हसदेव जंगल के विनाश की कीमत शायद ही हम कभी चुका पाएंगे: आलोक शुक्ला

इस जंगल को बचाने के लिए आंदोलनरत ‘हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति’ के संस्थापक सदस्य आलोक शुक्ला को इस साल का ‘गोल्डमेन पुरस्कार’ मिला है. उनसे बातचीत.

हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के सदस्य और ‘छत्तीसगढ़ बचाओ संघर्ष समिति’ के संयोजक आलोक शुक्ला. (फोटो साभार: स्पेशल अरेंजमेंट)

मध्य भारत के छत्तीसगढ़ में हसदेव जंगलों को बचाने के लिए कोयला खदानों के खिलाफ पिछले एक दशक से भी अधिक समय से संघर्ष जारी है. हसदेव अरण्य जिसे ‘मध्य भारत के फेफड़ों’ के रूप में जाना जाता है, एक लाख 70 हज़ार हेक्टेयर में फैला हुआ है जो जैव विविधताओं से भरा देश का अनमोल खजाना है. वहां के स्थानीय लोगों, मुख्यत: आदिवासियों का यह कहना है कि इस जंगल के विनाश से न सिर्फ उनके जल-जंगल-ज़मीन का नुकसान होगा, बल्कि उनकी आजीविका ही खतरे में पड़ जाएगी.

इस जंगल को बचाने के लिए संघर्ष कर रही ‘हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति’ के संस्थापक सदस्य और ‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’ के संयोजक आलोक शुक्ला को इस साल का ‘गोल्डमेन पुरस्कार’ मिला है. गोल्डमेन एनवायर्नमेंटल फाउंडेशन द्वारा हर साल दुनिया भर के उन कार्यकर्ताओं को गोल्डनमेन पुरस्कार दिया जाता है जो जमीनी स्तर पर पर्यावरण को बचाने के लिए काम करते हैं. इस अवॉर्ड को ग्रीन नोबेल के रूप में भी जाना जाता है. इस साल गोल्डमेन एन्वायरमेंट अवॉर्ड भारत से आलोक शुक्ला के साथ-साथ दुनिया भर के सात कार्यकर्ताओं – दक्षिण अफ्रीका से नॉनहले मबुथुमा और सिनेगुगु जुकुलु, स्पेन से टेरेसा विसेंट, ऑस्ट्रेलिया से मुर्रावाह मारूची जॉनसन, अमेरिका से एंड्रिया विडॉरे, ब्राजील से मार्सेल गोम्स को मिला है.

इस मौके पर द वायर  से बातचीत करते हुए, आलोक शुक्ला ने कहा कि हसदेव अरण्य पर्यावरण के दृष्टिकोण से बहुत ही संवेदनशील इलाका है. यह न सिर्फ छत्तीसगढ़ के लोगों को ऑक्सीजन देता है बल्कि पूरे देश के मानसून को नियंत्रण में रखने में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है. यही वजह है कि इस जंगल को मध्य भारत के फेफड़े के रूप में माना जाता है.

हसदेव नदी. (फोटो साभार: स्पेशल अरेंजमेंट)

उन्होंने कहा कि उससे भी महत्वपूर्ण यह है कि यहां रहने वाले जो लोग हैं, आदिवासी और गैर-आदिवासी – उनकी आजीविका और संस्कृति पूरी तरीके से इसी जंगल पर निर्भर है. ये जंगल एक तरीके से यहां रहने वाले लोगों के साथ-साथ असंख्य वन्य प्राणियों और पशु-पक्षियों की भी जीवनरेखा हैं. इसलिए इन जंगलों को बचाने के लिए लोग लड़ रहे हैं. उनका मानना है कि इस जंगल को अब तक हुए विनाश की कीमत चुका पाना भी लगभग नामुमकिन है.

शुक्ला का कहना है कि पिछले 12 सालों के संघर्ष की बदौलत इस जगह के निवासी बहुत बड़े इलाके को बचाने में कामयाब रहे हैं. जो कोयला ब्लॉक पहले से चालू थे, जैसे कि परसा ईस्ट केते बासन जो 2012 में शुरू हुआ था, उसी में फिलहाल माइनिंग हो रही है और दूसरे चरण के विस्तार के लिए जंगलों की कटाई की कोशिश हो रही है. लेकिन जन आंदोलन की बदौलत अभी तक 22 प्रस्तावित कोल ब्लॉकों में खनन शुरू नहीं हो पाया है.

उन्होंने कहा, ‘साल 2021 में लोगों ने रायपुर तक पैदल मार्च कर विधानसभा में प्रस्ताव पारित करने के लिए मजबूर किया था. जिससे 21 खदानों को रद्द करने का प्रस्ताव पारित हुआ था और लेमरु हाथी रिजर्व को अधिसूचित किया गया.’

उल्लेखनीय है कि अक्टूबर 2021 में ‘अवैध’ भूमि अधिग्रहण के विरोध में आदिवासी समुदायों के लगभग 350 सदस्यों द्वारा रायपुर तक 300 किलोमीटर पदयात्रा की गई थी और प्रस्तावित खदान के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराया था.

उनका मानना है कि यह उस संघर्ष की बहुत बड़ी जीत है. उन्होंने कहा, ‘इस संघर्ष के जरिये लोगों ने इस जंगल के एक बड़े इलाके को बचाया हैं. लेकिन जहां पर दुनिया के सबसे ताकतवर कॉरपोरेट की खदान है वहां अभी भी ग्रामसभाओं के अधिकारों की अवहेलना करके पेड़ों की कटाई की जा रही है, जिसके खिलाफ संघर्ष जारी है.’

मालूम हो कि छत्तीसगढ़ में भाजपा के सत्ता में आते ही पिछले साल दिसबंर में हसदेव अरण्य क्षेत्र में परसा पूर्व और केते बासन (पीईकेबी) दूसरे चरण विस्तार कोयला खदान के लिए पेड़ काटने की कवायद पुलिस सुरक्षा घेरे के बीच बड़े पैमाने पर हुई थी.

21, 22 और 23 दिसंबर को भारी पुलिस सुरक्षा के तहत बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई की गई. (फोटो साभार: X/@alokshuklacg)

स्थानीय प्रशासन ने दावा किया था कि उसके पास पीईकेबी-II में पेड़ काटने के लिए सभी आवश्यक अनुमतियां हैं, जो पीईकेबी-I खदान का विस्तार है.

परसा ईस्ट और केते बासन कोयला खदान का माइन डेवलपर ऑपरेशन ठेकेदार के तौर पर मालिकाना हक अडानी एंटरप्राइजेज के पास है.

इससे पहले वन विभाग ने मई 2022 में पीईकेबी चरण-2 कोयला खदान की शुरुआत करने के लिए पेड़ काटने की कवायद शुरू की थी, जिसका स्थानीय ग्रामीणों ने कड़ा विरोध किया था. बाद में इस कार्रवाई को रोक दिया गया था.

देश के एक तबके का यह मानना है कि खदानें खोलने से देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत होगी और रोजगार मिलेगी. इन तर्कों को लेकर शुक्ला ने कहा कि जब आदिवासी इलाकों में कोई परियोजना आती है तो यह बहस होती है. विकास और विनाश को लेकर चर्चा होती है. इन सारी परियोजनाओं को विकास के नाम पर लाया जाता है. यदि खनन परियोजनाओं से सचमुच में विकास होता तो दंतेवाड़ा में, जहां पचास के दशक से हो माइनिंग का काम हो रहा है, वह ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स में भारत का सबसे समृद्ध जिला होना चाहिए था. लेकिन वहां की हालत क्या है हम सब जानते हैं.


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उन्होंने कहा कि हसदेव की लड़ाई सिर्फ गांवों को बचाने की लड़ाई नहीं है, इस संघर्ष ने विकास की पूरी परिभाषा को ही चुनौती दी है और यह संदेश दिया है कि विकास की नई परिभाषा गढ़नी पड़ेगी क्योंकि पूरी दुनिया ही अब जलवायु परिवर्तन के संकट से गुजर रही है.

उन्होंने कहा, ‘आदिवासी समुदाय ने जंगल को बचाकर रखा है, उसको सुरक्षित रखा है. आज विकास के नाम पर हम पूरी धरती का विनाश कर रहे हैं, इस स्थिति में हमें देखना होगा उन आदिवासी इलाकों की ओर, जो प्रकृति के साथ सामंजस्य के साथ जीवन जी रहे हैं. उनके तरीकों से सीखना होगा और प्राकृतिक संसाधनों को सुरक्षित रखते हुए विकास को आगे बढ़ाना होगा.’

आखिर में शुक्ला ने कहा, ‘जहां पर जंगल कट रहा है वहां पर आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों की अवहेलना हो रही है. उसके खिलाफ मजबूती से लड़ाई लड़ना और पूरे देश और दुनिया से निवेदन करना कि ऐसे लोगों की मुहिम से आप सब लोग जुड़ें क्योंकि यह लड़ाई हम सबके सांसों को बचाने की लड़ाई है.’

गोल्डमेन अवॉर्ड जीतने को लेकर आलोक शुक्ला ने कहा, ‘इससे हसदेव में लड़ने वाले हमारे साथियों का मनोबल बढ़ेगा और जो अन्य संघर्ष चल रहे हैं, उनके लिए उम्मीद जगाएगा कि हम बड़ी से बड़ी ताकत से भी लड़ सकते हैं.’

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