महिला आरक्षण बिल किसी राजनीतिक दल का नहीं, महिला संगठनों का है

लोकसभा व विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने वाला बिल सोच और ड्राफ्ट के स्तर पर न भाजपा का है न कांग्रेस का, बल्कि विशुद्ध रूप से महिला संगठनों का है. लेकिन विडंबना ही है कि प्रधानमंत्री द्वारा लाए गए बिल में महिला संगठनों की भूमिका का प्रस्तावना तक में कोई ज़िक्र तक नहीं है.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर/फोटो: पीटीआई )

लोकसभा व विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने वाला बिल सोच और ड्राफ्ट के स्तर पर न भाजपा का है न कांग्रेस का, बल्कि विशुद्ध रूप से महिला संगठनों का है. लेकिन विडंबना ही है कि प्रधानमंत्री द्वारा लाए गए बिल में महिला संगठनों की भूमिका का प्रस्तावना में कोई ज़िक्र तक नहीं है.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर/फोटो: पीटीआई )

लोकसभा व विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने वाले बिल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘अपना’ और कांग्रेस नेता सोनिया गांधी ने ‘हमारा’ बिल बताया. पर वास्तव में यह बिल दोनों का ही नहीं है. न सोच के स्तर पर और न ड्राफ्ट के स्तर पर. यह विशुद्ध रूप से महिला संगठनों का बिल है और भारत की संकीर्ण मुद्दों की पुरुषप्रधान राजनीति का नतीजा है. अन्यथा महिलाओं की इच्छा व कोशिश हमेशा यही रही है कि राजनीतिक दलों के जरिये उनकी नीति निर्माण व लोकतंत्रिक प्रक्रिया में बराबर की भागीदारी हो.

आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी बड़ी संख्या में महिलाओं को आगे लाए और आम महिला तक का उससे राजनीतिकरण हुआ. वह संविधान सभा तक पहुंची और उसका आत्मविश्वास इस हद तक था कि जब अनुसूचित जाति व जनजाति की तरह महिलाओं को भी जनप्रतिनिधि संस्थाओं में आरक्षण देने के लिए कहा गया तो सभा की सभी महिला सदस्यों ने उससे इनकार कर दिया. उनका कहना था कि महिलाएं भारतीय राजनीति की मुख्यधारा का हिस्सा हैं और अपनी क्षमता के बल पर ही वे चुनाव जीतकर आएंगी. उनका यह विश्वास उस समय के राजनीतिक माहौल, मूल्यों व अनुभवों से बना था पर बाद में राजनीति अधिकाधिक पुरुषप्रधान होती चली गई. मूल्यों का क्षरण हुआ और महिलाएं राजनीतिक परिदृश्य से बाहर होती चली गईं.

दूसरी बार उसका बड़े पैमाने पर राजनीतिकरण जेपी आंदोलन में हुआ. 1947 के बाद करीब 30 साल में एक पूरी नई पीढ़ी देश में अपनी हर प्रकार की महत्वाकांक्षा के साथ सरकार से उम्मीदें लगाए हुए थी. शीर्ष पर बैठीं इंदिरा गांधी ने इस पीढ़ी को राजनीति के प्रति आकर्षित किया था. लेकिन जमीनी माहौल उसे निराश कर रहा था. जेपी आंदोलन ने उसे मौका दिया. बड़े पैमाने पर वह इसमें शामिल हुई और सड़कों पर उतरी. उसी का नतीजा था कि 1977 व उसके बाद केंद्र व राज्यों में हुए चुनावों में कई महिलाएं लोकसभा व विधानसभाओं में पहुंची. पर इनमें से ज्यादातर राजनीतिक परिवारों या पुरुषो से जुड़ी हुई ही थीं. आम महिला के हाथ निराशा ही आई थी.

जेपी आंदोलन ने युवा पीढ़ी को संगठित किया, जिससे कई जनआंदोलन निकले. पर भारतीय महिला को पहली बार अपनी सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक दुर्दशा का एहसास 1975 की संयुक्त राष्ट्र महिला दशक के लिए तैयार की गई ‘महिलाओं की स्थिति रिपोर्ट 1975 से हुआ था. उसके बाद से दलों की महिला शाखाएं भी अपने-अपने शीर्ष नेतृत्व से उनके लिए नीतियां, खासतौर से शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में, बनाने की मांग कर रही थीं. इंदिरा गांधी ने अपने 20 सूत्रीय कार्यक्रम में उनकी मांग के बाद ही महिलाओं के लिए कुछ कोटा निश्चित किया था. चुनाव काल में वे मंगलसूत्र या साड़ियां बांटने या उनके दामों में छूट जैसी घोषणाएं जरूर करती रहीं पर नीति व राजनीति किसी भी स्तर पर उन्होंने महिलाओं को एक अलग वर्ग मानकर कोई फैसला नहीं लिया. महिला आंदोलन की वामपंथी नेता विमला फारूकी के अनुसार, उन्होंने महिला संगठनों की महिला आयोग गठित करने की मांग को हमेशा यह कहकर नजरअंदाज कर दिया कि इससे महिलाएं समाज में एक अलग वर्ग के रूप में देखी जाने लगेंगी और वह उनके हित में नहीं होगा.

पर मां के इस विचार से बिल्कुल अलग उनके बेटे राजीव गांधी ने आते ही महिला एवं बाल विभाग का अलग से गठन करवाया और व्यापक पैमाने पर उनके लिए योजनाएं व कार्यक्रम घोषित किए. 1985 में बड़े पैमाने पर महिलाओं को टिकट दिए. उन्हें चुनावी राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया और पंचायती राज में 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए सुरक्षित करवाईं. अपने मंत्रिमंडल में भी महिलाओं को जगह दी. कुल मिलाकर उनके समय में सत्ता व नीति निर्माण प्रक्रिया में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं को शामिल किया गया.

पारिवारिक अदालतें और दहेज हत्या विरोधी कानून बने. महिला जेल व महिला सेलों का गठन हुआ. कुल मिलाकर उनके समय में सामाजिक व राजनीतिक स्तर पर निर्णय निर्माण की प्रक्रिया में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी हुई.

1975 की महिलाओं की स्थिति रिपोर्ट में नगर परिषदों में महिलाओं को आरक्षण देने की सिफारिश की गई थी पर विधानसभाओं के लिए आई मांग को अस्वीकार कर दिया गया था. लोकसभा के लिए तो किसी क्षेत्र से मांग ही नहीं आई थी. इसके बाद 1988 में महिलाओं के परिदृश्य पर तैयार की गई रिपोर्ट में भी महिला संगठन इस मांग को नहीं उठा रहे थे. 1985 में संयुक्त राष्ट्र के महिला दशक घोषित कर दिए जाने के बाद कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से धन प्राप्त महिला संगठन भी जमीन पर उतर आए थे. वे महिलाओं संबंधी नीतियां बनाने की मांग तो कर रहे थे. राजनीति में ज्यादा संख्या में महिलाओं को टिकट देने की मांग भी कर रहे थे पर लोकसभा में उन्हें आरक्षण की मांग कहीं से नहीं उठी थी.

1989 में जनता दल में महिलाओं के लिए टिकटें मांगने गई वरिष्ठ नेता प्रमिला दंडवते को जनता दल के नेता देवीलाल ने कह दिया कि ‘घर जाओ और बच्चे संभालों’ तो उनकी वह बात अखबारों की पेज वन न्यूज तो बनी पर आरक्षण की मांग महिलाओं की तब भी नहीं थी. असल में समाजवादी नेताओं से भरे जनता दल से महिलाओं को बहुत उम्मीदे थीं. पर महिलाओं का सबसे ज्यादा अपमान इसी दल ने किया था. फिर भी वे आरक्षण की मांग नहीं कर रहीं थीं.

आरक्षण के बारे में पहली बार उन्होंने 1991 में सोचना शुरू किया. मंडल-कमंडल व राजनीति के अपराधीकरण से जाति, सांप्रदायिकता व अपराधियों पर आधारित चुनावी प्रक्रिया में मुख्य भूमिका धनबल व भुजबल की हो गई थी. और महिलाएं इस भूमिका में कभी आगे आ नहीं सकती थीं. उन्हें यह विश्वास हो गया था कि अब आरक्षण के बिना उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अपने हिस्से की भागीदारी छीननी ही होगी. तब 1994 में होने वाले विश्व महिला सम्मेलन के लिए 1992 में तैयार किए गए अपने राजनीतिक एजेंडा में उन्होंने लोकसभा व विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग को शामिल किया. इसके लिए उनका प्रमुख नारा था- ‘क्लीन व ग्रीन पाॅलिटिक्स.’

1996 के लोकसभा चुनावों में महिला आंदोलन के संगठनों व बीजिंग सम्मेलन के लिए बने महिला संगठनों ने मिलकर सभी राजनीतिक दलों को अपना राजनीतिक एजेंडा दिया और उनकी 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग को अपने घोषणापत्रों में शामिल करने व कुछ कम संख्या में ही सही उन्हें टिकटें देने के लिए प्रतिवेदन दिए. वामपंथी दलों समेत कांग्रेस व भाजपा ने उसे अपने घोषणापत्रों में तो जगह दी पर टिकट नहीं दिए. इसके बाद राजनीतिक दलों के भीतर की महिलाओं व महिला संगठनों ने मिलकर संसद में पहुंची महिलाओं को अपने साथ लेना शुरू किया. इन सांसदों ने संसद के भीतर अपने नेताओं पर दबाव बनाया. संसद के भीतर और बाहर लगातार बनाए गए इस दबाव का ही नतीजा था कि अंततः 1996 में एचडी देवगौड़ा की सरकार यह बिल लोकसभा में लेकर आई.

इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि पेश होने के साथ ही पहली आपत्ति एक महिला सांसद ने ही उठाई. भाजपा की उस समय की फायर ब्रांड सांसद उमा भारती ने महिलाओं के 33  फीसदी कोटा के भीतर अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) की महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण किए जाने की मांग की. उसके बाद ही बिल को सलेक्ट कमेटी को भेज दिया गया. सीपीएम की सांसद गीता मुकर्जी इसकी अध्यक्ष बनीं. इस कमेटी की रिपोर्ट आई तो उसमें अनुसूचित जाति व जनजाति को तो आरक्षण के भीतर आरक्षण दिया गया पर ओबीसी को नहीं. यह महिला संगठनों के मोबलाइजेशन का ही नतीजा था कि लोकसभा के स्पीकर पीए संगमा और राज्यसभा की उपसभापति नजमा हेपतुल्ला इस बिल को पास करवाने के लिए हमेशा उत्साहित रहे.

प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने बिल पर आम राय बनाने के लिए पार्लियामेंट एनेक्सी में दो दिन का एक सम्मेलन बुलाया, जिसमें तमाम महिला सांसदों के अलावा बड़ी संख्या में महिला संगठनों ने भी भाग लिया. असल में उस समय तक शीर्ष नेताओं और महिला संगठनों को समझ आ गया था कि सपा व राजद के अलावा बाकी सभी दलों में भी पुरुष सांसद नहीं चाहते कि यह बिल पास हों. वे इसे अपने राजनीतिक करिअर के हत्या के रूप में देख रहे थे. पर संसद के बाहर व भीतर महिला संगठनों व महिला संसदों का दबाव लगातार पार्टियों के नेतृत्व पर बना हुआ था. कांग्रेस, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा और वामपंथी दल मिलकर इस बिल को पास करवा देने की रणनीति बनाते रहे.

1998 और उसके बाद वाजपेयी सरकार भी इस बिल को लाई पर जद (यू), सपा व राजद सांसदों ने इसे पेश तक न होने दिया. अंततः 2010 में सोनिया गांधी ने इसे राज्यसभा में पेश किया यह सोचकर कि वहां पास हो जाने पर कम से कम यह समाप्त तो नहीं होगा. उसके बाद सत्ता में रहने के बावजूद गठजोड़ सरकार की मजबूरियों के चलते कांग्रेस लोकसभा में इसे भले ही नहीं लाई पर महिला संगठन समय-समय पर अपनी मांग उठाते ही रहे.

यह बिल महिला संगठनों का था, इसका पता इस बात से भी लगता है कि जिस दिन भी यह बिल संसद के किसी सदन में पेश होना होता था, उस दिन बड़ी संख्या में महिला संगठनों की सदस्य संसद परिसर में मौजूद रहती थीं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संसद का विशेष सत्र बुलाकर 18 सितंबर, 2023 को महिला आरक्षण बिल लोकसभा में पेश कर पाए तो इसलिए कि वह सरकार के पिटारे में रखा हुआ था. 2014 से ही महिला संगठन व कांग्रेस उस बिल को पास करवाने के लिए सरकार से अनुरोध कर रहे थे. उनका जोर इसलिए भी था कि पिछले अनुभवों में यह बात बार-बार उभरकर आती थी कि मजबूत सरकार हो तो बिल पास करवाना कठिन नहीं होगा.

पर राजनीति में महिलाएं मोदी के एजेंडा में नहीं थी. वे महिलाओं को छोटी-छोटी सुविधाएं देकर अपने खेमे में तो लाना चाहते थे पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में उसकी समुचित भागीदारी सुनिश्चित करने में उनकी कोई रुचि नहीं थी. विधानसभाओं और लोकसभा चुनावों में महिला वोट बैंक को लुभाने के लिए अब वे नारी शक्ति वंदन नाम से महिला आरक्षण बिल ला पाए तो इसलिए कि सरकार के पास यह लंबित पड़ा था.

यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री द्वारा लाए गए बिल में महिला संगठनों की भूमिका का प्रस्तावना तक में कोई जिक्र नहीं है. और जिस तरह से इसको जनगणना व सीटों के डिलिमिटेशन प्रक्रिया में उलझाकर छोड़ दिया गया है, उससे वे निराश व हताश भी हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है.)