता हूं आंधी से.  थोड़े-से राष्ट्रवादी थे, तो थोड़े से समाजवादी, थोड़े-से क्रांतिधर्मी तो थोड़े-से परंपरावादी. उन्हें जहां से जो भी अच्छा लगा, उसे वहीं से ग्रहण कर लिया… उनके साहित्य के बड़े हिस्से में वीर रस की प्रधानता रही, पर जब वे शोषितों-वंचितों के हक की आवाज बुलंद करते तो पक्के साम्यवादी लगते थे. मिसाल के तौर पर: शांति नहीं तब तक, जब तक सुख भाग न सबका सम हो, नहीं किसी का बहुत अधिक हो, नहीं किसी का कम हो.

इसीलिए कांग्रेसी होने के बावजूद वे कांग्रेस के खांचे में भी फिट नहीं ही बैठे. बैठे होते तो उस अर्थ में तो राष्ट्रकवि नहीं ही बन पाते, जिस अर्थ में आज हैं. न ही उनकी रचनाओं में किए गए आह्वान कांग्रेस के खिलाफ चले अनेकानेक आंदोलनों में खुलकर इस्तेमाल किए जाते. जानकारों के अनुसार, उनके यों मिसफिट होने के पीछे उनकी अपने कवि-विवेक को सर्वोपरि रखने और निजी हानि-लाभ के जोड़-घटाव में कतई न उलझाने की जिद थी. यह जिद उन्हें किसी भी व्यक्ति या विचार को आंख मूंदकर नकारने या स्वीकारने, अंधश्रद्धालु होकर उसकी पूजा या अंधानुकरण करने की इजाजत नहीं देती थी.

अलबत्ता, जैसे ही उनके विवेक को लगता कि किसी के मूल्यांकन में उससे कोई चूक हो गई है, वह उनसे बिना झिझके उसे संशोधित करा अथवा बदलवा लेता था- बिना इसकी फिक्र किए कि इस बदलाव को उनके अंतर्विरोध के तौर पर भी देखा जा सकता है. समय के साथ उन्होंने ऐसे ‘अंतर्विरोधों’ की कई मिसालें बनाईं.

1962 में चीन से युद्ध के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और कम्युनिस्टों दोनों के बारे में अपनी राय  बदल ली. महात्मा गांधी की बात करें, तो उनके बारे में तो वे 1933 से ही ऐसा करते आ रहे थे. 1930 के ऐतिहासिक नमक सत्याग्रह के अगले ही साल महात्मा गोलमेज काफ्रेंस में शामिल होने पर राजी हो गए, तो उन्होंने लिखा- रे रोक युधिष्ठिर को न यहां जाने दे उनको स्वर्ग धीर, पर फिरा हमें गांडीव-गदा लौटा दे अर्जुन-भीम वीर.

उनकी इन पंक्तियों में ‘युधिष्ठिर’ थे महात्मा, जो हर कदम पर धर्म-अधर्म, नैतिक-अनैतिक और हिंसा-अहिंसा आदि के द्वंद्व में पड़ जाते थे, जबकि ‘अर्जुन-भीम’ थे चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह.

लेकिन बाद में उन्होंने महात्मा की भक्त जैसे मुक्त कंठ से प्रशंसा की. उन्हें ‘घोर लौहपुरुषों’ पर भी तरजीह दी, ‘गरिमा का महासिंधु’ बताया और अपनी आत्मा में ‘बसाया’. उनकी हत्या कर दी गई तो ‘हाय, हिंदू ही था वह हत्यारा’ लिखकर उन तत्वों की ओर निशाना साधा, जिनके लिए बाद में लिखा: समर शेष है अभी मनुजभक्षी हुंकार रहे हैं. गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं.

एक समय उन्होंने नेहरू की प्रशंसा में ‘लोकदेव नेहरू’ पुस्तक लिखी थी और नेहरू ने उनकी महत्वाकांक्षी कृति ‘संस्कृति के चार अध्याय’ की भूमिका. इतना ही नहीं, नेहरू ने उन्हें राज्यसभा की सदस्यता भी दिलाई थी. लेकिन 1962 में चीन से निपटने के नेहरू के तरीके से खिन्न होने के बाद उन्होंने संसद के अंदर और बाहर उनकी जैसी निर्मम आलोचना की, नेहरू के कट्टर विरोधियों ने भी शायद ही की हो.

यों, ‘बख्शते’ तो वे उन्हें शायद ही कभी थे: घातक है जो देवता सदृश दिखता है, लेकिन कमरे में गलत हुक्म लिखता है. जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा है, समझो उसने ही हमें यहां मारा है. जो सत्य जानकर भी न सत्य कहता है या किसी लोभ के विवश मूक रहता है. उस कुटिल राजतंत्री कदर्य को धिक है, वह मूक सत्यहंता कम नहीं वधिक है.

राष्ट्र की आन के मुद्दे पर वे अपने मित्र नेहरू के प्रति इतने कठोर हो सकते थे, तो कम्युनिस्टों के प्रति तो उन्हें कठोर होना ही था. कहते हैं कि कठोरता की इसी राह पर आगे बढ़ते-बढ़ते उनकी निष्ठा समाजवादी जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण-क्रांति तक पहुंची.

पल भर यहां रुककर जान लेना चाहिए कि वे उन कवियों में नहीं थे, जो अकारण भी युद्धपिपासु होकर ‘युद्ध-युद्ध’ चिल्लाते रहते हैं. लेकिन ‘शांति की रक्षा के लिए कायरता’ का समर्थन भी उन्हें गवारा नहीं था. उनका मानना था: सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है. बल का दर्प चमकता उनके पीछे जब जगमग है. हां, वे उन कवियों के लिए भी सबक थे- अभी भी हैं- जो कई बार देश ओर कविता के प्रति अपनी निष्ठाओं की कीमत पर ‘अपनी’ सरकार के चारण बन जाते हैं. कांग्रेसी सरकारों के प्रभुत्व के उस दौर में कांग्रेसी होते हुए भी उन्होंने लिखा था: कृषकमेध की रानी दिल्ली वैभव की दीवानी दिल्ली.

1961 में उनकी प्रेम व सौंदर्य की अद्भुत अनुभूतियों से भरी कृति ‘उर्वशी’ प्रकाशित हुई तो उसमें की गई कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति भी जैसे यही घोषणा कर रही थी कि वे उस वीर रस के खांचे में भी फिट नहीं ही बैठते, जिसे आमतौर पर उनकी पहचान माना जाता है.

उन्होंने अपनी काव्यकृतियों के लिए गंभीर से गंभीर विषय चुने-युद्ध और शांति जैसे बेहद गंभीर विषय भी- लेकिन उनके निर्वाह में अपनी कविता की गुणवत्ता व लोकप्रियता को प्रभावित नहीं होने दिया. तभी तो उनके गांव-घर की दीवारें भी उनकी कविताओं की पहुंच से दूर नहीं रह पाईं: उठ मंदिर के दरवाजे से, जोर लगा खेतों में अपने, नेता नहीं भुजा करती है सत्य सदा जीवन के सपने.

अलबत्ता, उनके द्वारा प्रभूत मात्रा में किया गया गद्यलेखन गुणवत्ता में कतई कम न होने के बावजूद हमेशा उनकी राष्ट्रकवि की छवि के साइड इफेक्ट झेलने को अभिशप्त रहा. वर्ष 2015 में उनकी कृतियों ‘संस्कृति के चार अध्याय’ और ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ की स्वर्ण जयंती मनाने और उन्हें ‘भारतरत्न’ देने की मांग के बहाने भाजपा और नरेंद्र मोदी सरकार ने उनकी जाति के मतदाताओं को लुभाना चाहा, तो उनकी कोशिशों को ‘राष्ट्रकवि को जातिकवि बनाने की कोशिशों’ के तौर पर देखा गया- भले ही उन पर जातिवादविरोध का मुलम्मा चढ़ाया गया था.

तब राजधानी दिल्ली में विज्ञान भवन में आयोजित स्वर्ण जयंती समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके द्वारा मार्च, 1961 में एक पत्र में कांग्रेस को दी गई इस सलाह का जिक्र किया था कि ‘बिहार को जाति व्यवस्था को भूलना ही होगा…..(अन्यथा) बिहार का सार्वजनिक जीवन गल जाएगा.’

लेकिन राष्ट्रकवि ने ‘रश्मिरथी’ में सूतपुत्र कर्ण से इससे कहीं ज्यादा बड़ी बात कहलवाई है: ‘जाति-जाति रटते जिनकी पूंजी केवल पाखंड’ और ‘शरमाते हैं नहीं जगत में जाति पूछने वाले.’

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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