हिंसा अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरी हेकड़ी दिखा रही है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बर्बर और अमानवीय इजरायल गाज़ा में जो कर रहा है और जिस तरह से अनेक देश उसे चुप रहकर ऐसा करने दे रहे हैं, वे मनुष्यता और सभ्यता की विफलता के ताज़ा उदाहरण हैं.

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हमास के मिसाइल हमले के बाद गाज़ा पर इज़रायल के हमले के बाद एक इमारत. (फोटो साभार: ट्विटर/UNRWA)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बर्बर और अमानवीय इजरायल गाज़ा में जो कर रहा है और जिस तरह से अनेक देश उसे चुप रहकर ऐसा करने दे रहे हैं, वे मनुष्यता और सभ्यता की विफलता के ताज़ा उदाहरण हैं.

हमास के मिसाइल हमले के बाद गाज़ा पर इज़रायल के हमले के बाद एक इमारत. (फोटो साभार: ट्विटर/UNRWA)

सारे संसार के बारे में सोचना संचार-यातायात आदि के कारण कुछ आसान हो गया है. जो कुछ भी नहीं घटता है उसकी ख़बर, जो कुछ भी कहीं सोचा-लिखा-किया जाता है उसका कम से कम सारांश हम तक पहुंच जाता है. इसे ज्ञान को नहीं कह सकते, पर यह निरी सूचना भी नहीं है. ज्ञान न सही, हमें यह एहसास तो होता रहता है कि संसार में क्या हो रहा है. इसलिए कुछ सामान्यीकरण करना अनुचित नहीं है.

पहला यह कि संसारभर में लगभग सभी समाज हिंसा, भेदभाव, अत्याचार और अन्याय में लिप्त होते जा रहे हैं. बहुत कम समाज हैं जिनके बारे में यह दावा किया जा सकता है कि वे समरस और हिंसा-मुक्त समाज हैं. यह हश्र मानवीय सभ्यता, परंपरा और आधुनिकता की अंततः विफलता का साक्ष्य है. छोटी-मोटी सफलताओं का तो अंबार लगा है, टेक्नोलॉजी में बड़ी सफलता का भी. पर कोई बड़ी सफलता इस समय मनुष्यता के खाते में हुई नज़र नहीं आती. जहां लोकतंत्र है वहां और जहां तानाशाहियां वहां भी, सहज मनुष्यता सक्रिय और सशक्त नहीं है. बर्बर और अमानवीय इजरायल गाज़ा में जो कर रहा है और जिस तरह से अनेक देश उसे चुप रहकर ऐसा करने दे रहे हैं, वे मनुष्यता और सभ्यता की विफलता के ताज़ा उदाहरण हैं.

हिंसा अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरी हेकड़ी दिखा रही है. भारतीय समाज में भी, दुर्भाग्य से, अनेक हिंसक कारनामों को सामाजिक अभिव्यक्ति का लगभग क़ानूनी माध्यम माना जाने लगा है. रूस के यूक्रेन पर हिंसक आक्रमण का एक वर्ष से अधिक हो चुका है और वह रुकने का नाम नहीं ले रहा है.

बीसवीं शताब्दी में व्याप्त हिंसा ने करोड़ों का नरसंहार किया पर लगता है कि मनुष्यता ने उस दारुण अनुभव से कुछ सीखा नहीं और इस शताब्दी में फिर हिंसा संसार भर में तेज़ी से लगातार व्याप रही है. प्रकृति के साथ हिंसा ने जलवायु संकट पैदा कर दिया है और वह भी थमने की दिशा में नहीं जाती दिखती. पूंजीवाद-बाज़ार-धर्म-मीडिया के गठबंधन ने घृणा-झूठ-हिंसा फैलाने में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त की है.

फिलिस्तीन पर इज़रायली आक्रमण को लेकर संसारभर में बड़े प्रदर्शन हो रहे हैं: लोगों का अंतःकरण सक्रिय है पर सत्ताएं चुपचाप हैं. सत्ता और जनता के बीच दूरियां बहुत बढ़ रही हैं पर सत्ता का चरित्र और आचरण जल्दी ही बदलेंगे ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती. संसारभर में शांति के लिए, बेहतर जीवन और पर्यावरण के लिए कई समूह सक्रिय हैं और प्रायः उन सभी का आग्रह अहिंसक विकल्प खोजने-बरतने का है. पर ऐसा नहीं लगता कि यह सदाशय सामूहिकता विश्व स्तर पर गहरा प्रभाव डाल सकेगी.

वैचारिक स्तर पर भी विशेषीकरण इस क़दर सीमित और संकीर्ण हो गया है कि ज्ञान के क्षेत्र में भी कोई विश्व-विचार नज़र नहीं आता. शायद साहित्य और कलाओं में ही ऐसी कोई नई वैचारिकता संभव है और उसके कुछ संकेत जब-तब मिलते रहते हैं. उनकी भी विश्व स्तर पर उपस्थिति और सक्रियता में कई बाधाएं हैं. यह एक निराश और लाचार आकलन है पर उसकी सचाई से मुंह मोड़ना और किसी हवाई आदर्शवाद में शरण लेना न तो व्यावहारिक होगा, न ही कारगर.

इतिहास का आस्वाद

हाल ही में दिवंगत कला-इतिहासकार प्रोफेसर बीएन गोस्वामी ने जो अनोखा पाठ दशकों से सिखाया वह यह था कि कलाओं का इतिहास खोज के अलावा आस्वादन का भी विषय है. पिछली लगभग अधसदी में कुछ और कला-इतिहासकारों ने हमें खोज की उत्तेजना और आह्लाद तो दिए पर कला का रसास्वादन करना प्रो. गोस्वामी ने ही सिखाया.

उनकी उर्दू-फ़ारसी कविता में गहरी पैठ थी और उसका इस्तेमाल वे कला की बारीकियों को समझने में बहुत मार्मिकता और सूझ-बूझ के साथ करते थे. विशेषतः मिनिएचर शैली और उसमें भी पहाड़ी शैली के कई महान चित्रकारों जैसे नैनसुख और मनकू की कला को उनकी कवितापगी नज़र से देखना, एक पहाड़ी शैली के चित्र को जोश मलीहाबादी की शायरी के सहारे समझने का आस्वाद बिल्कुल अनोखा होता था: उनके यहां इतिहास स्मृति पर नहीं, मर्म और रस भी था. ऐसा करते हुए वे हमें यह भी बताते-समझाते रहे कि कलाकार की स्वतंत्रता और स्वायत्तता का सक्रिय बोध आधुनिकता की देन नहीं है. वह हमारी परंपरा का हिस्सा भी रहा है.

वे याद दिलाते थे और ऐसा करते हुए हमें अपने उत्तराधिकार के प्रति सजग भी करते थे. आज अगर नैनसुख जैसे लगभग अज्ञातकुलशील रहते आए चित्रकार को भारतीय कला जगत में एक महान चित्रकार के रूप में सहज मान्यता मिली हुई है तो वह प्रो. गोस्वामी की खोज के कारण ही. लगातार कविता का सहारा लेते हुए उन्होंने हमारी परंपरा में रसे-बसे कलाओं के आपसी संवाद को रोचक ढंग से उजागर किया.

प्रो. गोस्वामी जैसा कलाओं के क्षेत्र में अंग्रेज़ी में प्रभावशाली पर रोचक ढंग से बोलने वाला कोई दूसरा वक्ता याद करना मुश्किल है. हिंदी में उनके समकक्ष डॉ. मुकुंद लाठ को ही रखा जा सकता है. प्रो. गोस्वामी दशकों तक कला-इतिहास के प्रोफेसर रहे और उनके अनेक प्रतिभाशाली छात्र हुए जिन्होंने इस क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की. हाल ही में दिवंगत कविता सिंह की याद आती है.

प्रो. गोस्वामी की ऐतिहासिक और आलोचनात्मक दृष्टि का वितान बहुत व्यापक और विपुल था. वे अगर देवताओं, राजाओं, साधुओं आदि के चित्रित जीवन और छवियों को ध्यान में लेते थे तो उनकी नज़र बिल्ली तक पर जाती थी. उनकी अंतिम प्रकाशित पुस्तक भारतीय बिल्ली पर है जिसमें चित्रों, कविताओं, कहावतों आदि को भी संकलित किया गया है.

हम उनके हमेशा कृतज्ञ रहेंगे कि उन्होंने हमारी परंपरा के बड़े चित्रित हिस्से को हमें संवेदनशीलता, सजगता और संदर्भ-चेतना से देखना, उसका आनंद लेना और समझना सिखाया. उनकी आंखों से देखी गई कला अपने आशय में विराट और बहुल, अपनी शैली में सघन-ललित-सूक्ष्म-जटिल और अपने सृजन में अद्वितीय ढंग से भारतीय है. हमारा सांस्कृतिक-बौद्धिक जगत प्रो. गोस्वामी के देहावसान से विपन्न हो गया है.

मुंबई में आर्ट फ़ेयर

इत्तफ़ाकन मुंबई में था. दिल्ली के आर्ट समिट और आर्ट फेयर के बरसों बाद अब मुंबई में तीन कला-संस्थानों, जो दिल्ली, मुंबई और लंदन से हैं, ने मुंबई के महालक्ष्मी रेसकोर्स में पहला आर्ट फ़ेयर ‘आर्ट मुंबई’ नाम से आयोजित किया. सुनियोजित, सुघर, कलाकृतियां खरीदने वाले संग्राहकों से भरपूर. मुंबई का भद्रलोक अपनी पूरी पैशनपरस्त विविधता के साथ पहली ही शाम मौजूद था. कई कलाकृतियों पर तभी लाल बिंदु लग गये थे जिसका आशय था कि वे खरीद ली गई हैं.

ऐसे मेलों का एक सुखद पक्ष यह है कि आपको देशभर के कई कलाकार बंधु और बांधवियां मिल जाते हैं और कई युवा कलाकार भी, जो आपको जानते हैं, भले आपसे रूबरू परिचय या भेंट पहले न हुई हो. समकालीन भारतीय कला की विविधता आश्चर्यजनक है: उसमें नई सामग्री, नई शैलियों, नई थीमों का विपुल वितान है. मुझ पर एक प्रभाव यह पड़ा कि समकालीन कलाभिव्यक्ति में रंगीनी कुछ घट रही है. बहुत-सा अच्छा काम स्याह और सफेद में है. आकृतिमूलकता और आख्यानपरकता का आतंक भी घट गया है.

मुंबई में आयोजित इस प्रदर्शनी में वहां के कुछ मूर्धन्य कलाकारों जैसे अकबर पद्मसी, तैयब मेहता, वासुदेव गायतोंडे, बाल छाबड़ा के काम बहुत कम हैं. तैयब का एक ही दिखा, बाल का एक भी नहीं.

हमारा समय भयानक रूप से राजनीति से आक्रांत है. वह सर्वग्रासी हो गई है. अगर यह मानें कि साहित्य और कलाएं इस समय प्रतिरोध में हैं तो इसका बहुत कम साक्ष्य इस बड़े आयोजन में दिखाई दिया. बड़े आकार के महत्वाकांक्षी काम बनाने की वृत्ति बहुत है, भले उसमें समतुल्य महत्व नहीं मिलता.

अगले वर्ष सूज़ा जन्म शताब्दी शुरू हो रही है. उनकी कलाकृतियां ख़ासी बड़ी संख्या में प्रदर्शित हैं जो बहुत उपयुक्त है. रज़ा, रामकुमार, कृष्ण खन्ना के काम भी हैं. बड़ोदा के कई कलाकारों के काम दर्शाती एक गैलरी में वहां के कुछ कलाकारों जैसे गुलाम मुहम्मद शेख़, भूपेन खक्खर, जेराम पटेल आदि के कुछ बहुत पहले के काम देखने का सुयोग मिल सका.

एक और प्रभाव यह भी पड़ा कि अच्छी संख्या में युवा कलाकार अमूर्तन कर रहे हैं. अमूर्तन का बहुत कल्पनाशील और निर्भीक उपयोग दिख पड़ा. नसरीन मोहमदी का कोई काम नज़र नहीं आया पर ज़रीना हाशमी की कुछ कागज़ पर बनी कलाकृतियां कहीं प्रदर्शित हैं.

मुंबई, दिल्ली से पहले, बहुत पहले आधुनिक कला को प्रोत्साहित करता रहा है. भारत में आधुनिक कला के सबसे बड़े और समझदार संग्राहक वहां रहे हैं. अब उस शहर का अपना आर्ट फेयर हो गया, यह अच्छी बात है. सैफ़रन आर्ट ने हुसैन की फ़ैंटेसी से उपजी कुछ बिरली कलाकृतियां एकत्र कर दिखाई हैं. किरण नादर संग्रहालय ने एक पूरा खंड हाल ही में दिवंगत विवान सुंदरम को प्रणति के रूप में आयोजित किया है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

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