स्वतंत्र पत्रकारिता को डराने का प्रयास जारी है

एक पूरे मीडिया संगठन पर 'छापेमारी' करना और उचित प्रक्रिया के बिना पत्रकारों के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को छीन लेना स्वतंत्र प्रेस के लिए एक बुरा संकेत है, लेकिन लोकतंत्र के लिए उससे भी बदतर है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Bill Kerr/Flickr, CC BY-SA 2.0)

एक पूरे मीडिया संगठन पर ‘छापेमारी’ करना और उचित प्रक्रिया के बिना पत्रकारों के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को छीन लेना स्वतंत्र प्रेस के लिए एक बुरा संकेत है, लेकिन लोकतंत्र के लिए उससे भी बदतर है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Bill Kerr/Flickr, CC BY-SA 2.0)

स्वतंत्र पत्रकारिता पर मोदी सरकार के हमले मंगलवार को आतंकवाद के आरोप में न्यूज़क्लिक के संपादक प्रबीर पुरकायस्थ और न्यूज़ पोर्टल के एचआर विभाग के प्रमुख अमित चक्रवर्ती की गिरफ्तारी के बाद एक नए स्तर पर पहुंच गए हैं.

ये गिरफ्तारियां 3 अक्टूबर की शाम को इसी दिन सुबह नाटकीय ढंग से हुई ‘छापेमारी’ और दिनभर की पूछताछ के बाद हुईं. दर्जनों पत्रकारों के इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस- लैपटॉप और फोन आदि पुलिस ने जब्त कर लिए. जिन लोगों को निशाना बनाया गया उनमें वे लोग भी शामिल थे जिनका इस न्यूज़ पोर्टल के साथ कॉन्ट्रीब्यूटर के बतौर कुछ ही मौकों पर संपर्क रहा है. न्यूज़क्लिक से जुड़े लेखकों, पत्रकारों, स्टैंड-अप कॉमेडियन, इतिहासकार और वैज्ञानिक- सभी के यहां यह दिखाने के लिए छापे मारे गए कि बेलगाम सत्ता किसके हाथ में है. फोन आदि डिवाइस जब्त करने को लेकर कोई सीज़र मेमो या हैश वैल्यू नहीं दिए गए. यह ताकत का दुरुपयोग था. ऐसा लगा कि इरादा नियंत्रण का था और आखिरकार न्यूज़ पोर्टल के दफ्तर को सील कर दिया गया. दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने मंगलवार को कुल 46 लोगों से पूछताछ की.

भारत में फ्री प्रेस या आज़ाद पत्रकारिता के लिए संघर्ष कर रहे लोगों के लिए यह एक मुश्किल साल रहा है. विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में जिन 180 देशों का आकलन किया जाता है, उसमें भारत सूची के नीचे रहे बीस देशों में शामिल (161वें स्थान पर) है. 2015 के बाद से यह गिरावट बहुत अधिक और तेज रही है. भारत वैश्विक इंटरनेट शटडाउन का भी केंद्र रहा है, जहां विश्व के सभी लोकतंत्रों के बीच प्रति वर्ष इंटरनेट बंद किए  जाने का अब तक का आंकड़ा सर्वाधिक है. भारत ने रिकॉर्ड लोकतांत्रिक गिरावट का प्रदर्शन किया है और प्रेस की हालत इस गिरावट का एक महत्वपूर्ण घटक है. फिर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी माथे पर कोई शिकन डाले बिना जब-तब ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ का राग अलापना नहीं भूलते हैं!

डिजिटल और स्वतंत्र मीडिया पर शिकंजा कसने की कोशिश, लगभग एक दशक तक प्रधानमंत्री का एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस न करना, सूचना के अधिकार को ख़त्म करना और अपारदर्शिता की बढ़ती आधिकारिक संस्कृति ने हमारे लोकतंत्र पर बेहद ख़राब असर डाला है. इसके उलट, हेट स्पीच पर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बावजूद नफरत फैलाने वालों- जो टीवी न्यूज़ चैनलों का दिखावा करते हैं- को मिली खुली छूट समाज में जहर घोल रही है और हिंसा को बढ़ावा दे रही है.

लोकतंत्र में स्वतंत्र प्रेस की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता. इसका काम यह सुनिश्चित करना है कि तत्कालीन सरकार हमेशा जांच के दायरे में रहे, उसे चुनने वाले लोगों के प्रति जवाबदेह हो. इसका उद्देश्य नागरिकों को सही और प्रामाणिक जानकारी देना भी है. संक्षेप में, किसी देश के मीडिया की गुणवत्ता यह तय करती है कि उसके नागरिक कितने जागरूक हैं और उसके लोकतंत्र की गुणवत्ता कितनी अच्छी है. पत्रकारिता सत्ता के सामने सच बोलने के बारे में है और कोई भी लोकतंत्र ऐसे में बचा नहीं रह सकता अगर उसे इस पेशे में काम करने के लिए उसे किसी तरह के ‘सुपरहीरो’ की जरूरत पड़े. जैसा कि बर्तोल्त ब्रेख्त ने कहा भी है, ‘वो ज़मीं दुखी है जो किसी नायक को पैदा नहीं करती! नहीं, …अभागी है वो धरती जिसे नायक की जरूरत पड़े.’

एक पूरे मीडिया संगठन पर ‘छापेमारी’ करना और उचित प्रक्रिया के बिना पत्रकारों के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को छीन लेना स्वतंत्र प्रेस के लिए एक बुरा संकेत है, लेकिन लोकतंत्र के लिए उससे भी बदतर है. सभी भारतीयों को इस बात को लेकर सतर्क हो जाना चाहिए कि स्वतंत्र पत्रकार तेजी से बढ़ती तानाशाह व्यवस्था में क्या-क्या सह रहे हैं, क्योंकि आने वाला अंधेरा आखिरकार उनकी दहलीज पर भी पहुंचेगा. चिंता करने का समय बहुत पहले निकल गया है. अगर आप आज तेज़ आवाज़ में बजती खतरे की घंटी नहीं सुन सकते, तो या तो आप बहरे हैं- या बहरे होने का ढोंग कर रहे हैं.

(अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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