1982 में भारत के रजिस्ट्रार जनरल के कार्यालय ने मणिपुर के बहुसंख्यक मेईतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने से इनकार किया था और फिर 2001 में मणिपुर सरकार ने. हालांकि इस साल एसटी दर्जे की मांग की याचिका सुन रहे हाईकोर्ट को केंद्र और न ही मणिपुर सरकार ने यह जानकारी दी.
नई दिल्ली: मणिपुर में पांच महीने से अधिक समय से जारी जातीय संघर्ष की शुरुआत राज्य के बहुसंख्यक मेईतेई को अनुसूचित जनजाति (एसटी) दर्जा दिए जाने के विरोध में हुई रैलियों के दौरान हुई हिंसा के साथ हुई थी.
अब द हिंदू द्वारा प्राप्त दस्तावेज बताते हैं कि इस समुदाय को एसटी का दर्जा देने की अपील पिछले 40 वर्षों में दो बार खारिज की गई है.
सबसे पहले 1982 में भारत के रजिस्ट्रार जनरल (आरजीआई) के कार्यालय ने इस प्रस्ताव को जांचा-परखा और इसे खारिज कर दिया गया; फिर, 2001 में मणिपुर सरकार द्वारा इसे अस्वीकार किया गया.
अख़बार की रिपोर्ट बताती है कि केंद्र और मणिपुर सरकारों ने राज्य में चल रहे जातीय संघर्ष के दौरान इस जानकारी को सार्वजनिक नहीं किया और न ही मणिपुर हाईकोर्ट में मेईतेई समुदाय द्वारा उन्हें अनुसूचित जनजाति में शामिल करने को लेकर चल रहे केस के दौरान इन रिकॉर्ड को पेश ही किया गया.
रिपोर्ट के मुताबिक, मेईतेई समुदाय के लिए एसटी दर्जे पर विचार करने के मणिपुर हाईकोर्ट के आदेश के सार्वजनिक होने के कुछ ही दिनों बाद जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने पुराने दस्तावेज़ निकाले. हाईकोर्ट फैसले के इसी आदेश बाद राज्य में मेईतेई और कुकी-ज़ो समुदायों के बीच हिंसा देखी गई, जिसमें अब तक लगभग 180 लोगों की मौत हो चुकी है.
पिछली अपील
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के तहत द हिंदू द्वारा प्राप्त किए गए रिकॉर्ड से पता चलता है कि आरजीआई के कार्यालय ने 1982 में गृह मंत्रालय के अनुरोध पर मेईतेई समुदाय को एसटी सूची में शामिल करने पर गौर किया था. आरजीआई के कार्यालय ने यह देखते हुए कि ‘उपलब्ध जानकारी’ के आधार पर मेईतेई समुदाय में ‘आदिवासी विशेषताएं नहीं दिखती हैं’ कहा था कि वह इन्हें यह दर्जा देने के पक्ष में नहीं है.
इसका कहना था कि ऐतिहासिक रूप से इस शब्द (मेईतेई) का इस्तेमाल ‘मणिपुर घाटी में गैर-आदिवासी आबादी’ के बारे में बताने के लिए किया गया था.
इसके बाद, 2001 में तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्रालय ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की एससी/एसटी सूचियों को संशोधित करते समय मणिपुर सरकार से सिफारिश मांगी थी. जवाब में मणिपुर के जनजातीय विकास विभाग ने 3 जनवरी, 2001 को बताया था कि वह समुदाय की स्थिति पर आरजीआई की 1982 की राय से सहमत है.
मणिपुर के तत्कालीन मुख्यमंत्री डब्ल्यू. पामचा सिंह ने कहा था कि मेईतेई समुदाय ‘मणिपुर में प्रमुख समूह’ था और इसे एसटी सूची में शामिल करने की जरूरत नहीं है. इसमें कहा गया है कि मेईतेई लोग हिंदू थे और ‘हिंदू जातियों के वर्गीकरण के हिसाब से उन्हें क्षत्रिय जाति का माना जाता है, साथ ही यह भी जोड़ा गया था कि उन्हें पहले ही अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के रूप में सूचीबद्ध किया गया था.
गौरतलब है कि ये दस्तावेज़ कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश एमवी मुरलीधरन की एकल न्यायाधीश पीठ, जो इस साल की शुरुआत में मेईतेई समुदाय की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, के सामने पेश नहीं किए गए थे.
एसटी सूची में शामिल होने के मानक
किसी समुदाय को एसटी सूची में शामिल किया जाना चाहिए या नहीं यह निर्धारित करने के मानदंड आरजीआई द्वारा 1965 में तय किए गए थे और आज भी उनका पालन किया जाता है.
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के सत्ता में आने के तुरंत बाद 2014 में एक आंतरिक समिति की रिपोर्ट के आधार पर जनजातीय मामलों के मंत्रालय में इस मानदंड को बदलने का प्रस्ताव लाया गया था.
द हिंदू के अनुसार, 2022 में अधिकारियों ने कहा था कि दशकों पुराने मानदंडों को बदलने की कोई योजना नहीं है. हालांकि, आंतरिक समिति द्वारा की गई सिफारिशों में से एक यह थी कि केवल इस तथ्य के आधार पर एसटी सूची में शामिल करने के लिए किसी समुदाय की याचिका को इसलिए खारिज नहीं किया जाना चाहिए कि वे हिंदू धर्म के अनुयायी हैं.