जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. यह भाग कुम्हार जाति के बारे में है.
इस धरती पर सबसे पहले किस समुदाय के लोग आए, यह दावा नहीं किया जा सकता है. लेकिन कुम्हार इस धरती पर पहले रहे होंगे, जिन्होंने गति को समझा होगा. वे ही प्रथम रहे होंगे, जिन्होंने मिट्टी की ताकत को पहचाना होगा. इस कारण ही उन्होंने दुनिया को चाक दिया होगा और खूब सारे बर्तन. इस दुनिया को अंधकार में रास्ता दिखाने के लिए दीये उन्होंने ही बनाए हाेंगे. संभवत: यही वजह है कि इन्हें कुम्हार पंडित भी कहा जाता है. पंडित की उपाधि इन्हें इसलिए दी गई होगी, क्योंकि पांडित्य का असली मतलब सृजन करना है और इसका संबंध ज्ञान से है.
आप चाहें तो पाषाण युग के इतिहास को पलटकर देखें. कुम्हार वहां मौजूद मिलेंगे अपने चाक और खूब सारी मिट्टी के साथ. वे मानव सभ्यता के विकास की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी हैं. लेकिन गढ़ना आसान नहीं होता. गढ़ने के लिए समाज को समझना पड़ता है. जिसने समाज को नहीं समझा, वह कुछ नहीं गढ़ सकता.
कुम्हार केवल बिहार में ही नहीं या फिर केवल भारत में ही नहीं, विश्व की सभी सभ्यताओं में अलग-अलग रूपों में मौजूद रहे. मिस्र के पिरामिडों रखे बर्तन इसके सबूत हैं. उन्होंने हड़प्पा काल में बर्तन बनाए, टेराकोटा की मूर्तियां बनाईं.
लेकिन यह भी सत्य है कि गढ़ने के ज्ञान के बावजूद वे उपेक्षित रहे हैं. अतीत के पन्नों में इनकी उपस्थिति के प्रमाण नहीं मिलते. और ऐसे केवल कुम्हार ही नहीं, अन्य शिल्पकार जातियां भी हैं, जिनका कोई उल्लेख किसी इतिहास की किताब में नहीं मिलता. बौद्ध धर्म के पहले आजीवक धर्म से इनका संबंध एक आजीवक संजय केशकंबलि से स्थापित जरूर होता है, जो कुम्हार परिवार से आते थे. लेकिन बौद्ध धर्म के ग्रंथों में इससे अधिक विवरण नहीं मिलता.
बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में इन्हें पवनियाें में गिना जाता है. ठीक वैसे ही जैसे नाई, लोहार, बढ़ई और कहार. पवनिया लोगों का काम सेवा करना होता है. इनका भी काम सेवा करना ही रहा है. लोग जब अपने बच्चों की शादी करते हैं तो कुम्हार उनके लिए मिट्टी के हाथी-घोड़े-चिड़ियां आदि बनाकर देते हैं. ये उन्हें कलश बनाकर देते हैं, जिसमें जल संग्रहित कर रखा जाता है और जिसे साक्षी मानकर स्त्री-पुरुष एक होने का संकल्प लेते हैं. इसके बदले में पहले इन्हें द्रव्य और कपड़े आदि मिल जाते थे.
अब जमाना बदला है तो ये भी बदल रहे हैं. अब ये अपने द्वारा गढ़े गए हर वस्तु की कीमत खुद तय करते हैं. अब इन्होंने बेगार के रूप में सेवा करना बंद कर दिया है. हालांकि पूंजीवाद ने इन्हें इनकी ही कला का मजदूर बना दिया है.
मजहब की बात करें तो कुम्हार हिंदू और मुसलमान दोनों हैं. हालांकि भारत में ब्राह्मणवाद ने इनसे इनका शब्द ही छीन लिया. अब इन्हें प्रजापति कहा जाता है. इसके पीछे वैदिक कहानियां गढ़ दी गई हैं, ताकि जनजातीय पेशे वाले इस समुदाय का हिंदूकरण किया जा सके. जबकि ये मूल रूप से कुम्हार हैं और यह शब्द कुम से संबंधित है, जिसक मतलब तालाब या जलाशय होता है.
इसके पीछे की पृष्ठभूमि यह कि इन्हें मिट्टी और पानी दोनों की आवश्यकता होती है. लेकिन हर तरह की मिट्टी चाक पर नहीं चढ़ती. खासकर नदियों के किनारे की बालू मिश्रित मिट्टी तो बिल्कुल नहीं. इन्हें दोमट मिट्टी या काली मिट्टी की आवश्यकता होती है, जिसमें सांगठनिक क्षमता हो. यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ऐसी मिट्टी के लिए इन्होंने धरती को खोदना शुरू किया और फिर जब यह देखा कि मिट्टी निकालने के बाद जो गड्ढा होता है, बरसात में उसमें पानी भर जाता है तो इनकी बांछें खिल गई होंगी. आज भी कुम्हार अक्सर तालाब और जलाशयों के किनारे रहते हैं, जिसमें पानी स्थिर होता है. इस प्रकार ये कुम्हार कहे गए.
पर इनके उत्पादों को अलग-अलग नाम दे दिया गया. जैसे घड़े को संस्कृत में कुंभ कहा गया और इन्हें कुम्हार से कुंभकार बना दिया. अब यह तो कोई भी समझ सकता है कि ये केवल कुंभ यानी घड़ा ही नहीं बनाते, बल्कि खपडै़ल, दीये व अन्य सारे बर्तन तथा मूर्तियां बनाते हैं, तो ये केवल कुंभकार कैसे हुए?
खैर, द्रविड़ परंपराओं में ये कुम्हार ही कहे जाते हैं. आज के पाकिस्तान और हिंदुस्तान के पंजाब प्रांत में इन्हें कुलाल भी कहा जाता है. ये भारत के हर राज्य के निवासी हैं. अधिकांश प्रांतों में बेशक ये अछूत नहीं हैं, लेकिन इन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल नहीं है. हिंदी प्रदेशों, खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश में इन्हें पवनियों में गिना जाता है और इन्हें बसाया ही इसलिए जाता है ताकि ये अन्य ऊंची जातियों की सेवा कर सकें. वैसे भी यदि इन्हें ‘अछूत’ मान लिया गया तो देवताओं की मूरत कौन गढ़ेगा.
लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि संसाधनों पर इनका भी समान अधिकार है. सामाजिक प्रतिष्ठा का सीधा संबंध संसाधनों पर अधिकार से है. चूंकि गांवों में इनकी बसाहट ओबीसी के अन्य जातियों या दलित जातियों के जैसे नहीं है- एक गांव में कभी दो घर तो किसी-किसी गांव में इनका एक ही घर होता है. बिहार और यूपी में एक भी ऐसा गांव नहीं है जो केवल कुम्हार लोगों का हो. कहीं-कहीं कुम्हार टोला जरूर देखने को मिल जाता है लेकिन टोले का आकार भी बहुत छोटा होता है.
सामाजिक प्रतिष्ठा का संबंध मौजूदा दौर में संख्या से भी होता है. बिहार की ही बात करें तो यहां की 13 करोड़ की आबादी में कुम्हार जाति के लोगों की संख्या बिहार सरकार द्वारा जारी जाति आधारित गणना रिपोर्ट-2022 के अनुसार 18,34,418 है, जिनकी कुल आबादी में हिस्सेदारी 1.40 प्रतिशत है. राजनीतिक दखल के लिए यह संख्या ऊंट के मुंह में जीरे से अधिक कुछ भी नहीं.
बहरहाल, बिहार में इन्हें अति पिछड़ा वर्ग में शमिल किया गया है तो देश के अन्य राज्यों में ये पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं. केवल मध्य प्रदेश के छतरपुर, दतिया, पन्ना, सतना, टीकमगढ़, सीधी और शहडोल जिलों में इन्हें अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है.
पुनश्च कि कुम्हार समुदाय के लोगों की परंपरा जनजातीय रही है. हिंदू धर्म ग्रंथ यजुर्वेद (16.27, 30.7) में इन्हें प्रजापति के रूप में रेखांकित किया गया है. प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र थे. जैसे उनकी पुत्री थीं- सरस्वती. ब्राह्मण वर्ग प्रजापति और सरस्वती दोनों को ज्ञानी मानता है.
खैर इससे कुछ भी स्थापित नहीं होता कि ये प्रजापति के वंशज हैं. इनका ज्ञान और कौशल इनका अपना है, किसी ईश्वर की देन नहीं. ये तो सृजन करते रहे हैं और जो सतत सृजन करता है, उसका अस्तित्व कभी खत्म नहीं होता. यही वजह है कि आज भी इनका अस्तित्व कायम है.
हालांकि अब मशीनी युग में इन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ता है और मिट्टी से जुड़ा इनका पारंपरिक पेशा दम तोड़ता जा रहा है. लेकिन बदलते समय के साथ देखें तो यह भी अच्छा है.
लेकिन यह केवल कहने की बात के जैसा है. इनकी भूमिहीनता और रोजगार की अनुपलब्धता ने इन्हें बाध्य कर दिया है कि ये दिहाड़ी मजदूरी करें या फिर प्रवासी मजदूर बनकर दूसरे शहर व राज्यों में चले जाएं. इनकी पीड़ा केवल वे समझ सकते हैं, जो सृजन करने का अर्थ समझते हैं.
वैसे भी यह जाति अन्य जातियों से अलहदा इस मायने में है कि इस जाति ने यह साबित किया कि जिस आग में जलकर देह मिट्टी बन जाती है, उसी आग में जलकर मिट्टी जीवन का रूप अख्तियार करती है. कितना अलहदा है सृजन का यह सिद्धांत.
(लेखक फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं.)
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