अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश पवन सिंह राजावत ने निचली अदालत के आदेश को बरक़रार रखते हुए यह टिप्पणी की, जिसमें दिल्ली पुलिस को द वायर के कर्मचारियों से ज़ब्त किए गए इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को वापस करने के लिए कहा गया था. भाजपा के एक नेता द्वारा द वायर के ख़िलाफ़ शिकायत के बाद अक्टूबर 2022 में पुलिस ने इन उपकरणों को ज़ब्त किया था.
नई दिल्ली: पिछले साल द वायर के पत्रकारों से जब्त किए गए इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को वापस करने के निचली अदालत के निर्देश को दिल्ली पुलिस द्वारा दी गई चुनौती को खारिज करते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश पवन सिंह राजावत ने बीते बुधवार (18 अक्टूबर) को कहा कि निरंतर जब्ती प्रेस की स्वतंत्रता पर आघात करती है.
बीते सितंबर महीने में दिल्ली की तीस हजारी अदालत के मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट सिद्धार्थ मलिक ने फैसला दिया था कि पुलिस के पास इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को अपने पास रखने का कोई उचित आधार नहीं है, क्योंकि जांच अधिकारी के पास ये उपकरण बहुत लंबे समय से थे और अदालत को बताया गया था कि फॉरेंसिक साइंस लैब ने आगे की जांच के लिए पहले ही मिरर इमेज ले ली थी.
यह कहते हुए कि इन उपकरणों को पुलिस द्वारा अनिश्चितकाल तक हिरासत में नहीं रखा जा सकता, मजिस्ट्रेट ने कहा था कि पुलिस का तर्क है कि बाद की जांच के लिए उपकरणों की फिर से जरूरत हो सकती है, ‘बाद के चरण में कुछ नए तथ्य सामने आने की धारणा प्रकृति में अटकलबाजी है, जो हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है’.
अदालत में द वायर का प्रतिनिधित्व अश्वथ सीतारमन, प्रसन्ना एस. और अर्चित कृष्णा ने किया था. भारतीय जनता पार्टी के एक नेता द्वारा द वायर के खिलाफ शिकायत के बाद अक्टूबर 2022 में पुलिस ने तलाशी के बाद इन उपकरणों को जब्त कर लिया था.
मजिस्ट्रेट के आदेश के खिलाफ दिल्ली पुलिस ने अतिरिक्त सत्र अदालत में अपील की थी. दलीलें सुनने के बाद अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश पवन सिंह राजावत ने कहा कि प्रेस लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है और ‘अगर इसे स्वतंत्र रूप से काम करने और संचालित करने की अनुमति नहीं दी गई, तो यह हमारे लोकतंत्र की नींव को गंभीर चोट पहुंचाएगा’.
न्यायाधीश ने आगे कहा:
‘उत्तरदाताओं के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की लगातार जब्ती, न केवल उनके लिए अनुचित कठिनाई का कारण बन रही है, बल्कि यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(जी) के तहत गारंटीकृत पेशे, व्यवसाय, व्यापार की स्वतंत्रता के साथ-साथ अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है. जैसा कि स्वीकार किया गया है कि उत्तरदाता समाचार पोर्टल द वायर के लिए काम कर रहे हैं, जो समाचार और सूचना प्रसारित करने में लगा हुआ है और उनके काम के लिए इन इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उपयोग किया जा रहा था.’
उन्होंने कहा कि मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के आदेश ने न केवल द वायर के कर्मचारियों के हितों की रक्षा की है, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि वे उपकरणों को छेड़छाड़ से सुरक्षित रखने के लिए बाध्य हैं और अगर उन्हें उपकरणों के साथ कोई विसंगति दिखाई देती है, तो उन्हें तुरंत जांच अधिकारी को सूचित करना चाहिए.
न्यायाधीश ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 457 अदालत को जांच लंबित रहने तक संपत्ति की हिरासत का फैसला करने में सक्षम बनाती है और बसवा कोम द्यामंगौड़ा पाटिल (1977) मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए कहा कि पुलिस को अनिश्चितकाल तक संपत्ति को अपने कब्जे नहीं रखना चाहिए. उसी फैसले में कहा गया था कि अदालत को यह निर्धारित करने की आवश्यकता है कि क्या पुलिस द्वारा जब्त की गई संपत्ति भविष्य के सुनवाई के लिए आवश्यक है.
न्यायाधीश राजावत ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 451 अदालत को मुकदमे के लंबित रहने तक संपत्ति की उचित हिरासत के लिए आदेश देने का व्यापक विवेक देती है.
आदेश में कहा गया, ‘इस प्रक्रिया में न्यायालय को संयोगवश इस बात पर विचार करके निर्देशित किया जा सकता है कि प्रथमदृष्टया मामले की संपत्ति (उपकरण) पर कब्जा करने का हकदार कौन व्यक्ति है और उसके हितों की रक्षा की दृष्टि से उसे कब्जा सौंप दिया जाए, लेकिन किसी भी प्रतिद्वंद्वी दावेदार को मामले की संपत्ति या अपराध आदि में इस्तेमाल की गई संपत्ति की हिरासत सौंपते समय अदालत के लिए यह एकमात्र विचार नहीं हो सकता है.’
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