बिहार जाति सर्वेक्षण: बंजारों की तरह जीने वाला समुदाय है बक्खो

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. यह भाग बक्खो जाति के बारे में है.

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Flickr/Carol mitchell)

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. यह भाग बक्खो जाति के बारे में है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Flickr/Carol mitchell)

जन्मना श्रेष्ठ के सिद्धांत वाले समाज में आदमी की पैदाइश ही छुआछूत और भेदभाव के साथ होती है. आदमी चाहे भी इसे अछूता नहीं रह सकता. यदि कोई बच्चा ऊंची जाति वाले परिवार में जन्म लेता है तो जन्म लेने के साथ ही वह समाज में संसाधनों पर अधिकार और सम्मान का हकदार हो जाता है. लेकिन इसके विपरीत निम्न जातियों में जन्म लेने वाले को वंचना और अपमान के सिवाय कुछ नहीं मिलता. भारत में इसे ही सामाजिक व्यवस्था कहा गया है. उदाहरण के लिए एक जाति है- बक्खो.

बक्खो की राष्ट्रीय स्तर पर इनकी आबादी कितनी है, नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इनका उल्लेख अंतिम घोषित जातिगत जनगणना जो वर्ष 1931 में हुई, में भी नहीं थी. हालांकि 1901 में हुई जनगणना में इस जाति का उल्लेख किया गया है. जाहिर तौर पर यह पुरानी बात हो गई है.

बक्खो जाति की आबादी के बारे में बिहार में जाति सर्वेक्षण की रपट में जानकारी सामने आई है, जिसमें इस जाति की आबादी 36, 830 बताई गई है.

सामान्य तौर पर बक्खो वे होते हैं, जिनके पास रहने को घर नहीं और कहने को सारा जहान होता है. वे बंजारों-सा जीवन जीते थे. ऐसी ही जातियां घुमंतू और अर्द्ध-घुमंतू व गैर-अधिसूचित श्रेणियों में शामिल हैं. लेकिन बक्खो इन श्रेणियों में शामिल नहीं. बिहार में ये अति पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं. निश्चित तौर पर इसकी वजह यह रही कि बक्खो जाति के लोगों ने अपनी खानाबदोशी छोड़ स्थायी तौर निवास करना प्रारंभ किया. इसका परिणाम यह हुआ कि बतौर खेतिहर मजदूर बनने का अधिकार मिला. साथ ही इस जाति के लोगों ने अपना पारंपरिक काम भी जारी रखा.

बक्खो जाति का पारपंरिक पेशा एकदम अलहदा रहा है, क्योंकि खुशमिजाजी इसमें शामिल है. यह खुशमिजाजी ही रही कि ये हर खुशी के मौके पर किसी के घर के दरवाजे पर पहुंच जाते हैं, खुशियों के गीत गाते हैं. ऐसा करते हुए वे हिंदू-मुस्लिम का भेद नहीं करते. इनकी खनकती आवाज से न तो हिंदुओं को कोई समस्या थी और न ही मुसलमानों को. इनके काम में बक्खो महिलाएं भी साथ देती हैं और उन्हें  बक्खोआईन कहा जाता है.

एक समय वह था जब बक्खो जाति के लोग जब उन लोगों के घर जाते, जिनके घरों में कोई बच्चा होता था. वे बच्चे के आगमन की खुशी में गीत गाते. वहीं दान में मिला अनाज, कपड़ा और नकद हमारा इनाम होता और हम राजी-खुशी रहते थे. इसके अलावा वे कई और तरह के काम करते थे, लेकिन इनकी खुशमिजाजी हमेशा बनी रही.

लेकिन कहते हैं न कि सारे दिन एक जैसे नहीं होते. लोगों के पास पैसे आते गए, पर उनके दिल तंग होते चले गए. पहले लोग मिन्नतें करते थे कि बक्खो जाति के लोग उनके घर बधाई गााने आएं. कई तो उपहार में रुपये-पैसे के अलावा जमीन भी दे देते. अगर कुछ ऐसा हुआ तो इन खानाबदोशों को रहने का ठौर भी मिल जाता. लेकिन ऐसे कद्रदान बहुत कम ही थे.

हिंदुओं में ऐसी ही एक जाति है- नट. इस जाति के लोगों का महत्व तो इसी से जाना जा सकता है कि निसंतान महिलाएं छठ के मौके पर अपना आंचल पसारकर उन्हें नाचने के लिए अनुरोध करते हैं ताकि उनके आंगन में भी नौनिहाल नाचें. इसे नेटुआ का नाच कहा जाता है.

खैर, लंबे समय तक बक्खो जाति के लोग खानाबदोश रहकर संस्कृतियों का विस्तार भी करते थे. मजहबी बंदिशें नहीं थीं. इनका काम बधाई देना था ही. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सभी इन्हें अपना मानते भी थे. मतलब यह कि कहने को सारा जहां मेरा था और रहने को एक धुर जमीन नहीं थी. यही स्थिति कमोबेश आज भी है.

संभवत: इसलिए भी इन्होंने खंजरी बजाना छोड़ दिया है. गीत गाना बंद कर दिया है. उसके बदले ये अब दिहाड़ी मजदूरी करते हैं. कभी ये आपको माथे पर रखकर बर्तन, पुराने कपड़ों की फेरी करते दिख जाएंगे और कभी बिहार के सुदूर ग्रामीण इलाके में मुमकिन है कि इनकी सुरीली आवाज भी सुनने को मिल जाए.

(लेखक फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं.)

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