‘महात्मा’ हरगोविंद: मुक्तिकामी लेखन और जागरूक करने वाली पत्रकारिता के पैरोकार

पुण्यतिथि विशेष: जनता को जागरूक करने वाली पत्रकारिता के लक्ष्य को लेकर 'महात्मा' हरगोविंद ने 1958 में सहकारिता का सफल प्रयोग करते हुए ‘जनमोर्चा’ का प्रकाशन शुरू किया. पांच लोगों के पंद्रह-पंद्रह रुपयों के योगदान से शुरू हुआ यह अख़बार आज भी व्यक्तिगत मालिकाने के बिना चल रहा है.

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'महात्मा' हरगोविंद और जनमोर्चा अख़बार. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

पुण्यतिथि विशेष: जनता को जागरूक करने वाली पत्रकारिता के लक्ष्य को लेकर ‘महात्मा’ हरगोविंद ने 1958 में सहकारिता का सफल प्रयोग करते हुए ‘जनमोर्चा’ का प्रकाशन शुरू किया. पांच लोगों के पंद्रह-पंद्रह रुपयों के योगदान से शुरू हुआ यह अख़बार आज भी व्यक्तिगत मालिकाने के बिना चल रहा है.

‘महात्मा’ हरगोविंद और जनमोर्चा अख़बार. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

कहते हैं कि हर नगर में ‘सभ्य व सुसंस्कृत’ नागरिकों के बीच कोई न कोई बावला होता है-दूसरे शब्दों में ‘गंवार’, जिसे ‘सभ्यता’ के गुमानी सिरफिरा या पागल समझते हैं. लेकिन एक दुर्भाग्य है कि इन ‘सभ्यों’, ‘सुसंस्कृतों’ और ‘गुमानियों’ का कभी पीछा नहीं छोड़ता: यह कि उनके नगर की चेतना के निर्माण व विकास दोनों में उस बावले की छाप उनसे कहीं ज्यादा गहरी होती है.

अयोध्या के ‘सभ्य’, ‘सुसंस्कृत’ व ‘गुमानी’ नागरिक भी दुर्भाग्य के इस नियम का अपवाद नहीं ही हैं. उनके बीच भी कभी ऐसे ही एक बावले हुआ करते थे- ‘महात्मा’ हरगोविंद, नगर की चेतना पर जिनके व्यक्तित्व व कृतित्व की छाप उनके दुनिया को अलविदा कहने के लगभग दो दशकों बाद भी धुंधली नहीं पड़ी है. यह और बात है कि उन्हें इस कदर भुला दिया गया है कि खुद को उनका वारिस कहने वाले भी अब उन्हें बेहद अनमने भाव से याद करते हैं.

गौरतलब है कि स्मृतिशेष हरगोविंद ‘महात्मा’ शब्द के आजकल के प्रचलित अर्थों में महात्मा नहीं थे. कहते थे कि उनके द्वारा संस्थापित दैनिक ‘जनमोर्चा’ के कुछ व्यक्तिपूजक साथियों व सहयोगियों ने उन्हें अपने इस सोच के तहत ‘महात्मा’ बना दिया है कि इतने ऊंचे आसन पर बैठा दें कि वे अनुकरण के बजाय पूजा की वस्तु बनकर रह जाएं. हरगोविंद के ही शब्दों में ‘ये लोग यह समझने को भी तैयार नहीं हैं कि उनसे अपने लिए महात्मा का संबोधन सुनकर मुझे प्रसन्नता नहीं बल्कि कोफ्त होती है.’

इसे विडंबना ही कहेंगे कि इस कोफ्त के बावजूद हरगोविंद के आखिरी दिनों तक ‘महात्मा’ शब्द उनकी पहचान का अभिन्न अंग बन गया था. फिर भी अपनी नजर में वे ‘विश्वव्यापी सामंती व साम्राज्यवादी व्यवस्था के प्रबल अंतरराष्ट्रीय प्रतिरोध के पैरोकार मार्क्सवादी’ ही थे. इस अर्थ में विचारक भी कि उन्होंने इस प्रतिरोध के पोषण के लिए मुक्तिकामना से ओतप्रोत कई चिंतनपरक पुस्तकें लिखीं. इन पुस्तकों में अभिव्यक्त उनका मार्क्सवाद किसी पार्टी लाइन का मोहताज या किसी लकीर का फकीर नहीं था और वे मानते थे कि माओ-त्से-तुंग व महात्मा गांधी दोनों के लक्ष्य समान थे. उन्हें पूरे करने के लिए अलग-अलग साधन तो उन दोनों ने अलग-अलग परिस्थितियों के दबाव में इस्तेमाल किए.

इसलिए कई लोग उन्हें मार्क्सवाद और गांधीवाद का समन्वयक भी कहते थे.

रहन-सहन और आचार-व्यवहार में वे पूरी तरह गांधीवादी थे- पद, प्रतिष्ठा, लोभ-मोह व लालच से सर्वथा निर्लिप्त और पाखंडखंडन, रूढ़िभंजन व समभावमंडन के प्रयत्नों व अभियानों को समर्पित. जैसा कि पहले बता आए हैं, इससे अभिभूत ‘व्यक्तिपूजकों’ ने उन्हें ‘महात्मा’ कहना शुरू किया तो वे खुश होने के बजाय खीझते, उनकी सदाशयता पर सवाल उठाते और कहा करते थे: किसी के कहे पर अमल करने या उसकी राह पर चलने से बचने का सबसे अच्छा तरीका उसे महात्मा बना देना ही है. क्योंकि इससे यह सहूलियत हासिल हो जाती है कि उसकी सेवाओं, त्यागों व बलिदानों के गुन गाते हुए खुद को उनकी कड़ी में पिरोने से ‘बुद्धिमत्तापूर्वक’ ‘बचा’ लिया जाए. इस आत्मरक्षात्मक स्थापना के साथ कि हर व्यक्ति महात्मा नहीं हो सकता.

यह बताते हुए वे बहुत खुश होते थे कि उनका जन्म 1917 के महाक्रांति वर्ष में हुआ. होश संभालते ही उन्होंने अपने जीवन के तीन लक्ष्य तय कर लिए थे: सक्रिय स्वतंत्रता संघर्ष, मुक्तिकामी लेखन और जनता को जागरूक करने वाली पत्रकारिता. इन लक्ष्यों के प्रति उनके समर्पण की इंतिहा यह थी कि इनकी प्राप्ति में बाधाएं आने की आशंका से उन्होंने आजीवन विवाह नहीं किया.

1935 में पत्रकारिता शुरू करने के अगले ही साल 1936 में उन्होंने ‘किसान’ नाम का साप्ताहिक निकाला. 1945 से 1948 तक लखनऊ के दैनिक ‘अधिकार’ के संपादक मंडल में रहे तो 1950 में साप्ताहिक ‘अधिकार’ के संपादक बने. 1951 से 1952 तक वे लखनऊ के ही ‘नया सवेरा’ के संपादक मंडल में जबकि 1952 से 1957 तक दिल्ली और लखनऊ में ‘जनयुग’ के संपादक मंडल में रहे. ‘कम्यून’ व दैनिक ‘संसार’ के अतिरिक्त ‘नया पथ’ से भी उनका जुड़ाव रहा.

इतने पापड़ बेलने के बावजूद उन्होंने देखा कि जनता को जागरूक करने वाली पत्रकारिता का लक्ष्य ठीक से नहीं सध पा रहा तो फैजाबाद (अब अयोध्या) को कर्मभूमि बनाकर प्रतिरोधी चेतना का ‘जनमोर्चा’ नामक पत्र निकालना शुरू किया और पीर, बावर्ची, भिश्ती व खर सब बनकर कुछ ही वर्षों में उसे साप्ताहिक से दैनिक बना दिया. इतना ही नहीं, लखनऊ से भी उसके दैनिक व साप्ताहिक संस्करणों का प्रकाशन आरंभ कराया.

इस सिलसिले में सर्वाधिक उल्लेखनीय यह कि 1958 में पांच लोगों के पंद्रह-पंद्रह रुपयों के योगदान यानी कुल पचहत्तर रुपये की पूंजी से किसी भी तरह के सरकारी अनुदान या अनुग्रह से परहेज रखते हुए उन्होंने ‘जनमोर्चा’ का प्रकाशन शुरू किया तो उसमें व्यक्तिगत मालिकाने की कोई गुंजाइश नहीं रखी- पत्रकारों, कर्मचारियों और शुभचिंतकों की सहकारिता का सफल प्रयोग किया.

1980 में उन्होंने ‘जनमोर्चा से स्वैच्छिक अवकाश ले लिया और अपनी सारी ऊर्जा मुक्तिकामी लेखन में झोंक दी. फिर तो उन्होंने विभिन्न विषयों पर छोटी-बड़ी कुल मिलाकर दो दर्जन किताबें लिखी.

उनकी इन किताबों के नाम हैं: 1. उठो किसानों, 2. विप्लवामि युगे-युगे, 3. गिरते-उठते बढ़े चलो, 4. माओ और उनके बाद, 5. एक आदमी एक पेशा, 6. भारतीय समाज का विकास, 7. राम और रामायण: एक समीक्षा, 8. किस राम का राज्य, 9. धर्म और राजनीति, 10.ब्राह्मण कौन, 11. मानव की विकास यात्रा, 12. भारत की हिंदू मुस्लिम राजनीति, 13. दुश्मन कौन, 14. व्यक्तिवाद और समाजवाद, 15. अयोध्या की मंदिर-मस्जिद समस्या, 16. कश्मीर और भारत-पाक संबंध, 17. उपनिषदों की सामाजिक व्याख्या, 18. भारतीय चिंतन का विज्ञान, 19. लोकतंत्र कैसे बचायें, 20 श्रीकृष्ण और भगवद्गीता, 21. नई क्रांति की नई दिशा और 22. ज्ञायत्री आदि.

इन सभी किताबों पर उन्होंने अपने समाज का सर्वाधिकार माना और किसी का भी अर्थाेपार्जन के लिए उपयोग नहीं किया. कई पर तो यह टिप्पणी भी लिखी कि उनका प्रकाशन उन्हें मिल रही स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पेंशन के धन से किया गया है, इसलिए वे समाज की संपत्ति हैं.

उनके इससे पहले के जीवन पर जाएं, तो 1937 आते-आते वे यूथ लीग और कांग्रेस में सक्रिय हो गए थे. इससे पहले उन्होंने राजनीति की जो पहली किताब पढ़ी, उसका नाम था हिस्ट्री ऑफ कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक). 1939 में वे कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए और 1966 तक सक्रिय रहे. 1957 में वे फैजाबाद जिले में अमसिन विधानसभा क्षेत्र से उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव लड़े, जबकि 1977 से 1979 तक उत्तर प्रदेश किसान संघर्ष समिति के संयोजक और 1980 में उत्तर प्रदेश किसान संग्राम समिति के अध्यक्ष रहे.

कांग्रेस में सक्रियता के दौरान 1941 में युद्धविरोधी सत्याग्रह करके जेल गए तो 1942 से 1945 तक ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भागीदारी करके जेल काटी. 1948 में सिंगापुर की यात्रा के दौरान 14 जून को वहां इमरजेंसी लागू होने पर गिरफ्तार कर लिए गए. वहां से उन्हें मद्रास की वैल्लूर जेल भेजा गया, फिर लखनऊ और अंत में फैजाबाद. 1949 में उन्होंने मद्रास प्रेसीडेंसी से दो वर्ष के निष्कासन की सजा भी भोगी.

1963 में ‘जनमोर्चा’ में छपे अपने कथित अमेरिका विरोधी और चीन से युद्ध के प्रयत्नों में बाधक अग्रलेख को लेकर उन्होंने भारत सुरक्षा कानून में नजरबंदी झेली तो 1966 में उत्तर प्रदेश के बहुचर्चित उतरौला कांड में सत्याग्रह करके जेल गए. 1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश पर इमरजेंसी थोपी तो भी उन्हें आंतरिक सुरक्षा अधिनियम में जेल जाना पड़ा.

वर्ष 2005 में तीन नवंबर को उन्होंने पूरी तरह निःस्व होकर अंतिम सांस ली तो इच्छा जता गए थे कि उनका अंतिम संस्कार किसी विद्युत शवदाह गृह में किया जाए. लेकिन उनकी यह इच्छा लखनऊ की तत्कालीन विद्युत दुर्व्यवस्था की भेंट हो गई. इससे पहले उन्होंने फैजाबाद शहर का अपना सब-कुछ जनमोर्चा को और उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग में त्रियुगीनारायण में स्थित पत्रकार आश्रम एक शिक्षा संस्था को दे दिया था.

तत्कालीन फैजाबाद जिले में पैतृक गांव संडौली में स्थित बीस एकड़ कृषि भूमि भी बिना कुछ लिए उन 11 किसानों के नाम कर दी थी, जो उसे जोतते-बोते आ रहे थे. अपने अंतिम दिनों में उन्होंने गैर-बराबरी (जिसे वे देश व दुनिया की सबसे बड़ी समस्या मानते थे) के खात्मे के लिए 25 सूत्री ‘समाजवाद का कार्यक्रम’ भी बनाया था.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और लगभग दो दशक तक ‘जनमोर्चा’ में काम कर चुके हैं.)

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