राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक को अपनी सहमति न दिए जाने से वह ख़त्म नहीं हो जाता: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि विधायिका द्वारा प्रस्तावित क़ानून केवल इसलिए समाप्त नहीं हो जाता, क्योंकि राज्यपाल उस पर सहमति देने से इनकार कर देते हैं. अंतिम निर्णय विधायिका का है, न कि राज्यपाल का. एक बार जब सदन लौटाया गया विधेयक दोबारा पारित करता है तो राज्यपाल के पास सहमति देने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता.

(फोटो: द वायर)

सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि विधायिका द्वारा प्रस्तावित क़ानून केवल इसलिए समाप्त नहीं हो जाता, क्योंकि राज्यपाल उस पर सहमति देने से इनकार कर देते हैं. अंतिम निर्णय विधायिका का है, न कि राज्यपाल का. एक बार जब सदन लौटाया गया विधेयक दोबारा पारित करता है तो राज्यपाल के पास सहमति देने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता.

(फोटो: द वायर)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने 27 पन्नों के फैसले में स्पष्ट किया है कि राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक को अस्वीकार करने का मतलब उसका खत्म हो जाना नहीं है.

द हिंदू के मुताबिक, मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने तीन न्यायाधीशों की पीठ के लिए फैसला लिखते हुए कहा कि राज्य विधानसभा द्वारा प्रस्तावित कानून केवल इसलिए समाप्त नहीं हो जाता, क्योंकि राज्यपाल उस पर सहमति देने के लिए हस्ताक्षर करने से इनकार कर देते हैं.

फैसला बताता है कि संविधान के अनुच्छेद 200 का मूल भाग राज्यपाल को विधेयक प्रस्तुत करते समय तीन विकल्प प्रदान करता है – प्रस्तावित कानून पर सहमति, सहमति रोकना या राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को आरक्षित करना.

अनुच्छेद 200 का पहला प्रावधान यह कहता है कि राज्यपाल रोके गए विधेयक को, अगर यह धन विधेयक नहीं है, संशोधन सुझाव या विधानसभा से विधेयक पर पुनर्विचार के अनुरोध या इसके विशिष्ट प्रावधान से संबंधी संदेश के साथ यथाशीघ्र सदन में वापस भेज सकते हैं.

फैसले में कहा गया है कि पहला प्रावधान राज्यपाल को चौथी संभावना की पेशकश नहीं करता है.

अदालत ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल किसी विधेयक को खारिज करने के बाद उसे खत्म होने देने और फिर से कानून बनाने के लिए सदन में वापस भेजने के बीच चयन नहीं कर सकते.

मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि सहमति रोकने का निर्णय लेने के बाद राज्यपाल को आवश्यक रूप से विधेयक को दोबारा कानून बनाने के लिए सदन में वापस लौटा देना चाहिए.

अदालत ने कहा कि पहले प्रावधान में उल्लिखित प्रक्रिया विधेयक को सहमति न देने के राज्यपाल के कदम के लिए अनिवार्य प्रक्रिया है. इस प्रकार अदालत ने सहमति रोकने को, विधेयक सदन में पुनर्विचार के लिए वापस भेजे जाने से अटूट रूप से जोड़ दिया है.

इसके अलावा अदालत ने यह स्पष्ट कर दिया कि अंतिम निर्णय विधायिका का है, न कि राज्यपाल का. यानी, एक बार जब सदन लौटाए गए विधेयक को संशोधन के साथ या बिना संशोधन के दोबारा पारित कर देता है, तो राज्यपाल के पास सहमति देने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है.

मालूम हो कि पंजाब के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित द्वारा विधेयकों को लंबित रखने के खिलाफ राज्य सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए बीते 23 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने रेखांकित किया था कि ‘राज्य के एक अनिर्वाचित प्रमुख के रूप में राज्यपाल को कुछ संवैधानिक शक्तियां सौंपी गई हैं’, लेकिन ‘इस शक्ति का उपयोग राज्य विधायिका (सरकार) द्वारा कानून बनाने की सामान्य प्रक्रिया को विफल करने के लिए नहीं किया जा सकता है’.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘राज्यपाल को किसी भी विधेयक को बिना किसी कार्रवाई के अनिश्चितकाल तक लंबित रखने की आजादी नहीं दी जा सकती.

इसमें कहा गया था, राज्यपाल ‘एक प्रतीकात्मक प्रमुख हैं और वे राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई नहीं रोक सकते’.

शीर्ष अदालत ने कहा था, ‘राज्य के अनिर्वाचित प्रमुख के रूप में राज्यपाल केवल यह घोषणा करके कि सहमति रोक दी गई है, विधिवत निर्वाचित विधायिका द्वारा विधायी क्षेत्र के कामकाज पर वस्तुतः वीटो लगाने की स्थिति में होंगे. इस तरह की कार्रवाई शासन के संसदीय पैटर्न पर आधारित संवैधानिक लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के विपरीत होगी. अनुच्छेद 168 के तहत राज्यपाल विधायिका का हिस्सा हैं और संवैधानिक शासन से बंधे हैं.’

यह फैसला महत्वपूर्ण है, क्योंकि तमिलनाडु और केरल की सरकारों ने भी हाल ही में विधेयकों पर राज्यपाल की निष्क्रियता के खिलाफ अदालत का रुख किया था.

पंजाब सरकार द्वारा अपने राज्यपाल के खिलाफ दायर याचिका पर आधारित यह फैसला, तमिलनाडु सरकार के उस दबाव को मजबूती प्रदान करता है, जहां उसने 10 विधेयकों को वापस पारित करके सहमति के लिए राज्यपाल आरएन रवि के पास लौटा दिया है.

बीते 20 नवंबर को अदालत ने राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में राज्यपालों की ओर से देरी पर नाराजगी व्यक्त की थी, क्योंकि इसने तमिलनाडु और केरल सरकारों द्वारा अलग-अलग दायर की गई संबंधित याचिकाओं पर विचार किया और उनसे प्रतिक्रिया मांगी थी. तमिलनाडु सरकार द्वारा दायर याचिका पर 1 दिसंबर को सुनवाई होने की उम्मीद है.

इस बीच बीते 24 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान को सुझाव दिया कि उन्हें पंजाब सरकार की याचिका को लेकर उसके 23 नवंबर को जारी फैसले का अध्ययन करना चाहिए, जिसमें राज्य विधानसभाओं द्वारा उनकी सहमति के लिए भेजे गए विधेयकों के संबंध में राज्यपालों की शक्तियों और संबंधित कर्तव्यों का विवरण दिया गया है.

केरल सरकार ने भी कुछ प्रमुख विधेयकों में देरी के लिए अपने राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के खिलाफ शीर्ष अदालत में याचिका दाखिल की है. राज्यपाल को सहमति के लिए भेजे गए कुछ विधेयक लगभग दो साल पुराने हैं.

केरल सरकार ने राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान पर जन स्वास्थ्य, उच्च शिक्षा, लोकायुक्त आदि मुद्दों पर आठ विधेयकों के पारित होने को रोककर इस तरह से कार्य करने का आरोप लगाया है, जिससे ‘लोगों के अधिकारों का हनन’ होता है.