जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. यह भाग पासवान जाति के बारे में है.
ये जांबाज हैं और पारंपरिक रूप से कर्मठता इनकी रगों में रही है. ये वे रहे, जिन्होंने हार नहीं मानी. इन्होंने अपनी साहस का कभी दुरुपयोग नहीं किया. लेकिन यदि किसी ने भी इनके साथ बदतमीजी की है तो उसका इन्होंने ऐतिहासिक रूप से जवाब दिया है. यही वजह है कि जितनी नफरत इनसे सवर्ण करते हैं, उतनी ही नफरत गैर-सवर्ण दबंग जातियों के लोग भी करते हैं.
यादवों, कोईरी और कुर्मियों से इनकी अदावत तो नहीं, लेकिन एक समान ठसक रही है. और सवर्ण तो खैर इन्हें आज भी ‘अछूत’ ही मानते हैं. जबकि इन्होंने उनका कुछ नहीं बिगाड़ा. उनको छोड़िए इन्होंने ओबीसी के लोगों का कुछ नहीं बिगाड़ा. अन्य दलित जातियों का भी इन्होंने कुछ नहीं बिगाड़ा. लेकिन सब इनसे दूरी बनाकर रखते आए हैं. जबकि ये तो वे हैं, जो लोगों की सुरक्षा करते रहे हैं.
आज भी बिहार, बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाकों में आज भी ये आपको चौकीदार के रूप में मिल जाएंगे.
ये पासवान हैं. लोग इन्हें दुसाध भी कहते हैं. इनका दुसाधपन ही इनकी खासियत रही है. इन्हें कभी इस बात का मलाल नहीं रहा कि लोग इन्हें क्या कहकर संबोधित करते हैं. ये कितने साहसी हैं, इसका अनुमान इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि इन्होंने वह हर काम किया है जो अन्यों के लिए दुसाध्य रहा है. इन्होंने खेतिहर मजदूर के रूप में काम किया. इसकी एक वजह यह भी कि इस जाति के अधिकांश लोग भूमिहीन और साधनविहीन हैं. यदि इनके पास अपनी खेती होती, तो ये अन्यों से अधिक अनाज उपजाकर अपनी क्षमता जरूर साबित करते.
ये पासी जाति की तरह ताड़ भी छेते हैं. ताड़ छेने का मतलब ताड़ के पेड़ पर चढ़कर उसकी कोंपलों को करीने से छिलना ताकि उससे ताड़ी निकले. पासी और पासवान में एक मौलिक अंतर है. पासी जाति के लोग मुख्य तौर पर ताड़ पर आश्रित रहते हैं और पासवान चमड़े का काम भी कर लेते हैं. ये शिकारी जाति भी हैं.
इनका इतिहास कहीं भी व्यवस्थित रूप से संरक्षित नहीं है. मतलब यह कि यह कोई भी नहीं जानता कि इनका उद्गम कहां से हुआ.
इतिहास में तो यह भी दर्ज नहीं कि जब आर्य इस देश में आए तब ये कहां थे. इतना तो तय है कि ये शासक नहीं थे. यदि शासक होते तो निश्चित तौर पर इनका भी इतिहास होता. हालांकि अंग्रेज नृवंशविज्ञानशास्त्री व इतिहासकार हर्बट होप रिज्ले ने अपनी पुस्तक ‘द ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ बंगाल’ (1891) में इन्हें एक खेती करने वाली जाति के रूप में वर्णित किया है. तब बिहार बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा था और रिस्ली के मुताबिक, ये छोटानागपुर के इलाकों में थे.
अंग्रेजों द्वारा लिखित इतिहास में इनके बारे में कुछ और भी वर्णित है. जैसे एक तो यह कि जब अंग्रेज भारत आए और उनका सामना बंगाल के अंतिम स्वतंत्र नवाब सिराजुद्दौला से हुआ तो उन्होंने इनकी सहायता ली. अंग्रेजों ने इन्हें ‘अछूत’ से सैनिक बना दिया और साहस से भर दिया. ठीक वैसे ही जैसे 1818 में अंग्रेजों ने महारों को सैनिक बनाया और भीमा-कोरेगांव की जंग पेशवाओं से जीत ली. इसके पहले पासवान केवल भूमिहारों और ब्राह्मणों का लठैत हुआ करते था या फिर चौकीदार. अंग्रेजों ने इनकी क्षमता को पहचाना और इनके ही सहयोग से अंग्रेजों ने 1757 में प्लासी की लड़ाई में नवाब को हराकर जीत हासिल की. उस समय पासवान जाति के सैनिक रॉबर्ट क्लाइव की सेना में शामिल थे.
खैर, यह बात तो साफ है कि ये ‘अछूत’ माने जाते थे और संभवत: इसलिए कि ये बहादुर और निडर थे. रोजी-रोटी के लिए इन्होंने भीख नहीं मांगी. मेहनत की और हर वह काम किया, जिसमें आत्मसम्मान था.
लेकिन मूल रूप से जनजातीय समाज वाले पासवानों का का हिंदूकरण करने की अंतहीन कोशिशें की गई हैं. एक प्रमाण तो बद्री नारायण की किताब है. इस किताब का नाम है- ‘डॉक्यूमेंटिंग डिसेंट’. यह किताब 2013 में प्रकाशित हुई. यह पहली किताब है, जिसके आवरण पृष्ठ पर चौेहरमल की तस्वीर है.
बद्री नारायण ने अपनी किताब में इनके बारे में जो कुछ लिखा है, उसका कुल मिलाकर मतलब यह है कि ये योद्धा जाति हैं और इनके बारे में एक विचारधारा है कि ये कभी राजस्थान के गहलोत की 22 शाखाओं में से एक थे. बद्री नारायण इन्हें मुगलों से लड़ने वाला बताते हैं और यह भी कहते हैं कि पराजित होने के बाद ये देश के पूर्वी हिस्सों में चले गए.`
बद्री नारायण की उपरोक्त व्याख्या से इसलिए सहमत नहीं हुआ जा सकता है, क्योंकि एक तो वह इसे साबित नहीं करते. दूसरा वे यह नहीं बताते हैं कि राजस्थान के वे राजपूत राजस्थान छोड़कर क्यों नहीं भागे, जो शासक थे और मुगलों से हार गए थे. तो क्या वे यह कहना चाहते हैं कि राजपूतों ने मुगलों से समझौता कर लिया और पासवानों अपने आत्मसम्मान को बचाए रखा?
खैर, इनका ब्राह्मणीकरण सुभद्रा मित्रा चन्ना और जॉन पी. मंशर ने भी अपने द्वारा संपादित पुस्तक ‘लाइफ ऐज अ दलित: व्यूज फ्रॉम दी बॉटम ऑन द कास्ट इन इंडिया’ पुस्तक के पृष्ठ संख्या 322-323 पर भी किया है. इन दोनों ने भी इन्हें क्षत्रिय कहा है. वैसे यह मुमकिन है, क्योंकि अतीत में क्षत्रिय का मतलब क्षेत्रीय नायक हुआ करते थे. पासवान भी अपने क्षेत्र का नायक रहे होंगे. जैसे बुद्ध और उनके पुरखे क्षेत्रीय नायक थे.
खैर, एक प्रमाण यह कि पासवान जाति के लोकनायकों का हिंदूकरण कर दिया गया. एक लोकनायक हैं- चौहरमल. इस लोकनायक और रेशमा की कहानी हीर-रांझा या फिर रोमियो-जूलियट जैसी है. यह कहानी बिहार के मोकामा जिले के इलाके में गा-गाकर सुनाई जाती हैं. ऐसे ही एक और लोकनायक राजा सलहेस गंगा के उत्तरी इलाके में हुए. उनकी पहचान तो एक दयालु शासक के रूप में रही है. लेकिन पंडित प्रदीप झा ने अपनी किताब में उन्हें और पासवानों को महाभारत से जोड़ते हुए दुशासन के वंश का बताया है.
आज की बात करें, तो पासवान जाति के लोग उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल में है. उत्तर प्रदेश में विशेष रूप से बनारस, चंदौली, सोनभद्र, मिर्जापुर, गाज़ीपुर, बलिया, गोरखपुर, देवरिया, सिद्धार्थनगर, बस्ती, बहराइच, संत कबीर नगर, मऊ, जौनपुर, लखनऊ, आज़मगढ़ आदि जिलों इस जाति की आबादी अच्छी है.
वहीं, बिहार के अररिया, अरवल, औरंगाबाद, बांका, बेगूसराय, भभुआ, भागलपुर, भोजपुर, बक्सर, दरभंगा, पूर्वी चंपारण, गया, गोपालगंज, जमुई, जहानाबाद, कटिहार, खगड़िया, किशनगंज, लखीसराय, मुंगेर, मुजफ्फरपुर, नालंदा, नवादा, पटना, पूर्णिया, रोहतास, सहरसा, समस्तीपुर, सारण, शेखर, शिखापुरा, सीतामढ़ी, सीवान, सुपौल, वैशाली, पश्चिम चंपारण में इस जाति के लोग रहते हैं.
झारखंड की बात की जाए, तो रांची, लोहरदगा, गुमला, सिमडेगा, पलामू, पश्चिम सिंहभूम, सरायकेला, खरसावां, पूर्वी सिंहभूम, दुमका, जामताड़ा, साहेबगंज, पाकुड़, गोड्डा, हजारीबाग, चतरा, कोडरमा, गिरिडीह, धनबाद, बोकारो और देवघर में इस जाति के लोग रहते हैं.
प्राय: हर राज्य में ये अनुसूचित जाति में शुमार हैं. देश में संविधान लागू होने के बाद जिन अनुसूचित जातियों ने सबसे अधिक खुद को संगठित और सक्षम बनाया है, उनमें एक ये भी हैं.
यदि बिहार की बात कहें, तो यहां पासवान जाति के लोगों की आबादी 69 लाख 43 हजार है. यह कुल आबादी का 5.311 प्रतिशत है. दलित समुदायों के लिहाज से यह बड़ी आबादी है. इस आबादी का राजनीतिक प्रभाव देखिए कि इनकी ही जाति के भोला पासवान शास्त्री बिहार के मुख्यमंत्री भी बने. और रामविलास पासवान तो एक नजीर ही हैं.
बहरहाल राजनीतिक मोर्चे पर अब यह जाति रामविलास पासवान के बाद नायकविहीन है. इनके सामने रोजी-रोजगार का संकट है, लेकिन सियासत है कि अपने कारनामों से बाज नहीं आती.
(लेखक फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं.)
(इस श्रृंखला के सभी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)