स्मृति शेष: प्रख्यात कला-इतिहासकार और भारतीय कला-इतिहास के मर्मज्ञ बीएन गोस्वामी नहीं रहे. यह उन जैसे साधक विद्वान के लिए ही संभव था कि वह कला में मौन के महत्व को रेखांकित कर सके.
भारतीय कला-इतिहास के मर्मज्ञ और प्रख्यात कला-इतिहासकार बीएन गोस्वामी का बीते 17 नवंबर को निधन हो गया. धीरे-धीरे हमारे बीच से ज्ञान के अभूतपूर्व साधकों की पीढ़ी अब उठती जा रही है. दशकों तक ज्ञान साधना करने वाले वे विद्वान, जिन्हें दुनिया ने मान दिया. यह बृजेंदर नाथ गोस्वामी (1933-2023) जैसे साधक विद्वान के लिए ही संभव था कि वह कला में मौन के महत्व को रेखांकित कर सके. नैनसुख और मानकु जैसे चित्रकारों को कला-इतिहास की दुनिया में उनका प्राप्य दिलाने के लिए जिस साधना की ज़रूरत थी, वह बीएन गोस्वामी जैसे साधक ही संभव कर सकते थे.
प्रशासनिक सेवा से अकादमिक जीवन
अविभाजित पंजाब में पैदा हुए बीएन गोस्वामी ने अमृतसर और पंजाब यूनिवर्सिटी (चंडीगढ़) से उच्च शिक्षा हासिल की. पचास के दशक में वे भारतीय प्रशासनिक सेवा में नियुक्त हुए, लेकिन दो साल बाद ही उन्होंने प्रशासनिक सेवा से त्यागपत्र दे दिया. प्रशासनिक सेवा से इतिहास और इतिहास से कला-इतिहास की ओर उनके आने में कला और ज्ञान के प्रति उनके गहरे अनुराग ने बड़ी भूमिका निभाई.
भारतीय प्रशासनिक सेवा से त्यागपत्र देने के बाद उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी से कांगड़ा की चित्रकला पर शोध किया, जहां पंजाब के इतिहासकार हरिराम गुप्ता उनके शोध-निर्देशक रहे. आगे चलकर बीएन गोस्वामी पंजाब यूनिवर्सिटी में ही कला-इतिहास के प्राध्यापक नियुक्त हुए, जहां उन्होंने लंबे समय तक अध्यापन किया.पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित बीएन गोस्वामी ने हीदेलबर्ग, बर्कली और ज़्यूरिख़ यूनिवर्सिटी में भी अध्यापन किया.
पंजाब के मुग़लकालीन दस्तावेज़ों का संपादन
साठ के दशक में बीएन गोस्वामी ने पंजाब यूनिवर्सिटी के ही एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार जेएस ग्रेवाल के साथ मिलकर मुग़लकालीन ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के संपादन का महत्वपूर्ण काम किया. वर्ष 1967 में बीएन गोस्वामी ने जेएस ग्रेवाल के साथ ‘द मुग़ल्स एंड द जोगीज़ ऑफ जखबर’ का संपादन किया. भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला से प्रकाशित इस पुस्तक में पंजाब के जखबर गांव के नाथपंथी योगियों को मुग़ल शासकों से मिले मदद-ए-म’आश और दूसरे अनुदानों से जुड़े दस्तावेज़ संकलित थे.
उल्लेखनीय है कि जखबर के ये नाथपंथी योगी कनफटा संप्रदाय से संबंधित थे.
इसके दो साल बाद ही बीएन गोस्वामी ने जेएस ग्रेवाल के साथ मिलकर पंजाब के इतिहास के संदर्भ में एक और महत्वपूर्ण काम किया. उन्होंने पिंडोरी के वैष्णवों के फ़ारसी में लिखे दस्तावेज़ संपादित और अनूदित किए, जो मुग़ल और सिख शासकों से संबंधित थे. यह किताब ‘द मुग़ल एंड सिख रूलर्स एंड वैष्णवाज ऑफ पिंडोरी’ शीर्षक से भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला द्वारा ही प्रकाशित की गई.
इस किताब में पंजाब के गुरदासपुर ज़िले में पिंडोरी स्थित वैष्णव गद्दी (ठाकुरद्वारा भगवान नारायणजी) के 52 फ़ारसी दस्तावेज़ों के प्रकाशन के साथ ही उनका ऐतिहासिक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया था.
पिंडोरी के तत्कालीन महंत महाराज रामदास और उनके विद्वान शिष्य जय रघुनंदन दास शास्त्री ने बड़ी उदारता से पिंडोरी गद्दी के ये दस्तावेज़ बीएन गोस्वामी और जेएस ग्रेवाल को अध्ययन और प्रकाशन के लिए उपलब्ध कराए. ये दस्तावेज़ उत्तर-मुग़ल कालीन पंजाब और सिख राज्य के राजनीतिक व प्रशासनिक इतिहास, तत्कालीन पंजाब के सामाजिक-आर्थिक इतिहास की दृष्टि से तो महत्व के हैं ही, ये पंजाब में वैष्णववाद के प्रसार के इतिहास से भी हमें रूबरू कराते हैं.
इस पूरी परियोजना को संभव बनाने में भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान के तत्कालीन निदेशक और प्रसिद्ध इतिहासकार निहाररंजन राय का भी बड़ा योगदान था.
कला-इतिहास: रस और आनंद
धीरे-धीरे बीएन गोस्वामी की रुचि कला-इतिहास के प्रति हुई और पहाड़ी कला ने तो उनका मन ऐसा मोहा कि उन्होंने अपना समूचा जीवन भारतीय कला के विविध पक्षों को जानने-समझने को अर्पित कर दिया. आख़िर में दुनिया ने भी उनकी कला-दृष्टि और कला-इतिहास संबंधी उनके चिंतन का लोहा माना.
अपनी चर्चित पुस्तक ‘द स्पिरिट ऑफ इंडियन पेंटिंग’ में उन्होंने लिखा कि ‘चित्र हमारे सामने अर्थों की बहुस्तरीय दुनिया प्रस्तुत करते हैं. ज़रूरत इस बात की है कि हम उसके अर्थवैभव को समग्रता में ग्रहण कर सकें.’ चित्रों को समझने के क्रम में ‘उत्साह’ के भाव, चित्रों की दृश्यात्मकता में ख़ुद को डुबोने और इस तरह चित्रों को पढ़कर आनंदित होने पर उन्होंने ज़ोर दिया.
‘रस’ के साथ ‘आनंद’ के भाव को जोड़ते हुए उन्होंने भारतीय परंपरा में रसिक, रसवंत और रसास्वादन जैसी धारणाओं को लगातार रेखांकित किया. उनके अनुसार, भारतीय परंपरा में ‘रस’ से तात्पर्य है कला और दर्शक के बीच का संबंध और उससे दर्शक के भीतर जागृत होने वाला भाव.
संयोग नहीं कि बीएन गोस्वामी के मार्गदर्शन में ही वर्ष 1986 में भारतीय कला में नौ रसों की महत्ता को दर्शाने वाली एक चर्चित कला-प्रदर्शनी का आयोजन ‘फ़ेस्टिवल ऑफ इंडिया’ के अंतर्गत सेन फ़्रांसिस्को में हुआ. उसी क्रम में उन्होंने भारतीय कला में उपस्थित नौ रसों को आधार बनाकर ‘द एसेंस ऑफ इंडियन आर्ट’ शीर्षक से एक पुस्तक भी लिखी.
शास्त्र, परंपरा और चित्रकार
बीएन गोस्वामी हमें भारतीय परंपरा में कला के शास्त्रीय पक्ष से भी रूबरू कराते हैं. इस क्रम में, वे भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’, विश्वनाथ कृत ‘साहित्य दर्पण’, ‘चित्रसूत्र’, ‘मानसोल्लास’ और ‘चित्रलक्षण’ जैसे शास्त्रीय ग्रंथों में दी गई स्थापनाओं की भी गहन चर्चा करते हैं. भारतीय चित्रकारों ने देश और काल की धारणा को किस तरह अपने चित्रों में दर्शाया, इसे समझने में भी उनकी गहरी दिलचस्पी रही.
उनका मानना था कि चित्रकार भले ही दार्शनिक न हो, लेकिन वह भारतीय परंपरा का ही अंग है, और इस तरह वह न केवल भारतीय परंपरा से विचारों को आत्मसात् करता है, बल्कि अपनी ओर से उस परंपरा में योगदान भी करता है.
पिछले दो हज़ार सालों में भारतीय चित्रकारों ने अपने चित्रों में काल की गति और काल-चक्र को दर्शाने के लिए जिन युक्तियों का इस्तेमाल किया और इस क्रम में जिस तरह भारतीय परंपरा को समृद्ध किया, उसे भी बीएन गोस्वामी ने अपने लेखन में रेखांकित किया.
ग्यारहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी तक भारतीय कला की विकास-यात्रा, उसकी विभिन्न धाराओं, उसमें परिवर्तन और निरंतरता के तत्त्वों को भी उन्होंने विवेचित किया. भारतीय चित्रकला की इस ऐतिहासिक यात्रा में हिंदू-जैन-बौद्ध कला, सल्तनतकालीन कला, मुग़ल कला, राजपूत व पहाड़ी कला, दक्कनी कला और कम्पनी कला जैसे अहम पड़ाव शामिल हैं.
उनके अनुसार, ‘इन आठ सदियों में भारतीय चित्रकला कई धाराओं में आगे बढ़ी, उसके प्रवाह की गति और उसमें अंतर्निहित ऊर्जा भिन्न-भिन्न थी. चित्रकला का यह विकास रेखीय नहीं था. बल्कि इस दौरान भारतीय चित्रकला की दुनिया में अनेक धाराएं एक-दूसरे के समानांतर बहती रहीं.’
भारतीय चित्रकला की दुनिया को समझने के लिए उन्होंने तीन बिंदुओं पर ख़ास ज़ोर दिया: कलाकार, संरक्षक/आश्रयदाता और चित्रकारी की तकनीक. अकारण नहीं कि कलाकार और उसके संरक्षक के अंतर्संबंध, कलाकार के धार्मिक विश्वास, देवत्व और राजत्व के संबंध तथा कला के पीछे दैवीय प्रेरणा की भूमिका, कला की परख और उसके बदलते हुए प्रतिमान जैसे महत्वपूर्ण विषयों को उन्होंने प्रमुखता से विश्लेषित किया. कूंचियों और रंगों का निर्माण, चित्रकारों के बीच होने वाले परस्पर सहयोग, चित्रकारों द्वारा शास्त्र और प्रयोग के समन्वय को भी उन्होंने रेखांकित किया.
राजकीय सेवा में आने के बाद चित्रकार अपनी भूमिका कैसे निर्धारित करता था, उसकी कलात्मक स्वतंत्रता और सीमाएं क्या थीं, संरक्षकों की वरीयताएं और उनकी रुचियां चित्रकार को कैसे प्रभावित करती थीं, क्या चित्रकार और संरक्षक के बीच कला को लेकर संवाद होता था, क्या उनमें असहमतियां होती थीं, क्या चित्रकार का अपने संरक्षक से मोहभंग भी होता था- भारतीय चित्रकला के संदर्भ में ऐसे महत्वपूर्ण सवालों के जवाब भी बीएन गोस्वामी ने तलाशे.
भारतीय कला के संदर्भ में जहां चित्रकार प्रायः अनाम रहे हैं, वहां कला-इतिहासकार के लिए छोटी से छोटी सूचना, तथ्य या जानकारी के महत्व को भी उन्होंने समझाया. इसके लिए उन्होंने धीरज, इच्छाशक्ति और कल्पना जैसे गुणों को कला-इतिहासकार के लिए बेहद ज़रूरी माना.
‘इतना है बस कि दीद के सामान लाइए’ : लघु-चित्रकला की दुनिया
बीएन भारतीय लघु-चित्रकला के विश्वविख्यात विशेषज्ञ माने जाते रहे. राजपूताना और पहाड़ी कला के अध्ययन के क्रम में लघु-चित्रों की दुनिया को उन्होंने बहुत गहराई से देखा-जाना-समझा और कला की दुनिया को लघु-चित्रों के अनूठेपन से परिचित कराया.
उनका मानना था कि चित्रकला की इन शैलियों को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की तरह ही राज्यों या संरक्षकों ने नहीं चित्रकारों के घरानों ने विकसित और समृद्ध किया.
उनके अनुसार, किसी दुर्लभ और बहुमूल्य पांडुलिपि की तरह ही लघु-चित्र भी विषयवस्तु के साथ ही अपने स्वरूप के लिए भी सराहे जाने चाहिए. लघु-चित्रों के बारे में उन्होंने लिखा कि ‘किसी किताब की तरह लघु-चित्र भी हाथ में लिए और नज़दीक से देखे – बल्कि पढ़े जाने के लिए होते हैं. ताकि देखने वाले की निगाहें लघु-चित्र की छोटी सतह पर घूम सकें, उसके चटख रंगों, काम की बारीकी और चित्रकार की कूंची के हरेक दबाव को जज़्ब कर सकें. और ऐसा करते हुए वह विचारों व छवियों के उन सोपानों से गुजर सकें, जिनसे होकर कोई लघु-चित्र निर्मित होता है.’
कला-इतिहास आम लोगों तक
कला-इतिहास जैसी विशेषज्ञता की मांग करने वाले विषय को आम लोगों तक पहुंचाने और उनमें कलाओं के प्रति आस्वाद जगाने के लिए भी वे तत्पर रहे. वर्ष 1995 में ‘द ट्रिब्यून’ के मुख्य संपादक हरि जयसिंह के आग्रह पर उन्होंने कला संबंधी स्तंभ लिखना शुरू किया, जिनमें से कुछ चयनित लेख बाद में ‘कन्वरसेशंस’ शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुए.
कला से जुड़े विषयों पर आम पाठकों के लिए नियमित रूप से स्तंभ लिखना निश्चय ही चुनौती से भरा काम था, जिसे बीएन गोस्वामी ने बख़ूबी संभव कर दिखाया. ‘द ट्रिब्यून’ के लिए उन्होंने ‘आर्ट एंड सोल’ शीर्षक से पाक्षिक कला-स्तंभ लिखा, जिसमें छह सौ से अधिक लेख प्रकाशित हुए. उनके ये लेख आनंद के. कुमारस्वामी, डबल्यू.जी. आर्चर जैसे कला-इतिहासकारों के बारे में हैं, तो साथ ही मुग़ल, राजपूत, जैन, पहाड़ी और कच्छ की चित्रकला शैलियों और भारतीय वस्त्रों व परिधानों के बारे में भी हैं. साथ ही इसमें दुनियाभर के कला-संग्रहालयों में मौजूद भारतीय चित्रकला के नायाब संग्रह, कला-संरक्षकों की भूमिका, कला-प्रदर्शनियों और चित्र-वीथिकाओं पर अंतर्दृष्टिपूर्ण लेख भी शामिल हैं.
कला, साहित्य, इतिहास की दुनिया में समान रूप से आवाजाही करने वाले बीएन गोस्वामी ने अपने जीवन के आख़िरी सालों में भारतीय कला में प्रदर्शित बिल्लियों की छवियों पर शानदार काम किया. भारतीय कथा-साहित्य में, कलाओं में, कविताओं और लोकोक्तियों में बिल्लियों को कैसे दर्शाया गया, इस पर उन्होंने ‘द इंडियन कैट’ शीर्षक से एक रोचक किताब लिखी.
कविताओं में भी उनकी बेहद दिलचस्पी रही. अकारण नहीं कि उनके लेखों, व्याख्यानों में आप जगह-जगह रूमी, ग़ालिब, मीर तकी मीर, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ आदि के काव्य-उद्धरण पाएंगे. अपने एक व्याख्यान का आरंभ बीएन गोस्वामी ने फ़ैज़ की इस मशहूर नज़्म के साथ किया था. फ़ैज़ की ये पंक्तियां ज्ञान की दुनिया के प्रति बीएन गोस्वामी की प्रतिबद्धता की ही मानो बानगी देती हैं:
हम परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करते रहेंगे
जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे.
अलविदा उस्ताद!
(लेखक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं.)