न्यूज़क्लिक पर हमला: क्या कहता है ‘राजदंड’ का यह निर्मम प्रहार?

देखते ही देखते संविधान व क़ानून दोनों का अनुपालन कराने की शक्तियां ऐसी राजनीति के हाथ में चली गई हैं, जिसका ख़ुद लोकतंत्र में विश्वास बहुत संदिग्ध है और जो निर्मम और अन्यायी होकर उसे अपने कुटिल मंसूबों और सुविधाओं के लिए इस्तेमाल कर रही है.

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(फोटो: याक़ूत अली/द वायर)

देखते ही देखते संविधान व क़ानून दोनों का अनुपालन कराने की शक्तियां ऐसी राजनीति के हाथ में चली गई हैं, जिसका ख़ुद लोकतंत्र में विश्वास बहुत संदिग्ध है और जो निर्मम और अन्यायी होकर उसे अपने कुटिल मंसूबों और सुविधाओं के लिए इस्तेमाल कर रही है.

(फोटो: याक़ूत अली/द वायर)

दिल्ली पुलिस ने गत तीन अक्टूबर को गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम कानून (यूएपीए) की आड़ में न्यूज़ पोर्टल ‘न्यूज़क्लिक’ के दफ्तर और संपादक, प्रशासक, पत्रकारों, कंट्रीब्यूटरों व सलाहकारों वगैरह के घरों पर धावा बोलकर जो कुछ किया (उसे दोहराने की जरूरत नहीं लगती, क्योंकि आप उससे वाकिफ हैं.), वह किसी और तरीके से अर्दब में न आ रहे मीडिया संस्थानों को कुचल डालने की सरकार की नीयत का पता तो देता ही है, इसका भी देता है कि मीडिया के बड़े हिस्से को काबू कर चुका उसका सत्तातंत्र अब ‘बचे-खुचे’ पत्रकारों को भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहा. इसलिए उसने अपने सारे लज्जावसन उतारकर उन पर ‘राजदंड’ का इस्तेमाल तेज कर दिया है.

अर्दब में न आने और सिर उठाने वालों के विरुद्ध राजदंड के इस्तेमाल की ऐसी मिसालें हम 2014 में नरेंद्र मोदी की पहली सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद से ही देखते आ रहे हैं, लेकिन अब, जब नए संसद भवन में ‘सेंगोल’ की ‘स्थापना’ के साथ उन्होंने उसको ‘अतिरिक्त वैधता’ प्रदान कर दी है, स्वाभाविक ही है कि संविधान व लोकतंत्र के साथ नागरिकों (पत्रकार भी जिनका हिस्सा हैं.) के विवेक पर उसके प्रहार और तेज किए जाएं.

आखिरकार यह वह दौर है, जब प्रधानमंत्री की पार्टी का सांसद संसद में विपक्षी अल्पसंख्यक सांसद को लाइव यानी खुल्लमखुल्ला गालियां देता व ‘देख लेने’ को धमकाता है, लेकिन उसका बाल भी बांका नहीं होता.

अभी ज्यादा दशक नहीं बीते, जब सरकारों के निर्लज्ज होने लगने पर विपक्षी नेता उनको आईना दिखाते हुए कहते थे कि वे कुछ तो शरमाएं, क्योंकि लोकतंत्र अंततः लोकलाज से ही चलता है. जब तक वह बची रहती है, सरकारों को निरंकुश अथवा निर्लज्ज नहीं होने देती. लेकिन अब सत्तातंत्र द्वारा इस लोकलाज को राजदंड से प्रतिस्थापित किया जा चुका है.

दुनिया का इतिहास गवाह है, जब भी ऐसा होता है, भैंस उसी की हो जाती है, जिसकी लाठी, क्योंकि सत्ता के सारे मानवीय गुण तिरोहित हो जाते हैं- लोकतंत्र भी, क्योंकि उसका ताना-बाना ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ के विरुद्ध कठिन संघर्ष से ही बुना जाता है. फिर तो लोकतंत्र कुछ लोगों द्वारा देश व समाज की सारी उपलब्धियों को ऊपर-ऊपर ही लोक लेने के तंत्र में बदल जाता है, आजादी इस लोक लेने की उनकी सहूलियत में, कानून हथियार में और न्याय मत्स्य न्याय यानी अन्याय में.

क्या आज हम यही सब नहीं झेल रहे? फिर?

याद कीजिए, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने गत दिनों एक विधि विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में कहा था कि न्याय और कानून का परिणाम इस पर निर्भर करता है कि कानून का प्रयोग कौन कर रहा है और उसका उद्देश्य क्या है? तब लगा था कि वे ऐसी ही किसी स्थिति की व्याख्या कर रहे हैं.

उन्होंने कहा था: कानून का इस्तेमाल करुणा से किया जाता है तो यह न्याय उत्पन्न करने में सक्षम होता है, लेकिन मनमाना इस्तेमाल किया जाता है तो सिर्फ अन्याय पैदा करता है- भले ही उसका सार करुणा व मानवतावाद की परंपरा पर ही आधारित हो और न्याय की तलाश से अलग होकर वह कानून ही न रह जाता हो.

मुख्य न्यायाधीश का यह कथन संविधान निर्माता बाबा साहेब डाॅ. भीमराव आंबेडकर की उन बातों की याद दिलाने वाला था, जो उन्होंने देश की जटिल समाज व्यवस्था में नियमों, नीतियों, सिद्धांतों, नैतिकताओं, उसूलों व चरित्र वगैरह के संकटों के अंदेशे भांपते हुए संविधान लागू होने के ऐन पहले कही थीं- आगाह करते हुए कि ये संकट बढ़ते गए तो संविधान और आजादी दोनों को तहस-नहस कर डालेंगे.

मुख्य न्यायाधीश कह रहे हैं कि कानून का परिणाम उसे इस्तेमाल करने वाले हाथों व दिमागों की करुणा या क्रूरता पर निर्भर करता है, तो बाबा साहेब ने भी 25 नवंबर, 1949 को- यानी संविधान के अधिनियमित, आत्मार्पित व अंगीकृत होने से ऐन पहले- विधि मंत्री के तौर पर अपने पहले ही साक्षात्कार में कुछ ऐसा ही कहा था: ‘यह संविधान अच्छे लोगों के हाथ में रहेगा तो अच्छा सिद्ध होगा, लेकिन बुरे हाथों में चला गया तो इस हद तक नाउम्मीद कर देगा कि ‘किसी के लिए भी नहीं’ नजर आएगा.’

उनके अनुसार ‘संविधान पर अमल केवल संविधान के स्वरूप पर निर्भर नहीं करता. संविधान केवल विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे राज्य के अंगों का प्रावधान कर सकता है. लेकिन उन अंगों का संचालन लोगों पर तथा उनके द्वारा अपनी आकांक्षाओं तथा अपनी राजनीति की पूर्ति के लिए बनाए जाने वाले राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है.’

उन्होंने एक और विडंबना की ओर ध्यान दिलाया था: राज्य की प्रणाली को भले ही संविधान लागू कर एक झटके में ‘लोकतांत्रिक’ घोषित और स्वीकार कर लिया जाए, सामाजिक मानस को सच्चे अर्थों में लोकतांत्रिक बनाने के लिए बड़े सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन की दरकार होगी. ऐसे आंदोलन के बगैर कौन कह सकता है कि देश के लोगों तथा राजनीतिक दलों का भविष्य का व्यवहार कैसा होगा?

आज इस ‘कैसा’ का जवाब हमारे सामने है: लोकतंत्र की सहूलियतों का लाभ उठाकर परस्पर विरोधी ‘विचारधाराएं’ (पढ़िए: कुविचार) रखने वाले राजनीतिक दल बन गए हैं और जातियों, धर्मों व संप्रदायों के हमारे पुराने शत्रुओं से मिलकर लोकतंत्र को उसी के खात्मे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. बाबा साहेब के निकट इसका समाधान यह था कि सारे भारतवासी देश को अपने पंथ से ऊपर रखें. लेकिन उनकी यह चेतावनी भी अनसुनी रह गई है कि ‘यदि राजनीतिक दल अपने पंथ को देश से ऊपर रखेंगे तो हमारी स्वतंत्रता एक बार फिर खतरे में पड़ जाएगी और संभवतया हमेशा के लिए खत्म हो जाए.’

क्या ताज्जुब कि हमारे देखते ही देखते संविधान व कानून दोनों का अनुपालन कराने की शक्तियां ऐसी राजनीति के हाथ में चली गई हैं, जिसका खुद का लोकतंत्र में विश्वास बहुत संदिग्ध है और जो निर्मम, निष्करुण और अन्यायी होकर उसे अपने कुटिल मंसूबों और सुविधाओं के लिए इस्तेमाल कर रही है.

इस राजनीति ने जनता के एक हिस्से को प्रजा बनाने और उसे नागरिक समाज से भिड़ाकर उस जनदबाव को खत्म या न्यूनतम करने में सफलता पा ली है, लोकतंत्र की सफलता के लिए जिसकी जरूरत जताते हुए कभी डाॅ. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि ‘ज़िंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं.’

वे इंतजार करने लगें और कानून का अनुपालन कराने वाली एजेंसियों का उनकी ओर से किसी दबाव से सामना ही न हो, उल्टे वे वर्चस्ववादियों के निरंकुश शिकंजे में हों तो निस्संदेह, सामान्य जन के लिए न्याय एक सर्वथा परिकल्पित शब्द होकर रह जाता है. सवाल है कि संविधान निर्माताओं ने इससे बचाव के पर्याप्त उपाय क्यों नहीं किए?

वे आश्वस्त रहे होंगे कि संविधान की प्रस्तावना में वर्णित समानता की प्रतिष्ठा के बाद ऐसी स्थिति पैदा ही नहीं होगी. उन्हें कानून बनाने वाली विधायिका ही नहीं, कानून की व्याख्याकार व अनुपालक एजेंसियों के कर्तव्यनिर्वहन के लिए निर्धारित व्यवस्था के मुकम्मल होने का विश्वास भी रहा होगा. लेकिन क्या आज वह मुकम्मल सिद्ध हो पा रही है?

नहीं. इसीलिए, और तो और, संविधान की व्यवस्था के तहत नियुक्त कई जज भी अपने फैसलों व आदेशों में मनुस्मृति वगैरह को उद्धृत कर उनके हिसाब से निष्कर्ष निकालने लगे हैं. इसका परिणाम ‘देर भी और अंधेर भी’ के रूप में सामने आ रहा है. चूंकि राज्य की दूसरी एजेंसियों का हाल उनसे भी बुरा है, इसीलिए अंग्रेजों द्वारा 1861 में बनाए गए पुलिस एक्ट का यह पहला वाक्य तक अपना उद्देश्य नहीं प्राप्त कर सका है कि ‘पुलिस बल का गठन जनता के जान-माल की हिफाजत के लिए किया गया.’

इसीलिए अल्पसंख्यकों की माॅब लिंचिंग, आदिवासियों, दलितों-वंचितों व गरीबों को अपमानित करने के लिए उन पर पेशाब करने या पिलाने तक जाने और महिलाओं पर क्रूरतम यौन हमलों के मामलों में भी कानून करुणापूर्वक काम नहीं ही करता.

अंग्रेजी के ऑक्सफोर्ड शब्दकोश के अनुसार, लाॅ यानी कानून का अर्थ है सत्ता द्वारा आरोपित आचार-व्यवहार के नियम. व्याख्याकारों ने इसे थोड़ा और स्पष्ट करते हुए कहा है कि कानून वास्तव में नियमों की वह प्रणाली है, जिसे नागरिकों के व्यवहार को विनियमित करने के लिए सामाजिक अथवा सरकारी संस्थाओं के माध्यम से शांति बनाए रखने, अपराध घटाने और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बनाया व लागू किया जाता है. व्याख्याकार यह भी कहते हैं कि इन नियमों को बनाने और आरोपित करने में अधिकार बुद्धि से बड़ी भूमिका निभाता है.

ऐसे में सत्ता जनता के व्यापक हितों की फिक्र करने के बजाय अपने शुभचिंतक संकुचित प्रिविलेज्ड समुदाय के निहित स्वार्थों के प्रति समर्पित होगी तो उसके बनाए कानून भी जनता के प्रति निष्करुण ही होंगे. हां, पत्रकारों को किसी गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए- उनके प्रति भी. क्योंकि कानूनों का अनुपालन कराने वाली एजेंसियां कितने भी ढोंग रचें, मनमानी पर नियमों और बेदर्दी पर करुणा को तरजीह नहीं ही देंगी.

साफ कहें, तो हमारी सामूहिक चेतना को कम से कम तब तक तो बुरे दिन झेलने ही होंगे, जब तक वह वास्तव में सामूहिक होकर अपने विभिन्न हिस्सों के विरुद्ध राजदंड के प्रहारों के निहितार्थ समझकर उनके प्रतिकार में सक्षम नहीं हो जाती.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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