लगभग चालीस साल पहले अयोध्या में रहने वाले ‘गुमनामी बाबा’ को सुभाष चंद्र बोस बताए जाने की कहानी एक स्थानीय अख़बार की सनसनीखेज़ सुर्ख़ी से शुरू हुई थी. इसके बाद तो नेताजी के प्रति उमड़ी भावनाओं के अतिरेक ने लोगों को बहाकर वहां ले जा छोड़ा, जहां तर्कों की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती.
अयोध्या का अपने निकटवर्ती इतिहास में अलग-अलग कारणों से अलग-अलग तरह की सनसनियों से वास्ता पड़ता रहा है, लेकिन कोई अचानक उसके इस इतिहास की सबसे सनसनीखेज तारीख पूछ ले तो कई बार, और तो और, अयोध्या के निवासी और उसे बहुत नजदीक से जानने का दावा करने वाले भी अचकचाकर रह जाते हैं. उनमें कोई अवध के नवाब शुजाउद्दौला द्वारा फैजाबाद को (जो अभी हाल के वर्षों तक अयोध्या का जुड़वां शहर हुआ करता था) सूबे की राजधानी बनाने की तारीख बताने लगता है, कोई इसके कुछ वर्षों बाद उनके बेटेे आसफउद्दौला द्वारा अचानक उसे लखनऊ स्थानांतरित कर देने की, तो कोई 1857 में लड़े गए देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम के शोलों के यहां भड़कने, कोई कुछ लोगों द्वारा बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखने तो कोई और उसे ढहाने अथवा ‘वहीं’ राम मंदिर के शिलान्यास, भूमिपूजन या निर्माण से जुड़ी कोई तारीख.
लेकिन जानकारों के अनुसार सही उत्तर है: 28 अक्टूूबर, 1985. दरअसल, यह वह तारीख है, जब फैजाबाद से प्रकाशित दैनिक ‘नये लोग’ ने (जो अब प्रकाशित नहीं होता) शहर के सबसे पुराने दैनिक ‘जनमोर्चा’ पर बढ़त बनाने की स्पर्धा में पहले पृष्ठ पर यह सनसनीखेज बैनर हेडलाइन छापकर तहलका मचा दिया था: ‘फैजाबाद के अज्ञातवास कर रहे नेता सुभाषचंद्र बोस नहीं रहे?’
फिर तो नेताजी के प्रति उमड़ी भावनाओं के अतिरेक ने लोगों को बहाकर बरबस वहां ले जा पटका था, जहां तर्कों की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती.
उक्त हेडलाइन का आधार था 16 सितंबर, 1985 की रात फैजाबाद के सिविल लाइंस मुहल्ले में स्थित ‘रामभवन’ नाम की इमारत में रह रहे ‘गुमनामी’ नामक खुद को ‘गुरुदेव’, ‘स्वामी जी’ व ‘भगवन जी’ वगैरह कहलाने वाले बेहद रहस्यमय बाबा का देहांत. इन बाबा के निवास से नेताजी से जुड़ी ढेर सारी सामग्रियां मिली थीं, जिनकी बिना पर दैनिक का दावा था कि वे नेताजी सुभाषचंद्र बोस थे और पिछले बारह वर्षों से अयोध्या-फैजाबाद में विभिन्न स्थानों पर छिप-छिपाकर रहते आ रहे थे.
यों, गुमनामी बाबा इतने एकांतजीवी थे कि जो लोग उनके नेता जी होने का दावा कर रहे थे, उनमें से भी ज्यादातर उन्हें अपनी आंखों से देखने, उनसे आमने-सामने भेंट अथवा बातचीत का दावा नहीं कर पा रहे थे और यह पूछने पर झुंझला जाते थे कि ऐसे में बाबा के नेताजी होने के दावे को असंदिग्ध क्योंकर माना जा सकता है?
बहरहाल, अयोध्या में बाबा पहले-पहल 1972-73 के बीच कभी अयोध्या के समीप स्थित दर्शननगर बाजार के ‘शंकर निवास’ के निवासी के तौर पर दिखे थे. वहां उन्हें पड़ोसी बस्ती जिले की बांसी रियासत के एक पूर्व नरेश का संरक्षण प्राप्त था, जिससे उस क्षेत्र में उनकी भरपूर ‘हनक’ थी. इसके बावजूद उनकी रहस्यमय गतिविधियों के कारण ‘शंकर निवास’ के पड़ोसियों से उनकी नहीं बनी और उन्हें अयोध्या की ऐतिहासिक हनुमानगढ़ी के पास स्थित एक छोटे-से घर में चले जाना पड़ा.
वहां कई तरह की असुविधाओं के मद्देनजर उनके सेवकों ने जल्दी ही ब्रह्मकुंड गुरुद्वारे के पास अपेक्षाकृत बड़ा मकान किराये पर लिया तो वहां किराये को लेकर विवाद हो गया, जिसके बाद मकान के मालिक ने उनको दो-दो बार फैजाबाद के सिविल जज की अदालत में घसीटा. उनकी ‘संदिग्ध गतिविधियों’ की जांच की अर्जी पर फैजाबाद के तत्कालीन पुलिस प्रमुख ने एक सीआईडी इंस्पेक्टर को उनकी पहचान की जिम्मेदारी सौंपी तो उन्होंने अपने रसूख का इस्तेमाल करके पहले कोतवाल की मार्फत मकान मालिक को धमकियां दिलवाईं, फिर अचानक उसका मकान खाली करके अयोध्या की सब्जीमंडी के बीचोबीच स्थित लखनउवा मंदिर चले गए.
लेकिन वहां भी विवादों से उनका पीछा नहीं ही छूटा. कुछ ही दिनों बाद एक पत्रकार ने पुलिस में शिकायत कर दी कि उनकी डरावनी और रहस्यभरी गतिविधियां उसकी सुरक्षा के लिए खतरा बन गई हैं. लेकिन बाबा के रसूख की बलिहारी कि शुरुआती जांच के बाद पुलिस ने इस मामले को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया. इस बात की भी परवाह नहीं की कि दूसरा पक्ष पत्रकार है.
बाबा के साथ शुरू से ही उनकी एक सेविका हुआ करती थीं, जिनका नाम यों तो सरस्वती देवी शुक्ला था, लेकिन बाबा उन्हें जगदंबे कहकर बुलाते थे. बाबा अपने अन्य सारे सेवकों को निश्चित अंतराल पर बदलते रहते थे. चूंकि अयोध्या में बाबाओं की बहुतायत है, इसलिए गुमनामी बाबा की अजीबोगरीब दिनचर्या के बावजूद पड़ोसियों को छोड़ दूसरे लोग उनके क्रियाकलापों में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते थे. इस तरह के सवालों में भी नहीं कि क्यों बाबा जानबूझकर अपने चारों ओर तिलिस्मी आवरण बनाए रखते हैं और किसी से मिलना-जुलना तो क्या आमने-सामने बात करना भी गवारा नहीं करते?
निधन के दो तीन साल पहले बाबा लखनउवा मंदिर छोड़कर ‘रामभवन’ में रहनेे लगे थे और उनके अंतिम समय में सरस्वती देवी शुक्ला उर्फ जगदंबे के अलावा पुरुष परिचारक कृष्णगोपाल श्रीवास्तव भी उनके पास थे. उनके देहांत के तुरंत बाद ही उनके सेवक उनकी विरासत पर कब्जे को लेकर झगड़ने लगे थे और सबने उनके निवास पर अपने अलग-अलग ताले बंद कर दिए थे.
बाबा के नजदीकियों का दावा था कि उनके जीवित रहते हर 23 जनवरी को कोलकाता से कुछ खास लोग नेताजी का जन्मदिन मनाने उनके पास आतेे थे. लेकिन उनके देहांत के बाद बार-बार सूचनाएं भेजे जाने पर भी कोई ‘खास’ उनके अंतिम दर्शन करने या अंतिम संस्कार में हिस्सा लेने नहीं आया. उनके सेवकों ने दो दिन तक अधीर होकर उनकी प्रतीक्षा की, फिर निराश होकर गुप्तारघाट पर बाबा की गुपचुप अंत्येष्टि कर दी गई.
कुछ दावों के मुताबिक अंतिम संस्कार से पहले उनके ऊपर कोई रसायन डालकर उनका चेहरा विकृत किया कर दिया गया था और कोई इसकी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं था. तब तक किसी भी स्थानीय अखबार ने उनकी मृत्यु और अंत्येष्टि को इतना भी महत्व नहीं दिया था कि उसकी कोई एक कॉलम की खबर ही छाप देता. कारण यह कि तब तक वे नेता जी नहीं बने थे.
उन्हें नेता जी बनाने की शुरुआत तो वास्तव में उनके देहांत के महीनों बाद तक हुई, जब नये लोग की सनसनीखेज बैनर हेडलाइन के बनाए इमोशनल माहौल के बीच संभ्रांत कहे जाने वाले लोगों के एक समूह द्वारा सायास इसका प्रचार किया जाने लगा. जिस ‘रामभवन’ में बाबा किरायेदार थे, उसके स्वत्वाधिकारी, जो फैजाबाद के बहुचर्चित भूतपूर्व सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह के ऊंची हैसियत वाले वंशज हैं, इस प्रचार में सबसे आगे थे.
प्रसंगवश, इन्हीं गुरुदत्त सिंह, जिनकी सेवानिवृत्ति में तब कुछ ही दिन बाकी थे, ने देश के विभाजन के बाद 22-23 दिसंबर, 1949 को फैजाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी केकेके नैयर के साथ मिलकर अयोध्या की बाबरी मस्जिद में भगवान राम को ‘प्रकट’ कराने में ‘बड़ी’ भूमिका निभाई थी.
बहरहाल, यह प्रचार इसलिए भी जोर पकड़ गया था कि गुमनामी बाबा की हस्तलिपि, पहली नजर में, नेता जी की हस्तलिपि जैसी ही लगती थी. तिस पर उनके निवास से मिला नेता जी से संबंधित सामग्री के हैरतअंगेज जखीरे में ये वस्तुएं शामिल थीं: नेताजी जैसे गोल शीशे वाले सुनहरे फ्रेम के मेड इन जर्मनी चश्मे, रोलेक्स जेब घड़ी, फाउंटेनपेन, दूरबीन, 555 ब्रांड की सिगरेटें, विदेशी शराब, आजाद हिंद फौज की वर्दी, उसके गुप्तचर विभाग के प्रमुख पवित्र मोहन राय के बधाई संदेश, नेताजी के माता-पिता व परिजनों, उनके कोलकाता के जन्मोत्सवों और लीला राय की मौत पर हुई शोकसभाओं की दुर्लभ निजी तस्वीरें, जर्मन, जापानी व अंग्रेजी साहित्य की अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें, 1974 में कोलकाता के दैनिक ‘आनंदबाजार पत्रिका’ में 24 किस्तों में प्रकाशित रिपोर्ट ‘ताइहोकू विमान दुर्घटना एक बनी हुई कहानी’ की कतरनें, भगवन जी को संबोधित अनेक पत्र व तार, नेता जी के लापता होने की गुत्थी सुलझाने के लिए गठित शाहनवाज व खोसला आयोगों की रपटें, हाथ से बने नक्शे, जिनमें उस स्थल को इंगित किया गया था, जहां कथित विमान दुर्घटना में नेता जी का निधन हुआ. इनके अतिरिक्त नेताजी के बारे में देश-विदेश के समाचार पत्रों छपी अनेकानेक खबरों व रिपोेर्टों की कतरनें.
प्रचारित था कि बाबा जिसे भी देते हैं, नए करारे नोट ही देते हैं और अपने नजदीकी लोगों से कहा करते हैं कि ‘इस देश के रजिस्टर से मेरा नाम काट दिया गया है.’ लेकिन उनको नेताजी बताने वालों को तब बहुत जोर का झटका लगा, जब नेताजी की बनाई आजाद हिंद फौज के गुप्तचर विभाग के प्रमुख रह चुके पवित्रमोहन राय ने उन्हें नेताजी मानने से साफ इनकार कर दिया.
‘जनमोर्चा’ के संपादक शीतला सिंह ने कोलकाता जाकर उनसे गुमनामी बाबा के नेताजी होने या न होने के बारे में बातचीत की, तो उन्होंने खीझकर उनसे प्रतिप्रश्न कर डाला, ‘क्या आपको लगता है कि नेताजी का फैजाबाद में अज्ञातवास में निधन हो जाता और मैं उनके अंतिम दर्शन या अंतिम संस्कार के लिए वहां जाने के बजाय कोलकाता में बैठा हंस-हंसकर आपसे उनकी बाबत बात कर रहा होता?’
अलबत्ता, उन्होंने स्वीकार किया कि वे नेताजी के जीवित होने की उम्मीद लिए अनेक जगहों पर उनको तलाशने जाते रहे हैं. इस क्रम में वे गुमनामी बाबा के पास भी गए थे, लेकिन बाबा उन्हें पल भर के लिए भी नेताजी नहीं लगे. यह पूछे जाने पर कि बाबा के पास नेताजी से जुड़ी अनेक वस्तुओं का जखीरा कहां से आया? राय ने कहा कि बहुत संभव है कि बाबा ऐसी चीजों के संग्रह के शौकीन रहे हों, लेकिन ‘वे और जो कोई भी हों, नेता जी तो कतई नहीं हैं.’
वैसे भी आम लोगों को नेता जी की अनेक वस्तुओं के बाबा के पास से प्राप्त होने की जानकारी उनके देहांत के 45 दिन बाद मिली थी.
लेकिन इस सवाल का स्पष्ट जवाब किसी के पास अभी भी नहीं है कि उन्हें नेताजी साबित करने की कोशिशों के पीछे क्या मंशा थी? जो भी रही हो, 1999 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित गठित मुखर्जी जांच आयोग की रिपोर्ट से उसको बहुत जोर का झटका लगा क्योंकि आयोग ने गुमनामी बाबा को नेताजी मानने से इनकार कर दिया.