क्या प्रधानमंत्री मोदी यह बता सकते हैं कि ‘सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, जो 2028 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह’ पर है, उसे 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज क्यों बांटना पड़ रहा है?
जैसे जैसे चुनावी राजनीति दिन पर दिन पैनी हो रही है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तेजी से विरोधाभासों में फंसते जा रहे हैं.
बीते दिनों छत्तीसगढ़ में एक चुनावी भाषण में मोदी ने भव्य घोषणा की कि 80 करोड़ गरीब भारतीयों को मुफ्त अनाज बांटने की योजना, जो कोविड महामारी के प्रभाव को कम करने के लिए शुरू की गई थी, को अगले पांच वर्षों के लिए बढ़ाया जाएगा. अपनी आदत के अनुसार प्रधानमंत्री ने दावा किया कि यह ‘भारत के लोगों को मोदी की गारंटी’ है.
एक और गारंटी है कि मोदी हाल ही में अपने भाषणों में जोर-शोर से कहते रहे हैं- कि प्रधानमंत्री के रूप में उनके तीसरे कार्यकाल के दौरान भारत तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा. जनता के नाम दिए गए अपने सभी संदेशों में मोदी अपने तीसरे कार्यकाल के बारे में ऐसे बात करते हैं जैसे कि यह बात ऊपरवाले ने तय कर दी है!
अब, यहां राजनीतिक अर्थव्यवस्था विरोधाभास है.
क्या पीएम मोदी यह बता सकते हैं कि सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, जो 2028 तक तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है, उसे 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज क्यों बांटना चाहिए? क्या अगले पांच सालों तक मुफ्त राशन इसलिए उपलब्ध कराया जाएगा क्योंकि भारत तेजी से समृद्ध हो रहा है और अमृत काल में प्रवेश कर रहा है?
दूसरी तरफ देखें, अगर भारत तेजी से आगे बढ़ रहा है तो वैश्विक भूख सूचकांक में यह और नीचे क्यों गिर रहा है? 2023 ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत चार पायदान फिसलकर 125 देशों में से 111वें स्थान पर पहुंच गया. मोदी सरकार हंगर इंडेक्स रिपोर्ट की आलोचना करती है, लेकिन प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेवाई) के तहत मुफ्त खाद्यान्न योजना को अगले पांच वर्षों के लिए बढ़ाकर इसका अप्रत्यक्ष रूप से इसका समर्थन कर रही है.
दरअसल, ये ऐसे गंभीर विरोधाभास हैं जो पिछले करीब 10 वर्षों से पीएम मोदी के नेतृत्व में राजनीतिक अर्थव्यवस्था की विशेषता बने हुए हैं. जमीनी स्तर पर कुछ वास्तविक नतीजे दिखाने के लिहाज़ से दस साल का समय बहुत लंबा है, चाहे वह विकास हो, रोजगार हो, बचत दर, निजी निवेश, बढ़ा हुआ विदेशी निवेश या निर्यात आदि हो. इन सभी मामलों पर उपलब्ध डेटा खराब प्रदर्शन ही दर्शाता है. लेकिन इससे प्रधानमंत्री और उनकी पीआर मशीनरी को भारत के विश्व अर्थव्यवस्था में सबसे अव्वल होने जैसे आश्चर्यजनक दावे करने पर कोई फर्क नहीं पड़ता है. चुनावी मौसम में इस नैरेटिव को सोशल मीडिया समेत कई मीडिया चैनलों के माध्यम से प्रचारित किया जा रहा है.
लेकिन समय-समय पर विरोधाभास सामने आते रहते हैं, जैसे कि ‘मोदी गारंटी’ के रूप में मुफ्त अनाज को अगले पांच वर्षों के लिए बढ़ाने का ही मामला देख लें.
सत्ता में आने पर मोदी ने एक और योजना को सिरे से खारिज कर दिया, वह थी मनरेगा यानी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, जिसे उन्होंने वास्तविक आर्थिक विकास, रोजगार और आय पैदा करने में कांग्रेस की विफलता का स्मारक बताया. आज की तारीख में मोदी और उनकी सरकार की एक बड़ी विडंबना यह है कि ग्रामीण रोजगार गारंटी बजट का 93% हिस्सा वित्तीय वर्ष के पहले छह महीनों में ही खर्च हो गया है. चूंकि यह एक मांग से संचालित होने वाली योजना है, इसलिए खर्च संभवतः 60,000 करोड़ रुपये के बजटीय आवंटन से कहीं अधिक होगा. क्या यह भाजपा के 10 साल के शासन के बाद मोदीनॉमिक्स का असली सबूत है?
अपने कार्यकाल के लगभग दस सालों में मोदी उच्च जीडीपी वृद्धि की गारंटी नहीं दे सके – यह पिछले नौ वर्षों से लगभग 5.7% ही बनी हुई है. वह सालाना 2 करोड़ नौकरियां देने में बुरी तरह विफल रहे, जिसका उन्होंने 2014 में वादा किया था. वह किसानों की आय को दोगुना करने में असफल रहे है, जो तब स्पष्ट होता है जब आप 10 वर्षों में एमएसपी बढ़ोतरी के साथ कृषि इनपुट की लागत में वृद्धि की तुलना करते हैं.
इसलिए वे अब अगले पांच साल तक मुफ्त अनाज की गारंटी दे रहे हैं.
मोदी सरकार के आर्थिक प्रदर्शन या इसकी कमी का सबसे विनाशकारी प्रमाण पिछले महीने सांख्यिकी विभाग द्वारा जारी जुलाई 2022 से जुलाई 2023 के लिए आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे) में सामने आया. सर्वे से पता चलता है कि स्व-रोजगार के आंकड़ों में भारी वृद्धि हुई है, जो 2022-23 में कुल एम्लॉयड (काम में लगे लोग) का 58% है.
अर्थव्यवस्था में कुल एम्प्लॉयड लोगों का आंकड़ा लगभग 500 मिलियन से अधिक है. 2017-18 में स्व-रोज़गार श्रेणी, मुख्यतः ग्रामीण भारत में छोटे विक्रेता और व्यक्तिगत सर्विस प्रोवाइडर (तरह-तरह की सेवाएं देने वाले लोग) कुल एम्लॉयड का 52% थे.
स्व-रोज़गार में बड़ी वृद्धि गैर-मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में निम्न गुणवत्ता वाले रोज़गार में बढ़ोतरी का संकेत देती है. यह स्पष्ट है क्योंकि स्व-रोज़गार में से एक तिहाई अवैतनिक श्रमिक हैं जो बिना किसी वेतन के छोटे परिवार द्वारा चलाई जाने वाली इकाइयों में शामिल होते हैं. इसलिए स्व-रोज़गार का अनुपात और उसमें बिना वेतन के काम करने वालों का अनुपात पिछले 5 वर्षों में नाटकीय रूप से बढ़ गया है, खासकर नोटबंदी और महामारी के बाद.
अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा के अनुसार, स्व-रोज़गार श्रेणी में अवैतनिक श्रमिकों की संख्या अवैतनिक श्रमिकों की संख्या 2017-18 में 4 करोड़ से बढ़कर 2022-23 में 9.5 करोड़ हो गई है.
उनका कहना है कि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) अवैतनिक श्रमिकों को ‘एम्प्लॉयड’ यानी कार्यरत व्यक्ति के तौर पर परिभाषित नहीं करता और 92 देशों में इस प्रणाली का पालन किया जाता है. भारत में अवैतनिक श्रमिक स्व-रोज़गार श्रेणी का लगभग एक-तिहाई हैं.
यह संभवतः अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ी संरचनात्मक कमजोरी है क्योंकि श्रम बल सर्वे से यह भी पता चलता है कि 2017-18 और 2022-23 के बीच वास्तविक रूप से औसत नियमित मासिक वेतन में 20% से अधिक की गिरावट आई है. स्व-रोज़गार और कैज़ुअल (अस्थायी) श्रेणियों के लिए भी असल वेतन में गिरावट दिखती है.
दरअसल में बीते पांच सालों में औसत वेतन में कोई वृद्धि न होना स्पष्ट रूप से रोज़गार की बिगड़ती गुणवत्ता को दर्शाता है. इस बात का पता खुद भी लगाया जा सकता है, बस जाकर किसी स्व-रोजगार करने वाले जैसे निर्माण या परिवहन में लगे लोग (उबर या ओला ड्राइवर) से पूछिए, वो बताएंगे कि उनका वेतन वास्तविक रूप से स्थिर है, भले ही रोजमर्र के जीवनयापन की लागत बढ़ गई हो.
वेतन का स्थिर होना, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में क्रय शक्ति की कमी को भी दिखता है, जो हाल के वर्षों में हिंदुस्तान लीवर, बजाज ऑटो इत्यादि जैसी कंपनियों के लिए ग्रामीण मांग में वृद्धि की कमी में दिखी है. बजाज ऑटो जैसे दोपहिया वाहन निर्माता पांच या छह साल पहले की तुलना में आज 30 से 40% कम इकाइयां बेच रहे हैं, जो पहले कभी नहीं हुआ था. लक्जरी सेगमेंट- एसयूवी, आभूषण, इलेक्ट्रॉनिक्स, होटल, हवाई यात्रा आदि मजबूत खपत बढ़ी है और जो कंपनियां इन जरूरतों को पूरा करती हैं, वे अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं.
निम्न मध्यम वर्ग की खपत अब तक के सबसे निचले स्तर पर नज़र आ रही है.
श्रम बल सर्वे में दिखने वाला वेतन का स्थिर हो जाना मोटे तौर पर निचली 60 से 70% आबादी का प्रतिनिधित्व करता है. यह देखना दिलचस्प होगा कि पीएम मोदी भारत के अमृत काल में प्रवेश की अपनी भव्य कहानी को लेकर लोगों को कैसे आश्वस्त करते हैं. कोई भी मोदी से एक सरल, सामान्य सवाल पूछ सकता है- अमृत काल में 80 करोड़ लोग अनाज कैसे नहीं खरीद पा रहे हैं?
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