कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बर्बरता के लोकव्यापीकरण के इस युग में शक्तिशाली देश, जो मिनटों में युद्ध समाप्त करने की सैन्य और राजनयिक क्षमता रखते हैं, चुपचाप विभीषिका देख रहे हैं. सृजनधर्मियों के लिए यह बर्बरता और हिंसा के विरुद्ध आवाज़ उठाकर अपनी पक्षधरता सत्यापित करने का समय है.
दुबई जाना, वह भी सिर्फ़ दो दिनों के लिए, पहली बार हुआ. पहले कभी अबू धाबी में होनेवाली कला द्वैवार्षिकी से न्योता आया था पर कोविड प्रकोप की वजह से जाना नहीं हो पाया था. इस बार वहां दिसंबर में होने जा रही रज़ा प्रदर्शनी के सिलसिले में जाना हो पाया. शैलेंद्र सागर के बहुत अनुरोध के बावजूद लखनऊ जाना इस बार भी टल गया. दुबई साफ़-सुथरा, सुनियोजित और आधुनिक शहर है और जिस हिस्से में हम रहे वह ख़ासा समृद्ध है. हर चीज़ का दाम अधिक है. पर दो-ढाई दिन प्रदूषण से निजात मिली तो अच्छा ही लगा.
ख़ासे ख़र्चीले रेस्तरां हैं. संसार के सबसे बड़े मॉल्स में से एक यहां है: वह इतना बड़ा है कि पूरा घूमने के लिए कम से कम तीन दिन और कई घंटे चाहिए. हमने तो वहां से तुर्की में बनी बकलावा नामक स्वादिष्ट मिठाई के कई प्रकार और कुछ मेवे खरीदे. हर तरह के भोजन देनेवाले रेस्तरां हैं. यह पता करना मुश्किल है कि खुद दुबई का अपना अरबी भोजन क्या है. बहुत सारे अरब लोग एक तरह का सफ़ेद लगभग पैरों तक जाता कुर्ता पहनते हैं जो बड़ा सुंदर और सुरुचिपूर्ण लगता है. अरब स्त्रियां काला बुर्का तो पहने दिखीं पर उनके चेहरे खुले हुए थे, अधढंके नहीं.
बहुत दिनों बाद इतनी सारी अरबी बोली जाती हुई सुनी. हर भाषा का बोलने में एक तरह संगीत, या कम से कम लय, होते हैं जो उसे आकर्षक बनाते हैं. जनजीवन में किसी तरह की कट्टरता नज़र नहीं आई: मस्जिदें भी बहुत नहीं हैं- नई मस्जिदों का स्थापत्य पुराने और नए के कल्पनाशील मेल से बना है.
एक इलाका है जुमेरा. उससे गुज़रने वाली सड़क पर दोनों और एकमंजिला मकान और दुकानें हैं. दूसरी तरफ़ एक इमारत है, बहुत ऊंची जो एक तरह का विशाल ख़ाली फ्रेम लगती है. फ्रेम तो ख़ाली है पर उससे दिखने वाला दृश्य लगातार बदलता रहता है. एक बहुत ऊंची इमारत के बीच से मेट्रो गाड़ी गुज़रती है. दुबई नए स्थापत्य की इमारतों से भरा पड़ा है.
एक दिन कुछ घंटे के लिए समय निकालकर हम शारजाह भी गए जो आधे घंटे से कम की दूरी पर है. उसका नाम पहले शारजाह कला द्वैवार्षिकी के कारण सुन रखा था. वहां शारजाह बुक फ़ेयर लगा हुआ था. बहुत ही सुनियोजित. अरबी-फ़ारसी के अलावा अंग्रेज़ी पुस्तकों के कई स्टॉल थे, और कुछ मलयालम के भी. इस इलाके में मलयाली काफ़ी हैं. एक उनींदा-सा लगता हमारे राष्ट्रीय पुस्तक न्यास का स्टॉल भी था. मेले में बच्चों की बहुत सुंदर और चित्ताकर्षक पुस्तकों की भरमार थी.
कुछ देर खोजने के बाद मुझे एक पुस्तक अपने काम की मिल ही गई. वह है डब्ल्यू डब्ल्यू नॉर्टन द्वारा प्रकाशित आधुनिक मध्य पूर्व के साहित्यिक परिदृश्य का एक संचयन ‘टैबलेट एंड पैन’. उसका आठवां खंड है ‘इतिहास की सुबह और शाम के बीच: बंटवारे बाद उर्दू साहित्य’ जिसमें फ़ैज़, इंतज़ार हुसैन आदि के अलावा भारत से अख़्तर उल ईमान और अली सरदार जाफ़री की रचनाएं अंग्रेज़ी अनुवाद में शामिल हैं. हम भूल गए हैं कि मध्यपूर्व में हम भी शामिल हैं.
भाषा की ज़िम्मेदारी
जतिन दास की बड़ी प्रदर्शनी के दौरान कुछ देर बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन से कुछ बात हुई. मैंने उन्हें बताया कि इस समय बहुत सारे महत्वपूर्ण हिंदी लेखकों के लिए यह बहुत त्रासद हो गया है कि उनकी मातृभाषा और अभिव्यक्ति की भाषा हिंदी सार्वजनिक जीवन में, राजनीति-धर्म-मीडिया के गठबंधन के कारण झूठ-घृणा-अतिचार-हिंसा की और झगड़े गाली-गलौज की भाषा बन गई है.
बावजूद इसके कि अधिकांश हिंदी लेखकों ने धर्मांधता-सांप्रदायिकता-जातिवाद आदि की राजनीति के पक्ष या समर्थन में पाला नहीं बदला, उनकी भाषा का अंचल ही इन कुमूल्यों की राजनीति का पोषक बना हुआ है. एक तरह से समकालीन हिंदी साहित्य का बड़ा हिस्सा हिंदी समाज के बड़े हिस्से की राजनीति का विपक्ष है. ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि हिंदी साहित्य स्वयं हिंदी समाज के बड़े और निर्णायक हिस्से के विरोध में मुखर-सक्रिय है.
तसलीम नसरीन ने कहा कि आप इस स्थिति के लिए भाषा को दोषी नहीं मान सकते. उनका ख़याल है कि बांग्ला में स्थिति बदतर है क्योंकि दोनों देशों में, भारत और बांग्लादेश में ज़्यादातर लेखक सत्ता के पक्ष में चले गए हैं. वहां साहित्य किसी तरह का राजनीतिक विरोध नहीं रह गया है. इससे बांग्ला भाषा दूषित तो निश्चय ही हो रही है पर इस प्रदूषण और विकृत के लिए बांग्ला भाषा को दोषी नहीं ठहराया जा सकता.
ज़ाहिर है कि हममें मतभेद है. उसे ध्यान में रखते हुए, मुझे लगता है कि भाषा सिर्फ़ अभिव्यक्ति का माध्यम भर नहीं है: उसमें स्मृति-कल्पना-विवेक, मूल्यबोध आदि भी सन्निहित होते हैं. उसमें जो कुछ भी होता है कि उसका इनसे कुछ न कुछ लेना-देना होता है. अगर हिंदी में वह सब हो रहा है जिसका ज़िक्र पहले हुआ तो ज़ाहिर है कि उसका बुनियादी मूल्यबोध या तो निष्क्रिय है या कि इतना अशक्त कि वह भाषा के दुरूपयोग को थामने में सर्वथा अक्षम.
अगर हिंदी भाषी समाज का एक बड़ा हिस्सा हिंसा-हत्या-घृणा-झूठ की मानसिकता से प्रेरित और उत्साहित है और उसके क्षेत्र में सक्रिय धर्म और मीडिया आदि इस मानसिकता के प्रभावशाली पोषक हैं तो इतना तो मानना ही पड़ेगा कि इस सबसे हिंदी क्षत-विक्षत, घायल और रक्तरंजित हो रही है.
इसका शायद और गहरा विश्लेषण अभी होना है कि पिछले एक दशक में हिंदी अंचल में जो हुआ है उसने हिंदी की अपनी तेजस्विता-उज्ज्वलता-मानवीयता-नैतिकता को कितनी चोट पहुंचाई है. इस पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि अन्य भाषा-भाषी हिंदी के बारे में अब क्या सोचने लगे हैं.
आधुनिकता के सभी प्रगट उपकरणों से लैस जो दक़ियानूसी हमारे देश पर हिंदी अंचल के समर्थन से लादी जा रही है वह हिंदी के बारे में नए पूर्वाग्रहों को निश्चय ही उकसा रही होगी. इन पूर्वाग्रहों के कारण स्वयं हिंदी साहित्य का प्रतिरोध अलक्षित जा सकता है. हमें इसको लेकर भी चिंतित होना चाहिए.
युद्ध और पक्षधरता
दिल्ली पीईएन ने पिछले दिनों ग़ाजा़ युद्ध को लेकर प्रेस क्लब में एक बैठक की. सौ से अधिक लोगों की उपस्थिति में, तो उसमें हिंदी के पांच लेखक भी मुश्किल से थे, लेखक-पत्रकार तक नहीं थे. सही है कि बैठक कम सूचना पर बुलाई गई थी, पर यही कारण नहीं हो सकता.
युद्ध का विरोध करने की हिंदी में एक लंबी परंपरा है: हमें याद है कि विएतनाम के युद्ध को लेकर लेखकों ने कई सामूहिक वक्तव्य और प्रदर्शन आदि किए थे. बहरहाल, समय बदल गया है. एक साल से अधिक हो गया, यूक्रेन पर रूसी हमला अब तक चल रहा है. लोग और देश उसे लगभग भूल गए हैं पर यूक्रेन पर रूस के हमले जारी हैं.
गाज़ा में पहले फ़िलिस्तीनियों के आतंकवादी संगठन हमास ने इजरायलियों पर हमला कर 700 से अधिक की हत्या की जिसकी हम सभी ने निंदा की. पर, बदले में इजरायल जो कर रहा है वह क्रूर, अमानवीय और बर्बर है. आंकड़े बताते हैं कि अकेले गाज़ा पट्टी में मारे गए फिलिस्तीनियों की संख्या मारे गए इजरायलियों से चार गुना और घायलों की संख्या छह गुनी है.
संसारभर में, अमेरिका-ब्रिटेन-ऑस्ट्रेलिया-यूरोप आदि कई देशों में इजरायल की बर्बरता और युद्धोन्माद के विरुद्ध हज़ारों की संख्या में लोगों ने प्रदर्शन किए हैं. जो नरसंहार हो रहा है उसमें बहुसंख्या बच्चों और स्त्रियों की है. एक नया अंतविर्रोध विश्वव्यापी हुआ है- सामान्य लोग युद्ध, बर्बरता और नरसंहार का जमकर विरोध कर रहे हैं जबकि उनकी सरकारें या तो चुप हैं या इज़रायल का समर्थन कर रही हैं.
दो बड़े युद्ध इस समय चल रहे हैं. यूक्रेन और रूस, इजरायल और फिलिस्तान के बीच. दोनों के मूल में दूसरे देश की ज़मीन पर बेज़ा कब्ज़ा करने या ऐसे कब्ज़े को स्थायी करने का लक्ष्य है. उसके लिए कितना भी नरसंहार करने में कोई नैतिक संकोच नहीं रह गया है. सबसे अधिक क्षति निरपराधों की है, जो बेवजह रोज़ाना सैकड़ों-हज़ारों की संख्या में मारे जा रहे हैं. बर्बरता के लोकव्यापीकरण के इस युग में शक्तिशाली देश, जो मिनटों में युद्ध समाप्त करने की सैन्य और राजनयिक क्षमता रखते हैं, चुपचाप विभीषिका देख रहे हैं.
लेखक और अन्य सृजनधर्मी, बुद्धिजीवी, इस मुक़ाम पर चुप या निष्पक्ष नहीं रह सकते. हमें युद्ध के विरुद्ध, नरसंहार के विरुद्ध, बर्बरता और हिंसा के विरुद्ध आवाज़ उठाकर अपनी पक्षधरता सत्यापित करना चाहिए: कोई और नैतिक और मानवीय विकल्प नहीं है.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)