जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. सत्रहवां भाग दोनवार जाति के बारे में है.
जातियों का निर्माण जिस किसी ने किया हो, वह इस व्यवस्था का प्रवर्तक रहा है कि इस समाज पर अपना एकाधिकार कैसे बनाए रखा जा सकता है. एक ऐसा एकाधिकार, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी बना रहे. यह आसान नहीं होता और इसके भी अपने कुप्रभाव होते हैं. कई बार तो ऐसा एकाधिकार चाहने वाले खुद इसके शिकार हो जाते हैं और फिर इतिहास में उनका कोई नामलेवा नहीं रह जाता.
आप कहेंगे कि यह कैसे मुमकिन है कि वह समूह जो किसी वर्चस्ववादी समूह का हिस्सा रहा हो, वह विलुप्त हो जाए? लेकिन यकीन मानिए कि यह मुमकिन है और इसका गवाह दोनवार हैं और उनकी आबादी अब उस बिहार में जहां एक समय पटना, छपरा, सीवान, गोपालगंज, मुजफ्फरपुर से लेकर दरभंगा, सीतामढ़ी, मधुबनी और सुपौल तक थी, अब केवल मधुबनी तथा सुपौल में सीमित रह गई है.
आबादी की बात करें, तो बिहार सरकार के द्वारा हाल ही में जारी जाति आधारित गणना रिपोर्ट बताती है कि बिहार में केवल 1,361 लोगों ने यह स्वीकार किया है कि वे दोनवार हैं.
जब इस आंकड़े को देखता हूं तो सवाल उठता है कि आखिर ये लोग कहां गए. आखिर क्या वजह रही कि इन लोगों की आबादी बिहार की कुल आबादी का केवल 0.0010 प्रतिशत रह गई है? क्या ये सारे लोग किसी जंग में मारे गए?
यह सवाल इसलिए कि ये लड़ाकू कौम के रहे और मुगलों की सेना में शामिल थे. उनका जिक्र ‘आइने-अकबरी’ में आया है.
‘आइने-अकबरी’ तो छोड़िए, इनका संबंध द्रोणाचार्य से बताया जाता रहा है और यही इनके पूर्वजों के नामकरण का कारण भी. हालांकि कुछ लोगों को यह कपोल-कल्पित बात लग सकती है. मैं तो स्वामी सहजानंद सरस्वती की बात कर रहा हूं, जिन्हें बिहार में भूमि सुधार आंदोलन का बड़ा नेता माना जाता रहा और आजादी के पहले बिहार में उनकी धाक थी. यह उनकी ही धाक थी कि जब देश आजाद हुआ तब बिहार के पहले मुख्यमंत्री के रूप में श्रीकृष्ण सिंह ने ब्राह्मण, राजपूतों और कायस्थों को पछाड़ते हुए भूमिहारों का झंडा फहराया.
वही स्वामी सहजानंद सरस्वती ने अपनी पुस्तक ‘ब्रह्मर्षि वंश का विस्तार’ में लिखा है-
‘अब दोनवार आदि शब्दों के अर्थ सुनिए. वास्तव में दोनवार ब्राह्मण कान्यकुब्ज ब्राह्मण, वत्स गोत्रवाले देकुली या देवकली के पांडे है. यह बात दोनवारों के मुख्य स्थान नरहन, नामगढ़, विभूतपुर और गंगापुर आदि दरभंगा जिले के निवासी दोनवार ब्राह्मणों के पास अब तक विद्यमान बृहत वंशावली में स्पष्ट लिखी हुई हैं. वहां यह लिखा हुआ है कि देवकली के पांडे वत्सगोत्री दो ब्राह्मण, जिनमें से एक का नाम इस समय याद नहीं, मुगल बादशाहों के समय में किसी फौजी अधिकार पर नियुक्त हो कर दिल्ली से मगध और तिरहुत की रक्षा के लिए आए और पटना-दानापुर के किले में रहे. इसी जगह वे लोग रह गए और उन्हें बादशाही प्रतिष्ठा और पेंशन वगैरह भी मिली.
उनमें एक के कोई संतान न थी. परंतु दूसरे भाई समुद्र पांडे के दो पुत्र थे. एक का नाम साधोराम पांडे और दूसरे का माधोराम पांडे था, जिनमें साधोराम पांडे के वंशज दरभंगा प्रांत के सरैसा परगना में विशेष रूप से पाए जाते हैं, यों तो इधर-उधर भी किसी कारणवश दरभंगा जिले-भर और बाहर भी फैले हुए हैं. बल्कि दरभंगा के हिसार ग्राम में (जनकपुर के पास) अब तक दोनवार ब्राह्मण पांडे ही कहलाते हैं. माधावराम पांडे के वंशज मगध के इकिल परगना में भरे हुए पाए जाते हैं. साधोराम पांडे के पुत्र राजा अभिराम और उनके राय गंगाराम हुए; जिन्होंने अपने नाम से गंगापुर बसाया. वे बड़े ही वीर थे. उनके दो विवाह हुए थे, और दोनों मैथिल कन्याओं से ही हुए थे. एक स्त्री श्रीमती भागरानी चाक स्थान के राजासिंह मैथिल की और दूसरी मुक्तारानी तिसखोरा स्थान के पं. गोपीठाकुर मैथिल की पुत्री थी. एक से तीन और दूसरी से छह, इस प्रकार राय गंगाराम के नौ पुत्र हुए, जिन्होंने नरहन, रामगढ़, विभूतपुर और गंगापुर आदि नौ स्थानों में अपने-अपने राज्य उसी प्रांत में जमाए.
उन्हीं में से पीछे कोई पुरुष, जिनका नाम विदित नहीं है, आजमगढ़ जिले के रैनी स्थान में मऊ से पश्चिम टोंस नदी के पास आ बसे, जिनके वंशज वहां 12 कोस में विस्तृत हैं. फिर वहां से दो आदमी आ कर जमानियां परगना, जिला गाजीपुर में बसे और पीछे से बहुत गांवों में फैल गए. इनमें से ही कुछ बनारस प्रांत से मधुपुर आदि स्थानों में भी आ बसे और इसी तरह दो-दो एक-एक ग्राम या घर बहुत जगह फैल गए. रैनी स्थान से ही जो लोग बलिया के पास जीराबस्ती आदि तीन या चार ग्रामों में बसे हुए हैं, वे किसी कारणवश पांडे न कहे जाकर तिवारी कहलाने लगे, जो अब तक तिवारी ही कहे जाते हैं. जैसे पं. नगीना तिवारी इत्यादि.
इस प्रकार साधोराम पांडे के वंशजों की वृद्धि बहुत हुई. परंतु माधावराव पांडे के वंशज केवल मगध में ही पाए जाते हैं. तथापि उनकी संख्या वहां कम नहीं हैं. दिघवारा (छपरा) के पास बभनगांव तथा ऐसे ही दो-एक और स्थानों के भी दोनवार लोग अब तक पांडे ही कहलाते हैं. जबकि दोनवार नाम के ब्राह्मण बिहार और संयुक्त प्रांत में भरे हुए हैं और क्षत्रिय दोनवार केवल कुछ ही ग्रामों में पाए जाते हैं. तो इससे निस्संशय यही बात सिद्ध है कि उन क्षत्रियों के विषय में वही बात हो सकती है जो अभी कही जा चुकी है.’
तो यह बात तो साफ है कि दोनवार ब्राह्मण ही होते हैं. लेकिन वे ब्राह्मण, जो याचक नहीं होते. मतलब अयाचक ब्राह्मण, जो कर्मकांड करते हैं, लेकिन केवल अपने लिए. वे किसी जजमान के यहां जाकर कर्मकांड के बहाने धन नहीं ऐंठते. ये लोग तो खेती-किसानी-जमींदारी करते हैं. लेकिन ब्राह्मणों ने इन्हें खुद से अलग रखा.
लेकिन अब यह सवाल नहीं रह गया है कि उन्होंने दोनवारों को अपनों से अलग क्यों रखा है. इस बारे में स्वयं स्वामी सहजानंद सरस्वती ने ऊपर वर्णित अपनी किताब में लिखा है-
‘बहुत जगह अनेक अंग्रेजों ने यह लिखा है कि जब बहुत से भूमिहार (ब्राह्मणों) और राजपूतों के गोत्र एक ही हैं, जैसे किनवार या दोनवार, तो फिर वे एक ही क्यों न समझे जावें? पर उनकी यह भूल है. क्योंकि एक तो सामान्यत: वैदेशिकों को यही पता नहीं चलता कि गोत्र या मूल किसे कहते हैं. दूसरे वे लोग यह भी देखते हैं कि बहुत से लोग गोत्रों से ही पुकारे जाते हैं, जैसे भारद्वाज, गौतम और कौशिक इत्यादि. इससे उन्हें यह भ्रम हो गया कि दोनवार और किनवार भी गोत्रों के ही नाम है. इसी से उन्होंने ऐसा बक डाला, जिसे देखकर आजकल के अर्द्धदग्ध लकीर के फकीर भी वही स्वर आलापने लग जाते हैं. परंतु वास्तव में किनवार और दोनवार आदि संज्ञाएं प्रथम निवास के स्थानों या डीहों से पड़ी है, जिन्हें मिथिला में मूल कहते हैं.’
स्वामी सहजानंद सरस्वती के इस वर्णन में एक शब्द आया है- डीह. उन्होंने इसका मतलब बताया है- प्रथम निवास स्थान. दरअसल, डीह का मतलब होता है ऊंचा स्थान, जहां पानी का डर न हो. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि बुद्ध ने बिहार के जिन तीन खतरों के बारे में बतलाया, उनमें एक पानी भी है. इसकी वजह यह कि बिहार नदियों का राज्य रहा है. इसमें सबसे अहम हिमालय से आने वाली नदियां हैं, जिनका अथाह पानी हर साल बिहार को आज भी बर्बाद करता है. तो डीह यानी ऊंचे स्थानों पर बसना जीवन के लिए आवश्यक था.
यह इतिहास में भले ही वर्णित न हो, लेकिन उपलब्ध तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि पहली लड़ाई जो लड़ी गई, वह डीह के लिए ही लड़ी गई. जिसने जीत हासिल की, वह शासक बना. और स्वामी सहजानंद सरस्वती के उपरोक्त उद्धरणों से यह तो स्पष्ट है कि दोनवार लोग डीह के बाशिंदे थे. सामान्य भाषा में यही कहा जाता है कि ये लोग गांव के उत्तर में रहे और शेष दक्खिन टोले में.
स्वामी सहजानंद सरस्वती हालांकि जब ‘ब्रह्मर्षि वंश का विस्तार’ लिखते हैं तो यह मुमकिन है कि उन पर यह आरोप लगे कि उन्होंने मुट्ठीभर भूमिहारों काे एक बड़े समूह के रूप में दिखाने व ब्राह्मणों से उन्हें अलगाने की कोशिश की. और शायद इसलिए उन्होंने इस बात का जिक्र किया कि जब कोई ब्राह्मण किसी क्षत्रिय कुल की कन्या से विवाह करता है और उससे जो उसे जो पुत्र प्राप्त होता है, वह श्रेष्ठ क्षत्रिय होता है.
स्वामी सहजानंद सरस्वती के संकेतों पर यकीन करें तो न केवल भूमिहार, बल्कि दोनवारों के पूर्वज भी यही श्रेष्ठ क्षत्रिय रहे. स्वयं स्वामी सहजानंद सरस्वती के शब्दों में:
‘सबसे विश्वसनीय और प्रामाणिक बात यह है कि दोनवार और किनवार इत्यादि नामवाले जो क्षत्रिय हैं, ये प्रथम अयाचक ब्राह्मण ही थे. परंतु किसी कारणवश इस ब्राह्मण समाज से अलग कर दिए गए या हो गए. बनारस-रामेश्वर के पास गौतम क्षत्रिय अब तक अपने को कित्थू मिश्र या कृष्ण मिश्र के ही वंशज कहते हैं, जिन मिश्र जी के वंशज सभी गौतम भूमिहार ब्राह्मण हैं और भूमिहार ब्राह्मणों से पृथक होने का कारण वे लोग ऐसा बतलाते हैं कि कुछ दिन हुए हमारे पूर्वजों को गौतम ब्राह्मण हिस्सा (जमींदारी वगैरह का) न देते थे, इसलिए उन्होंने रंज हो कर किसी बलवान क्षत्रिय राजा की शरण ली. परंतु उसने कहा कि यदि हमारी कन्या से विवाह कर लो, तो हम तुम्हें लड़कर हिस्सा दिलवा देंगे. इस पर उन्होंने ऐसा ही किया और तभी से भूमिहार ब्राह्मणों से अलग हो कर क्षत्रियों में मिल गए यह उचित भी है. क्योंकि जैसा कि प्रथम ही इसी प्रकरण में दिखला चुके हैं कि, मनु, याज्ञवल्क्यादि सभी महर्षियों का यही सिद्धांत है कि ब्राह्मण यदि क्षत्रिय की कन्या से विवाह कर ले, तो उसका लड़का शुद्ध क्षत्रिय ही होगा. क्योंकि उसका मूर्द्धाभिषिक्त नाम याज्ञवल्क्य ने कहा है और ‘मूर्द्धाभिषिक्तो राजन्य’ इत्यादि अमरकोश के प्रमाण से तथा महाभारत और वाल्मीकि रामायण आदि से मूर्द्धाभिषिक्त नाम क्षत्रिय का ही है.’
स्वामी सहजानंद सरस्वती अपने आलेख में कहते हैं, ‘सारांश यह है कि सभी दोनवार आदि नामवाले क्षत्रियों की संख्या बहुत ही थोड़ी हैं, परंतु इन नामोंवाले भूमिहार ब्राह्मणों की संख्या ज्यादा हैं. इससे स्पष्ट है कि इन्हीं अयाचक ब्राह्मणों में से वे लोग किसी कारण से विलग हो गए हैं. इसीलिए उनकी दोनवार आदि संज्ञाएं और गोत्र वे ही हैं जो दोनवार आदि नाम वाले ब्राह्मणों के हैं.’
बहरहाल, यह तो सच है कि दोनवार लोग अयाचक ब्राह्मण रहे हैं. बेहतर तो यह हो कि दोनवार, जिन्हें अयाचकों में सर्वश्रेष्ठ होने का अहंकार रहा, वे अपनी सर्वश्रेष्ठता या अहंकार का परित्याग कर बड़े समुच्चय का हिस्सा बनें ताकि इस देश और समाज से जाति का विनाश मुकम्मल हो.
(लेखक फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं.)
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